राजनीति का अपराधीकरण

political scams in India an hindi essay

संकेत बिंदु-(1) राजनीति और अपराध अन्योन्याश्रित (2) अपराधियों के लिए शरणस्थली और माध्यम (3) राजनीति के अपराधीकरण के अन्य माध्यम (4) समाज पर प्रभाव (5) उपसंहार।

आज भारत की राजनीति और अपराध अन्योन्याश्रित हो चुके हैं। बिना अपराध राजनीति पंगु तथा पौरुष-विहीन नर और दंत विहीन हिंस्र पशु के समान हो चुकी है। राजनीतिज्ञों के आश्रय के अभाव में अपराधियों की गति नहीं। इनके बिना वे कारागार की अंधेरी कोठरी में घुट-घुट कर जीने को अभिशप्त हैं।

राजनीति के विषय में एक कहावत है, “पॉलिटिक्स इज द गेम ऑफ स्काउनड्रल्स” अर्थात् राजनीति गुंडों का खेल है। गुंडापन इस खेल का विधान है। काला धन खेल का क्रीडांगण है। पुलिस संरक्षण खेल का निर्णायक तत्त्व (रेफरी) है। श्री अरविंद चतुर्वेदी इसका समर्थन करते हुए लिखते हैं, “यह विषबेल पुलिस संरक्षण व कालेधन रूपी खाद पाकर पनपती गई तथा परवान चढ़ती गई। अपराध की लताएँ राजनैतिक बरगद के चारों ओर इस तरह लिपट गई हैं कि अब बरगद के मूल तने तथा इन विष बेलों में फरक करना मुश्किल हो गया है।’ श्रीमती सुषमा स्वराज्य ने दूरदर्शन के एक साक्षात्कार में सही कहा था, ‘राजनीति का अपराधीकरण हो रहा है या अपराधियों का राजनीतीकरण।’

चुनाव सभा में भीड़ जुटाने, बोगस मतदान कराने, मत पत्र छीनने तथा मत पेटी लूटने, विरोधियों को धमकाने-डराने के लिए अपराधी तत्त्व का सहारा लिया जाता है और बदले में उन्हें मुँह माँगा पैसा और राजनीतिक संरक्षण प्रदान किया जाता है। जैसे-जैसे राजनीतिज्ञों का अपराधी तत्त्वों पर आश्रय बढ़ता गया, अपराधी तत्त्व भी सुरसा की तरह मुँह फैलाकर अपनी माँग बढ़ाने लगे। जहाँ अपराधी तत्त्व संपन्न थे या हो गए हैं, वहाँ उन्होंने धन और संरक्षण के बदले चुनाव का टिकट माँगना शुरू किया है। ‘बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ ते पाए।’ फलतः राजनीतिक दलों ने विवशता तथा विजय की संभावनावश अपराधियों को चुनाव लड़वाना शुरू कर दिया। इस प्रकार हुआ अपराधियों का राजनीतिक संरक्षण। श्री आनंद प्रधान के शब्दों में, “अपराधियों के लिए राजनीति अब सिर्फ शरणस्थली मात्र नहीं है, बल्कि राजनीति उनके लिए एक ऐसा औजार बन गई है, जिसके जरिये वह न सिर्फ लूटपाट के नए-नए अवसर खोज पाते हैं, बल्कि राजनीति उनको लूटपाट की एक राबिन हुडी सामाजिक स्वीकृति भी दिला देती है। यह एक नितांत पीड़ादायक सच्चाई है कि आज के युवा और विद्यार्थी को राजनीति का आदर्शवाद और परिवर्तन की आकांक्षा नहीं खींचती है, बल्कि राजनीति और अपराध के घालमेल से सफलता का ‘ शार्टकट’ ज्यादा आकर्षित करता है।”

राजनीति और अपराध का संबंध पहले-पहल पाँचवें आम चुनाव सन् 1971 में प्रकट हुआ, जब राजनीतिक प्रत्याशियों ने अपराधियों के सहयोग से मत पेटियाँ लूटी और मत-पत्रों का दुरुपयोग हुआ। परिणामतः चुनाव आयोग को 66 मतदान केंद्रों पर दोबारा मतदान कराना पड़ा था। उसके बाद प्रत्येक प्रांतीय चुनाव तथा लोकसभा चुनाव में तो यह प्रवृत्ति बढ़ती गई। 1990 के बाद तो स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई। सन् 1999 के महानिर्वाचन में तो राजनीतिक हत्याएँ, जाली मत-पत्र डलवाने, थोक में मतपत्र डालने, मत पेटियों का अपहरण तथा पुनः चुनाव करवाने के चुनाव आयोग के आँकड़े चौंकाने वाले हैं।

लगभग सभी राजनीतिक दल आपराधिक तत्त्वों का सहयोग ही नहीं लेते, उन्हें वे अपना प्रत्याशी भी बनाते हैं। वोहरा समिति की रिपोर्ट को सच मान लिया जाए तो आज राजनेताओं, अपराधियों, नौकरशाही और उद्योगपतियों के बीच ऐसा अपावन गठबंधन है जो समूचे लोकतंत्र और चुनावी प्रक्रिया के लिए भयंकर चुनौती है।

राजनीति और अपराध का आरंभ 1968 के कांग्रेस विभाजन के समय से प्रारंभ हुआ। तब पुराने त्यागी-तपस्वी कांग्रेसी इंदिरा जी की तिकड़मों को देखकर उनसे दूर हुए। 1971 के चुनाव के बाद चंद्रशेखर, कृष्णकांत, मोहन धारिया तथा रामधन जैसे ‘युवा-तुर्क’ कहे जाने वाले नेताओं को कांग्रेस से धकेलने की योजना बनी। इस बढ़ते शून्य को भरा उन तत्त्वों ने जिनका राजनीतिक विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। इस पूरी प्रक्रिया में राजनीति का गैर राजनीतिकरण या अपराधीकरण हुआ।

राजनीति के अपराधीकरण के दूसरे माध्यम बने उद्योगपति। उद्योगों में मजदूर संघों की ताकत तोड़ने के लिए असामाजिक तत्त्व और राजनेताओं का सहयोग जरूरी था। तस्करी तथा जमीनों पर अनधिकृत कब्जे के धंधे में व्यापारियों के लिए दादाओं, भ्रष्ट राजनेताओं तथा भ्रष्ट अफसरों का आश्रय अनिवार्य था। इस आपराधिक सहयोग-सहायता की भागीदारी के काले धन से राजनेता चुनाव लड़ता था। अपराधी पालता था और जनता पर धौंस जमाता था। नेता को वोट दिलवाता था।

राजनीतिक अपराधीकरण का सर्वाधिक प्रभाव समाज जीवन पर पड़ा है। हर गली-मोहल्ले में दादाओं का वर्चस्व आम नागरिक को भय और आतंक में जीने को बाध्य करता है, मुँह सीकर रखने का परामर्श देता है। आज महानगरों में बढ़ते अपराध इस बात का प्रमाण हैं। नागरिक सुरक्षा की प्रहरी पुलिस प्रायः अपराधियों का साथ देती है। वह उनकी सुरक्षा कवच बनती है। उन्हें अपनी नौकरी बचाने, तरक्की पाने और समृद्ध होने के लिए राजनीति के अपराधीकरण रूपी वृक्ष को सींचना होता है। ऐसे सुदृढ़ रक्षात्मक उपाय खोजते रहते हैं, जिनसे यह वृक्ष सदा पुष्पित और पल्लवित रहे।

भारत का न्यायालय अभी ईमानदार हैं, राजनीति के अपराधीकरण की पहुँच से बहुत दूर है, किंतु भारत की न्याय प्रकिया बहुत महँगी है, अतः साधारण-जन की पहुँच से बहुत दूर है। दूसरी ओर, न्यायालयों से मिलने वाला न्याय बहुत विलंब से मिलता है। ‘का वर्षा जब कृषि सुखाने।’ ग्लैडस्टोन के शब्दों में, ‘ Justic delayed is justic denied’. अर्थात् विलंबित न्याय न्याय से वंचित करना है।

आज राजनीति और अपराध भारत में दूध-पानी की तरह एक रूप हो चुके हैं। जिस प्रकार दूध और पानी को अलग करना असंभव है, उसी प्रकार आज की भारतीय राजनीति को अपराध वृत्ति से विमुक्त करना नीचे खड़े रहकर हिमालय की चोटी को स्पर्श करना है, भैंस या बैल से दूध निकालना है। जब राजनेता अपराध कर्म से मुक्ति की बात चिल्ला-चिल्लाकर करता है, तब समूचा प्रहसन और भी अधिक भौंडा अथवा और भी अधिक जुगप्सा पैदा करने वाला लगता है और देश ऐसे शब्दाडंबर को सहने और ढोने को अभिशप्त है।

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