“इस समय शक्ति का केंद्र नई दिल्ली है, कलकत्ता है, बंबई है या बड़े शहरों में है। मैं इसे भारत के सात लाख गाँवों में बाँट दूँगा, तब इन सात लाख इकाइयों में स्वतः सहयोग होगा। और उस सहयोग से वास्तविक स्वतंत्रता पैदा होगी, एक नई व्यवस्था आयगी, जो सोवियत रूस की नई व्यवस्था से कहीं ऊंचे दर्जे की होगी।”
महात्मा गांधी
1951 की जनगणना के अनुसार भारत की 85.5 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में रहती है और विदेशी शासन इसी की घोर उपेक्षा कर रहा था। उसके लिए ग्राम केवल शोषण के लिए कामधेनु थे। किसान अनाज व रूई बोता था। उससे भारत के गौरांग प्रभु और नागरिक जनता दोनों का पोषण भले ही हो, पर स्वयं अन्नदाता किसान भूखा रह जाता था। ग्रामीण उद्योग-धंधे नष्ट होते जा रहे थे। ग्रामों की दशा अत्यंत हीन हो चुकी थी।
नई योजना के उद्देश्य
लेकिन लोकतन्त्री भारत में आज ग्रामवासी ही शासक है। उसकी उपेक्षा असंभव है। इसलिए ग्रामवासी भारत के कल्याण की ओर पहले ध्यान देना अनिवार्य था। यों भी 85 प्रतिशत जनता को दरिद्र रखकर देश को समृद्ध नहीं किया जा सकता। बड़े-बड़े कल-कारखानों, बाँध तथा विशाल धन राशि व्यय करने वाली बृहत्काय योजनाओं से किसानों को तत्काल लाभ नहीं पहुँच सकता था। फिर भारत इंग्लैंड या अमरीका नहीं है। भारत की समृद्धि ग्रामों की समृद्धि का दूसरा पर्याय है। 2 अक्टूबर, 1952 को गांधीजी की 84वी जयंती के शुभ दिन सामुदायिक योजना का प्रारंभ ग्रामों के पुनर्निर्माण को सामने रखकर ही किया गया।
इस योजना का उद्देश्य भारत सरकार द्वारा प्रकाशित योजना की रूपरेखा में इन शब्दों में बताया गया है-
“सामुदायिक योजना का उद्देश्य होगा योजना के अंतर्गत पड़ने वाले इलाकों के पुरुषों, स्त्रियों व बच्चों के जीवित रहने के अधिकार के स्थापन में एक मार्ग प्रदर्शक व्यवस्था के रूप में सेवाएँ प्रदान करना। किंतु कार्यक्रम की प्रारंभिक अवस्थाओं में इस उद्देश्य की पूर्ति के मुख्य साधन खाद्य की ओर सर्वप्रथम ध्यान दिया जाएगा।”
इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जिन बातों की ओर सर्वप्रथम ध्यान देने का निश्चय
हुआ, वे ये हैं-
1. खेती और उनसे संबद्ध क्षेत्र भूमि का खेती के लिए सुधार, सिंचाई की व्यवस्था, अच्छे बीज, खाद, औजार, हाट-व्यवस्था, सहकारी समितियाँ व पशुओं का विकास आदि।
2. संचार साधन – सड़कों व यातायात साधनों की सुंदर व्यवस्था।
3. शिक्षा — अनिवार्य निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा, सामाजिक शिक्षा व पुस्तकालय।
4. स्वास्थ्य -सफाई, चिकित्सा तथा प्रसव की उत्तम व्यवस्था।
5. प्रशिक्षण – सब कार्यो के लिए कार्यकर्त्ताओं को ट्रेनिंग देना।
6. नियोजन – ग्रामोद्योगों व शिल्पों को प्रोत्साहन, जिससे लोगों को काम मिले।
7. मकानों की व्यवस्था – देहातों व शहरों में कम खर्च में अच्छे मकान बनाना।
8. सामाजिक कल्याण – जनसमुदाय में सांस्कृतिक उन्नति, सहकारी स्वावलंबन की भावना का जन्म और मेले, खेल-कूद आदि मनोरंजन।
एक लाख से अधिक गाँवों में
प्रारंभ में सामुदायिक योजना को प्रारंभ करने के लिए महात्मा गांधी के शुभ जन्मदिन 2 अक्टूबर सन् 1952 को 75 केंद्रों में यह योजना प्रारंभ कर दी गई। उन क्षेत्रों में 18,464 गाँव सम्मिलित थे। इनका क्षेत्रफल 2,660 वर्गमील तथा आबादी करीब डेढ़ करोड़ थी। इसके बाद प्रतिवर्ष 2 अक्टूबर को अधिकाधिक केंद्र खुलते गए। इन योजनाओं की पूर्ति में अमरीका का भी सहयोग मिला। अब सामुदायिक योजना का क्षेत्र बहुत अधिक व्यापक हो गया है। प्रारंभ में न प्रशिक्षित कार्यकर्त्ता थे और न किसी को कार्य करने का अनुभव था। जनता में भी उस कार्य के संबंध में न कोई अनुभव था और न कोई जानकारी। परंतु अब यह स्थिति नहीं है। एक लाख से अधिक गाँवों में इस समय सामुदायिक योजना चल रही है। लोगों को इसके द्वारा अपना और अपने ग्राम का सुधार करने की प्रेरणा मिल रही है और इसका परिणाम यह हो रहा है कि जनता अपने आप सहयोग दे रही है।
अनेक राज्यों में इस सामुदायिक विकास के लिए विकास मंडल, ग्राम मंडल समिति आदि के नाम से अनेक संस्थाएँ बन गई हैं। ज्यों-ज्यों ग्रामों की जनता इन योजनाओं का लाभ देखती जा रही है उसका सहयोग भी बढ़ता जा रहा है।
योजना का रूप
सामुदायिक विकास और राष्ट्रीय विस्तार कार्यक्रम की इकाई विकास खंड हैं। एक विकास खंड में औसत रूप से 100 गाँव होते हैं जिनकी आबादी 66,000 होती है। विकास खंड का औसत विस्तार डेढ़ सौ से 170 वर्ग मील तक होता है। 1655-56 तक यह लक्ष्य रखा गया था कि देश की एक- चौथाई देहाती आबादी को उसका लाभ मिले। 31 अगस्त 1657 को देश भर में कुल 15 करोड़ आबादी वाले 2,72,756 गाँवों में 2,120 राष्ट्रीय विस्तार सेवा और सामुदायिक विकास खंड चालू थे और यह अनुमान किया जाता है कि 1961 तक सारे देश में राष्ट्रीय विस्तार सेवा खंड खुल जाएँगे। देश के कुल 40 प्रतिशत हिस्से में सामुदायिक विकास खंड काम करने लगेंगे।
अनेक कमियाँ
यह ठीक है कि सामुदायिक योजना ने गाँवों में एक नया वातावरण पैदा कर दिया किंतु फिर भी अभी अनेक कमियाँ विद्यमान हैं, जिनकी और शासकों और सार्वजनिक कार्यकर्त्ताओं का ध्यान गया है। इनमें से एक बड़ी कमी यह है कि यह योजनाएँ सरकारी योजनाएँ बनकर रह गई हैं। जनता को स्वयं प्रेरणा कम मिली है। दूसरा आक्षेप यह है कि यह योजनाएँ बहुत खर्चीली हैं। तीसरा आक्षेप यह कि इन योजनाओं की प्रेरणा अमरीका से ली गई है। इसलिए भारतीय जीवन परंपरा का ध्यान कम रखा गया है। यहाँ तक कि इनका नाम भी ग्राम सुधार अथवा ग्रामोत्थान न होकर कम्यूनिटी प्रोजेक्ट रखा गया है। इन योजनाओं के अधिकारियों में भी निःस्वार्थ सेवा-भाव और ग्रामीण जनता की हितैषिता कम है। वे देहातियों में घुल-मिल नहीं सकते। चौपालों में देहातियों के साथ मिलकर रहने में उन्हें अपने कपड़े मैले होने या पतलून की क्रीज़ खराब होने का डर रहता है। इसमें संदेह नहीं कि उक्त आक्षेपों में काफी सच्चाई है। परंतु नई योजना में इन कमियों को दूर करने की कोशिश की जा रही है। इस कार्यक्रम को “सरकारी काम में जन सहयोग” की बजाए “जनता के काम में सरकार का सहयोग” का रूप दिया जा रहा है। गाँव में अपने संगठन अर्थात् पंचायतें स्थापित करके उन्हीं को योजना चलाने का कार्य सौंप दिया जाएगा। पहली योजना की अवधि में ग्राम पंचायतों की संख्या 1 लाख 17 हजार हो गई थी। दूसरी योजना के अंत तक पंचायतों की संख्या करीब ढाई लाख हो जाएगी। यह पंचायतें अपने-अपने क्षेत्र में योजनाओं को चलाएँगी। छोटे-छोटे ग्रामोद्योग सहकारी समितियों के द्वारा चलाए जाएँगे। खेती के नए तरीके, बढ़िया बीज और हल आदि का प्रबंध भी यही पंचायतें करेंगी।
सब से बड़ा लाभ
इन सामुदायिक योजनाओं के पूर्ण करने का जहाँ यह लाभ होगा कि हमें अन्न, वस्त्र, मकान, शिक्षा आदि मिलने लगेंगे, वहाँ उससे भी बड़ा लाभ यह होगा कि हम राष्ट्र में एक नई जागरूकता, एक नई चेतना और एक नई स्फूर्ति उत्पन्न कर सकेंगे जो हमारे राष्ट्रीय चरित्र को ऊँचा कर देगी। पंडित नेहरू ने ठीक ही कहा है कि यह योजनाएँ इस कारण और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हैं कि उनका उद्देश्य जनसमुदाय तथा व्यक्ति, दोनों का निर्माण और न केवल व्यक्ति या उसके ग्राम-केंद्र का ही, बल्कि व्यापक अर्थो में भारत का भी निर्माण करना है।