“मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि जब तक हम सहकारी खेती का ढंग नहीं अपनाएँगे, तब तक हमें खेती का पूरा लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। क्या यह बात विवेकपूर्ण नहीं प्रतीत होती कि गाँव की जमीन को, जिस किसी भी तरह सौ टुकड़ों में बाँटकर खेती करने की अपेक्षा अधिक अच्छा यह है कि गाँव के सौ परिवार मिलकर सामूहिक रूप से खेती करें और उससे प्राप्त होने वाली आय को आपस में बाँट लें?”
-महात्मा गांधी
आर्थिक क्षेत्र में लोकतंत्र
यदि राजनीति में लोकतंत्र का रूप पार्लमेण्टरी शासन पद्धति है तो आर्थिक क्षेत्र में सहकारिता लोकतंत्र का रूप है। सहकारी पद्धति में सहकारी समिति के प्रत्येक सदस्य को मतदान का समान अधिकार होता है। इस संस्था में कोई व्यक्ति, कितना भी स्वार्थ रहने पर एक से अधिक मत नहीं दे सकता। समिति से जो भी लाभ उठाना चाहे, उसका सदस्य बन सकता है। इसमें न तो पूँजीवाद की भाँति पूँजी पर दो-चार आदमियों का निरंकुश प्रभुत्व होता है और न समाजवाद की भाँति समस्त सत्ता कुछ शासकों के हाथों में केंद्रित रखकर सामान्य जन का व्यक्तित्व कुचल दिया जाता है। शोषणयुक्त पूँजीवाद और निरंकुश सत्ताधारी समाजवाद का समन्वय सहकारी पद्धति में होता है दोनों के गुणों का समावेश- अपनी चीज से प्रेम व स्वार्थ साधन भी होता है और विषमता की खाई भी गहरी नहीं होने पाती। सहकारी समिति स्वेच्छापूर्वक स्थापित की हुई समान ध्येय की पूर्ति के लिए सार्वजनिक आर्थिक हित के लिए कुछ व्यक्तियों की वह संस्था होती है, जिसमे भौतिक विकास की अपेक्षा नैतिक विकास पर अधिक बल दिया जाता है। भारत में सहयोग से काम करने की प्रथा बहुत पुरानी है। पंचायतें सहकारी पद्धति के सहयोग के सिद्धांत पर ही चलती थीं। एक दूसरे को प्रत्येक प्रकार का सहयोग ही पंचायत की मूल भावना है। एक दूसरे के कुएँ खोदने में सभी ग्रामवासियों का सहयोग भारत की पुरातन प्रथा है।
सहकारी आन्दोलन का जन्म व विकास
आधुनिक सहकारी आंदोलन की नींव भारत में 1904 में सहकारी समिति कानून पास होने पर रखी गई। आठ वर्ष बाद एक नया कानून बनाकर पहले कानून की कमियाँ पूरी की गई और तब से सहकारी समितियाँ अधिक संख्या में बनने लगीं। 1614 तक 15,000 समितियों की स्थापना देश में हो चुकी थी। इसके बाद भी समय-समय पर सहकारी समितियों में सुधार हुए, सहकारी बैंक भी प्रत्येक प्रांत में कायम हुए। 1916 में सहकारिता प्रांतीयय विषय बन गया और सभी प्रांतों में अपनी आवश्यकता से कानून बनाए जाने लगे। 1935 में रिजर्व बैंक की स्थापना के बाद एक पृथक् कृषि साख विभाग इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए खोला गया। 1636 में 1 लाख से ऊपर सहकारी समितियाँ बन चुकी थीं, जिनकी पूँजी 1063 करोड़ रुपए तक बढ़ गई थी। युद्ध काल में भी इनका विकास किया गया। युद्ध के बाद देश के स्वतंत्र होने पर तो सहकारी समितियों के विकास पर विशेष बल दिया जाने लगा है। प्रथम पंचवर्षीय योजना में भी सहकारी आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए जोर दिया गया।
दो प्रकार की समितियाँ
सहकारी समितियाँ दो प्रकार की होती हैं- साख समितियाँ और गैर साख समितियाँ। साख समितियाँ कम सूद पर सदस्यों को ऋण देती हैं और दूसरे प्रकार की समितियाँ कृषि के लिए साधन जुटाती हैं। खाद, बीज, हल, बैल आदि का क्रय-विक्रय, कुआँ खुदाई, सहकारी कृषि आदि इनका काम होता है। ये समितियाँ एक साथ गन्ना खरीद लेती हैं और फिर चीनी मिल मालिक से सौदा कर लेती हैं। इसी तरह दूसरी फसलों के लिए भी किसान सहकारी समितियाँ बना लेते हैं। ग्रामों में अब बहुधन्धी सहकारी समितियाँ लोकप्रिय हो रही हैं, जो दूध, अण्डे, मुर्गियाँ, घास, चारे आदि का भी काम करती हैं। इन सहकारी समितियों को बैंकों से आर्थिक सहायता मिलती है। अब तो सहकारी बैंकों का प्रांतीयय सहकारी बैंकों की मार्फत स्टेट बैंक से संबंध हो चुका है। पिछले दिनों इम्पीरियल बैंक का राष्ट्रीयकरण करके गाँवों की सहकारी समितियों को रुपया दिलाने की अधिक सुविधाएँ दी गई हैं। इस बैंक का नया नाम ‘स्टेट बैंक’ है।
कृषि सहकारी समितियों की आवश्यकता को सरकार दिनोंदिन अधिकाधिक अनुभव कर रही है। हमारे देश में अधिकांश किसान छोटे या मध्यम दर्जे के हैं। उनकी जोत इतनी छोटी हैं कि वे प्राविधिक तथा वैज्ञानिक सुधारों से बहुत कम लाभ उठा सकते हैं। इन किसानों की दशा सुधारने का एक ही तरीका है कि सहकारी कृषि समितियाँ बनाई जाएँ। कुछ कृषि समितियाँ पहली पंचवर्षीय योजना में बनाई भी गई थीं, किंतु इस दिशा में अधिक काम नहीं हो सका। चीन में ऐसी अनेक कृषि समितियाँ बनाई गई हैं। भारतीय सहकारी कृषि का प्रयोग राष्ट्रीय विस्तार सेवा खंडों से किया जा सकता है। नई तोड़ी हुई जमीन तथा खेती की अन्य भूमि में भी सहकारी खेती का प्रयोग किया जा सकता है। भूदान आंदोलन से प्राप्त हुई जमीन में भी प्रयोग किए जा सकते हैं।
दूसरी योजना व सहकारी समितियाँ
सहकारी आंदोलन के महत्त्व को देखते हुए ही दूसरी पंचवर्षीय योजना में सहकार की योजनाओं के लिए 47 करोड़ रुपए रखा गया है। इस योजना में सहकारी समितियों को उधार देने के लिए रिजर्व बैंक 25 करोड़ रुपए खर्च करेगा। इसके अलावा छोटे और ग्रामोद्योगों के लिए 200 करोड़ रुपए की जो राशि नियत है उसमें से काफी सहकारी समितियों के हिस्से आएगी। कारखानों के मजदूरों और कम आय वालों के लिए मकान बनाने वाली सहकारी समितियों को भी सरकारी सहायता मिलेगी।
खेती के सब कामों यानी कर्ज देने, माल बेचने, माल तैयार करने और माल भरने के लिए मिली-जुली सहकारी समितियाँ बनाने को योजना तैयार की गई है। कर्ज देने के लिए 10 हजार बड़ी-बड़ी सहकारी समितियाँ कायम की जाएगी। दूसरी योजना में 1,800 माल बेचने वाली महकारी समितियाँ बनाई जाएँगी।
उद्योग भी सहकारी पद्धति से
इन पंचवर्षीय योजनाओं के सिलसिले में अब यह भी अनुभव किया जा रहा है कि इनका क्षेत्र केवल कृषि सहकारी समितियों तक ही सीमित न रखकर उद्योग के क्षेत्र में भी इन्हें अधिकाधिक प्रचलित किया जाए। ग्रामोद्योग के लिए तो जहाँ लोग अधिक पूँजी लगाने वाले नहीं मिलते, सहकारी समितियाँ बहुत लाभकर होंगी। हाथकरघ, नारियल, शहद, मुर्गी पालन, ईंटें, खिलौने, चटाइयाँ आदि अनेक धंधे सहकारी समितियों द्वारा चलाए जा सकते हैं। इन समितियों में छोटे-बड़े कारीगर मिलकर सब चीजें खरीदते या बेचते हैं। नगरों में भी सहकारी समितियों का प्रचार बढ़ता जा रहा है। एक साथ जमीन लेकर सहकारी समिति के सदस्य मकान बनाते हैं। बड़े-बड़े नगर सहकारी समितियों द्वारा बनाए जाते हैं। पिछले दिनों तो सूत कातने की दो-एक मिलें भी सहकारी उद्योग के आधार पर चलाई गई हैं। सरकार ने सहकारी पद्धति पर चीनी मिल खोलने की अनुमति व सुविधाएँ दी हैं।
कार्य कुशलता
किसी सहकारी समिति की सफलता के लिए कार्य कुशलता अत्यंत आवश्यक है। यदि सुचारु प्रबंध नहीं किया गया तो समिति के सदस्य निराश होकर अपना सहयोग देना छोड़ देंगे। यह एक आम शिकायत है कि सहकारी समितियों के काम करने के ढंग में बड़ी देर लगती है तथा बहुत विलंब लग जाता है। ऋण समय पर नहीं दिया जाता और पर्याप्त मात्रा में नहीं दिया जाता। सहकारी आंदोलन व सहकारी समितियों की सफलता के लिए जरूरी है कि इन समितियों के सदस्य यह अनुभव करें कि यह उनका अपना काम है। सब का सम्मिलित सहयोग कृषि व उद्योग दोनों क्षेत्रों में बहुत लाभकारी सिद्ध हो सकता है।
सर्वोत्तम उपाय
आज देश ने समाजवादी पद्धति के समाज का आदर्श अपनाया हुआ है। इसके लिए भी यदि भारत के पास सर्वोत्तम उपाय है, तो यह सहकारी समितियों का विकास है। इससे लोकतांत्रिक आधार पर आर्थिक विकास करने का अवसर मिलता है। आखिर, समाज के समाजवादी ढाँचे का अर्थ है – कृषि तथा उद्योग दोनों क्षेत्रों में विकेंद्रीकृत बहुत सी संस्थानों का निर्माण। ये छोटी- छोटी संस्थाएँ एकत्र होकर बड़े आकार व संगठन के पूरे लाभ उठा सकती हैं रूस का सा निरंकुश अधिनायकवाद इसमें नहीं है, व्यक्ति का स्वातन्त्र्य भी सुरक्षित रहता है और किसी एक पूँजीपति को शोषण का अवसर भी नहीं मिलता।