संकेत बिंदु – (1) युवक-युवतियों का एक साथ पढ़ना (2) सह शिक्षा के लाभ (3) प्राथमिक शिक्षा में अध्यापिका की भूमिका (4) सहशिक्षा के दुर्गुण (5) पाश्चात्य संस्कृति की ओर अग्रसर।
विद्यालय के एक ही कक्ष में एक ही श्रेणी में बालक-बालिकाओं, युवक-युवतियों का साथ-साथ शिक्षा ग्रहण करना ‘सहशिक्षा’ है। पाठ्यक्रम, अध्यापक तथा कक्ष की एकता में छात्र-छात्राओं का शिक्षार्थ गमन ‘सहशिक्षा’ है।
आर्य समाज के प्रचार ने स्त्री-शिक्षा पर बल दिया तो अंग्रेजी प्रचार ने सह-शिक्षा को प्रश्रय दिया। ज्यों-ज्यों भारत में पाश्चात्य संस्कारों का विकास होता गया, सहशिक्षा बढ़ती गई। परिणामतः आज का सभ्य नागरिक प्राचीन रूढ़िगत विचारों से ग्रस्त होते हुए भी अपने बच्चों को सहशिक्षा दिलाने में कोई आपत्ति नहीं करता, उसे जीवन के विकास में बाधक नहीं मानता।
सहशिक्षा के अनेक लाभ हैं। सहशिक्षा से लड़कियों में नारी स्वभाव सुलभ लज्जा, झिझक, पर-पुरुष से भय, कोमलता, अबलापन, हीनभावना किसी सीमा तक दूर हो जाती है। दूसरी ओर, युवक नारी के गुणों को अपना लेता है। उसकी निर्लज्जता, अक्खड़पन, अनर्गलता पर अंकुश लग जाता है और उसमें मृदुभाषिता, संयमित संभाषण, शिष्ट आचरण तथा नारी स्वभाव के गुण विकसित होते हैं। युवक-युवतियों में भावों का यह आदान- प्रदानं भावी जीवन में सफलता के कारण बनेंगे।
सहशिक्षा से शिक्षा-व्यवस्था में खर्च की बहुत बचत होती है। अलग- अलग कक्ष, अध्यापक तथा प्रबंध-व्यवस्था में जो दुहरा खर्च होता है, वह नहीं होता। दूसरे, इतिहास, भूगोल, गणित, कॉमर्स, चार्टर्ड एकाउंटेंसी, कॉस्ट एकाउंटेंसी, बिजनेस मैनेजमेंट, आयुर्विज्ञान, एल एल.बी. आदि कक्षाओं में युवतियों की संख्या उँगली पर गिनने योग्य होती है। उनके लिए शिक्षा की अलग व्यवस्था करना शिक्षा को अत्यधिक महँगा बनाना है। तीसरे, कम विद्यार्थियों के लिए पृथक व्यवस्था कर ही नहीं पाएँगे। चौथे, इन विषयों की अध्यापिकाएँ भारत में नगण्य सी हैं।
प्राथमिक शिक्षा में अध्यापिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। परिवार से निकलकर विद्यालय के नए वातावरण में प्रवेश करने वाले शिशु के लिए अध्यापिका माता और शिक्षक का कर्तव्य निभाती है। यदि शिशु का विभाजन बालक या बालिका में करके पृथक्-पृथक् शिक्षा का आयोजन किया गया तो पुरुषों के अध्यापन में न वह सहृदयता होगी, न उनमें बालक की प्रवृत्ति परिवर्तन के लिए सिद्धता होगी जो एक अध्यापिका में होती है।
सहशिक्षा छात्रों में प्रतिस्पर्धा लाती है। यहाँ छात्र-छात्राओं से और छात्राएँ छात्रों से आगे बढ़ने की चेष्टा करते हैं। यह स्वस्थ प्रतिस्पर्धा उनके अध्ययन, चिंतन, मनन को बलवती बनाती है।
सृष्टि गुण- दीपमयी है। फूल के साथ काँटे भी होते हैं। कल्याणकारी शिवत्व में संहार की नैसर्गिक शक्ति भी हैं। सहशिक्षा में गुण हैं, तो वह दुर्गुणों की जननी भी हैं।
आज के विषाक्त वातावरण में सहशिक्षा का सहपाठी भाई बहन की भावना के कम और प्रेमी-प्रेमिका की भावना से अधिक ग्रस्त होता है। सहपाठी का लावण्य उसे आकर्षित करता है, आकर्षण स्पर्श के लिए प्रेरित करता है। स्पर्श आलिंगन – चुंबन की ओर अग्रसर होता है और अंतत: छात्र कामवासना का शिकार होता है। न अध्ययन, न जीवन – विकास, उलटा चरित्र- पतन, विनाश की ओर गति।
सहशिक्षा में अध्ययन में चित्त अशांत रहता है। युवतियाँ युवकों से दबी-दबी रहती हैं। घुटन के वातावरण में जीती हैं। अध्ययनशील और लज्जालु छात्र-छात्राओं की छाया से भी कतराते हैं। ऐसी स्थिति में मन की एकाग्रचितता कहाँ? पढ़ाई की मन:स्थिति कहाँ? प्राध्यापक प्रवचन की ग्राह्यता कहाँ?
पाठ्यक्रम तथा पाठ्य-पुस्तकों में कभी-कभी कुछ ऐसे प्रसंग आ जाते हैं, जो नैतिकता के मापदंडों के विपरीत होते हैं। सहशिक्षा में उन प्रसंगों को स्पष्ट कर पाना बहुत कठिन होता है। ऐसी परिस्थिति में प्रायः शिक्षक उन प्रसंगों की उपेक्षा कर जाता है या अस्पष्ट रहते देता है। इस प्रकार सहशिक्षा ज्ञानवर्धन में बाधक भी है।
आज का भारतीय, चाहे वह किसी भी आर्थिक स्तर पर जीवनयापन कर रहा हो, पाश्चात्य संस्कृति को लपकने के लिए लालायित है। भारतीय संस्कृति में उसे पिछड़ेपन की बू आने लगी है।
दूरदर्शन की कृपा, सरकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों के प्रोत्साहन देने तथा पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के भारतीय जीवन को प्रभावित करने के कारण सहशिक्षा की हिचक अब समाप्त हो रही है। युवक-युवती मिलन, घुट-घुट कर बातें करना, हँसी-मजाक करना, एक-दूसरे के घर बिना झिझक आना-जाना, सैर-सपाटे, शिक्षण संस्थाओं द्वारा आयोजित ‘टूर’ पर जाना सामान्य सी बात होती जा रही है।
पाश्चात्य संस्कृति जहाँ जीवन में चमक-दमक लाएगी, वहाँ आलिंगन-चुंबन मूल्य हीन हो जाएँगे, विलास और वासना के मानदंड स्वतः बदल जाएँगे, तब सहशिक्षा किसी भी स्तर पर भारतीयता के विरुद्ध नहीं मानी जाएगी।