आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है ‘ज्ञान राशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।’ इसी प्रकार ऐसा मानव-समुदाय समाज कहलाता है, जो समान परंपराओं और विचारों का पालन करता हो। साहित्य के शब्दार्थ में सहित होने का भाव निहित है। साहित्य का उद्देश्य समाज का हित चिंतन है। साहित्यकार सामाजिक प्राणी होता है। समाज द्वारा उसे विभिन्न अनुभव प्राप्त होते हैं जिन्हें वह साहित्य में अभिव्यक्ति देता है। एक भाषा में लिखित समस्त ज्ञान उस भाषा का साहित्य है, इस प्रकार इतिहास, विज्ञान, भूगोल, समाजशास्त्र आदि सभी की पुस्तकें साहित्य के अंतर्गत हैं। किंतु सीमित अर्थ में साहित्य काव्य, उपन्यास, नाटक आदि का पर्याय है। यदि किसी समाज के रीति-रिवाज, रहन-सहन, विचार – चिंतन का परिचय प्राप्त करना चाहें तो उस समाज की भाषा के साहित्य का अध्ययन करना होगा।
साहित्य और समाज दोनों गहन रूप से संबंधित हैं, दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं। समाज का पूरा वर्णन साहित्य में ही होता है इसी कारण साहित्य मानव-समाज का मस्तिष्क कहलाता है। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। कोई समाज कितना उन्नत है इसकी कसौटी उसका साहित्य है। समाज के भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों का समन्वित रूप साहित्य है। वह अतीत और वर्तमान का चित्रण ही नहीं करता वरन् भविष्य के लिए प्रेरणा भी देता है। यथार्थ और आदर्श का मिश्रित रूप साहित्य में विद्यमान होता है। समाज की गतिविधियाँ साहित्य को दिशा-निर्देश करती हैं साथ ही साहित्य भी समाज को प्रभावित करता है। इस प्रकार साहित्य और समाज एक दूसरे से भिन्न रहना चाहें तो संभव नहीं है।
साहित्य समाज का प्रतिबिंब है, उसी का दर्पण है। प्रत्येक युग की घटनाएँ उसी में प्रतिबिंबित होती हैं। हिंदी साहित्य से उदाहरण लें तो कह सकते हैं कि भक्तिकाल के प्रसिद्ध कवि तुलसी, सूर, जायसी आदि ने अपने समाज का वर्णन किया। रीतिकाल के समय मुस्लिम शासन था, बिहारी, मतिराम, घनानंद आदि के साहित्य में हिंदू-मुस्लिम समाज की मिली जुली संस्कृति का चित्रण है। तत्पश्चात ब्रिटिश शासन काल में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रसाद, प्रेमचंद, निराला, माखनलाल चतुर्वेदी आदि ने राष्ट्रप्रेम का उल्लेख कर जनता में शासन के प्रति विरोध के स्वर को मुखरित किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद का साहित्य बदलते हुए समाज को ही चित्रित कर रहा है। इस प्रकार हिंदी साहित्य का विशाल प्रासाद समाज की पृष्ठभूमि पर ही प्रतिष्ठित हुआ है। जब-जब समाज में विकृतियाँ आई हैं, परिस्थितियाँ परिवर्तित हुई है, साहित्य ने उसका प्रतिनिधित्व किया है।
समाज से अभिन्न होने के कारण साहित्यकार का दायित्व बहुत बड़ा है। वह द्रष्टा भी है और स्रष्टा भी। वह अपने चारों ओर के वातावरण से प्रभावित होता है तथा समाज को दिशा-निर्देश भी देता है। यथार्थवादी चित्रण के साथ उसका दृष्टिकोण सुधारात्मक होता है। यदि समाज में फैले भ्रष्टाचार, अत्याचार अथवा कुप्रथा का चित्रण अपने साहित्य में वह नहीं करता तो अपने दायित्व से पीछे हट जाता है। सच पूछा जाए तो समाज की उन्नति-अवनति का जिम्मेदार साहित्य भी है। साहित्यकार मानवता का मार्ग प्रशस्त करता है तथा ऐसे समाज की रचना की प्रेरणा देता है, जहाँ मानव सुख और शांतिपूर्वक रह सके। समाज चाहे या न चाहे साहित्यकार के विचारों से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।
अस्तु, मानव समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई है तो साहित्य समाज का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करने का सशक्त माध्यम है। साहित्यकार दोनों के मध्य समन्वय का कार्य करता है। इस कारण पाठक-वर्ग की यह समझ है कि ऐसे साहित्यकार को प्रोत्साहित करे जो समाज कल्याण के लिए अपना जीवन समर्पित कर दे। सदैव ऐसे साहित्य का अध्ययन करे जो जीवन के सत्य को उद्घाटित करे, साथ ही शिवत्व की प्राप्ति में सहायक हो। ऐसी ही परिस्थिति में व्यक्ति और समाज दोनों का विकास संभव है।