संकेत बिंदु-(1) राष्ट्र की आत्मा (2) संविधान में हिंदी की स्थिति (3) हिंदी को उचित सम्मान नहीं (4) हिंदी के विरुद्ध षडयंत्र (5) उपसंहार।
राष्ट्रभाषा हिंदी राष्ट्र की आत्मा है। भारत की एकरूपता की धुरी है। भारत की संस्कृति और सभ्यता की मूल चेतना को सूक्ष्मता से अभिव्यक्त करने का माध्यम है। राष्ट्रीय विचारों का कोश है। भारतीयता का प्रतीक है।
स्वतंत्र भारत के संविधान निर्माण के समय हिंदी को राष्ट्र-भाषा घोषित करवाने के लिए असंख्य हिंदी प्रेमियों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने प्रदर्शन किए, लाठियों का सामना किया, किंतु भारत की आजादी के लिए सर्वस्व लुटाने वाले कांग्रेसी नेताओं की राजनीति को साँप सूँघ गया। परतंत्रता-काल में हिंदी के हिमायती कांग्रेसी नेता राजनीति के चक्कर में फँस गए। फलतः संविधान के अनुच्छेद 343 में लिखा गया-
‘संघ की सरकारी भाषा देवनागरी लिपि में हिंदी होगी और संघ के सरकारी प्रयोजनों के लिए भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा’, किंतु अधिनियम के खंड (2) में लिखा गया ‘इस संविधान के लागू होने के समय से 15 वर्ष की अवधि तक संघ के उन सभी प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग होता रहेगा, जिसके लिए इसके लागू होने से तुरंत पूर्व होता था।’ अनुच्छेद की धारा (3) में व्यवस्था की गई-‘ संसद उक्त पंद्रह वर्ष की कालावधि के पश्चात् विधि द्वारा-(क) अंग्रेजी भाषा का (अथवा) अंकों के देवनागरी रूप का ऐसे प्रयोजन के लिए प्रयोग उपबंधित कर सकेगी जैसे कि ऐसी विधि में उल्लिखित हों।
इसके साथ ही अनुच्छेद (1) के अधीन संसद की कार्यवाही हिंदी अथवा अंग्रेजी में संपन्न होगी। 26 जनवरी, 1965 के पश्चात् संसद की कार्यवाही केवल हिंदी (और विशेष मामलों में मातृभाषा) में ही निस्पादित होगी, बशर्ते संसद कानून बनाकर कोई अन्यथा व्यवस्था न करे।
चाहिए तो यह था कि संविधान में हिंदी को ही राष्ट्रभाषा माना जाता। अंग्रेजी के सहयोग की बात ही नहीं आनी चाहिए थी। कारण, राष्ट्रभाषा राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक है। हमारे साथ स्वतंत्र होने वाले पाकिस्तान ने उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया। तुर्की के जनप्रिय नेता कमाल पाशा ने स्वतंत्र होने के तत्काल पश्चात् वहाँ तुर्की को राष्ट्रभाषा बना दिया। इतना ही नहीं अपने नाम के साथ ‘पाशा’ विदेशी शब्द हटाकर अपना नाम कमाल अतार्तुक कर दिया। हमारे पश्चात् स्वतंत्र होने वाले अनेक राष्ट्रों ने अपनी-अपनी राष्ट्रभाषा की घोषणा कर दी, किंतु भारत के कर्णधार ‘सबको खुश करने’ की प्रणाली पर चलते हैं। सबको खुश करने का अर्थ सबको नाराज करना होता है। वही हुआ।
राजभाषा अधिनियम 1963 के अंतर्गत हिंदी के साथ अंग्रेजी के प्रयोग को सदैव के लिए प्रयोगशील बना दिया गया। संसद में भी हिंदी के साथ अंग्रेजी के प्रयोग को अनुमति मिल गई और कहा गया कि जब तक भारत का एक भी राज्य हिंदी का विरोध करेगा, हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ नहीं किया जाएगा।
देश के हिंदी हिमायतियों में नेहरू के विरुद्ध बात कहने का साहस ही नहीं था। राष्ट्रकवि, राष्ट्रीय लेखक, राष्ट्रीय झंडा फहराने वाले हिंदी लेखकों, हिंदी-संस्थाओं के संचालकों को काठ मार गया। वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। वे नेहरू जी की भाषा में बोलने लगे, उन्हीं के अनुरूप विचार प्रकट करने लगे। हिंदी-हितैषियों को माँ भारती को पददलित होते देखकर भी लज्जा न आई। हाँ, एकमात्र कांग्रेसी, माँ भारती का सच्चा सपूत सेठ गोविंददास ही इस अग्नि परीक्षा में सफल हुआ। उसने डंके की चोट सीना तान कर राजभाषा अधिनियम 1963 के विरुद्ध मत दिया। वे संसद में दहाड़ उठे, ‘भले ही मुझे कांग्रेस छोड़नी पड़े, पर मैं आँखों देखा विष नहीं खा सकता।’
लोकतंत्र के महान समर्थक पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा हिंदी को सिंहासनारूढ़ करने की अंतिम शर्त लोकतंत्र का अनादर है, जनतंत्र के आधारभूत नियमों के विरुद्ध है, प्रजातंत्र का गला घोंटना है। लोकतंत्र बहुमत की बात करता है, सबके साक्ष्य की नहीं। न सारे प्रांत कभी हिंदी को चाहेंगे, न हिंदी सिंहासनारूढ़ होगी। न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी। परिणाम स्पष्ट है-‘रानी भई अब दासी, दासी अब महारानी थी।’ वस्तुतः वह शर्त अनंतकाल तक अंग्रेजी का वर्चस्व बनाए रखने का षड्यंत्र थी।
तत्कालीन सत्ता शासकों ने अंग्रेजों से सीखा था-‘फूट डालो, राज्य करो।’ यह सिद्धांत शासन संचालन की अचूक औषध है। भाषा के प्रश्न पर उत्तर-दक्षिण की बात खड़ी करके भारतीय समाज को विघटित कर दिया गया। दक्षिण संस्कृत भाषा, विद्वत्ता और अनुसंधान का गढ़ रहा है। हिंदू-संस्कृति और सभ्यता, वैदिक-साहित्य और सूत्रों का अध्ययन और व्याख्या करने की क्षमता दक्षिण की बपौती रही है। दक्षिण के देवालय आज भी हिंदू-संस्कृति की पताका फहरा रहे हैं। आज भी वेदों के पंडित तथा संस्कृतविद्वान् उत्तर की अपेक्षा दक्षिण भारत में अधिक हैं। वही दक्षिण संस्कृत की पुत्री हिंदी का विरोध करे, यह बात समझ से परे है। हाँ, राजनीति द्वारा आरोपित विष-वृक्ष फूट के फल तो लाएगा ही।
हिंदी कहने को राष्ट्रभाषा है, किंतु प्रांतीय भाषाएँ भी उसके इस अधिकार की अधिकारिणी बना दी गई हैं। अंग्रेजी साम्राज्य की गुलामी की प्रतीक अंग्रेजी आज भी भारत पर राज्य करती है। राज्य कार्यों में उसका ही वर्चस्व है।