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समाज सेवा

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संकेत बिंदु – (1) मनुष्य के उदात्त गुणों को जगाना (2) समाज सेवा के विविध रूप (3) महापुरुषों द्वारा समाज सेवा (4) ईश्वर भक्ति से उच्च एवं श्रेष्ठतर (5) समाज सेवा का व्यापक क्षेत्र।

धन-संपत्ति, शारीरिक सुख और मान प्रतिष्ठा आदि को न चाहते हुए, ममता, आसक्ति और अहंकार से रहित होकर मन, वाणी, शरीर अथवा धन के द्वारा जनता-जनार्दन के हित में रत होकर उसे सुख पहुँचाना, उसकी हित बुद्धि और उन्नति की चेष्टा समाज- सेवा है। श्री संपूर्णानंद जी के शब्दों में ‘संघर्ष की भावना को प्रश्रय न देकर मनुष्य के उदात्त गुणों को जगाना ही समाज की सेवा है।’

‘समाज’ शब्द बहुत व्यापक है। कोश के अनुसार जन समुदाय को समाज की संज्ञा से पहचाना जाता है। एक प्रदेश-भूखंड में रहने वाले लोग, जिनमें सांस्कृतिक एकता हो, समाज कहलाता है। श्री पु. ग. सहस्रबुद्धे की मानना है कि ‘जब पूर्व परंपराओं का एक अभिमान होता है, वर्तमान सुख-दुख तथा भविष्यकाल की आशा-आकांक्षा और ध्येय की दिशा एक होती है, तब वह लोक-समूह ‘समाज’ कहलाने लगता है।’

विशाल मानव समाज दुख-सुख का संगम है। कष्ट पीड़ा तथा वैभव का आगार है। इसमें हा-हाकार की चीत्कार है, तो शांतिपूर्ण जीवन की समरसता भी है, भूख से बिलबिलाता शैशव और यौवन है तो ऐश्वर्यमय जीवन का भोग भी है। शारीरिक मानसिक-आर्थिक पीड़ा है, तो सुख के संपूर्ण साधन भी हैं। प्रसाद जी इस विषमता के सत्य को प्रकट करते हुए कहते हैं-

विषमता की पीड़ा से व्यक्त / हो रहा स्पंदित विश्व महान्।

यही दुख विकास का सत्य / यही भूमा का मधुमय दान॥

 समाज के दुख-दर्द, कष्ट-वेदना, अभाव-अशिक्षा, अत्याचार को दूर करना समाज – सेवा के विविध रूप हैं। सृष्टि के आदि से आज तक सहस्रों लोगों ने समाज सेवा में अपने जीवन का क्षण-क्षण समर्पित कर दिया। वे बिना लोभ-लालच, आशा-आकांक्षा, इच्छा- लालसा के समाज- कार्य में लीन हो गए, तद्रूप हो गए। शंकराचार्य ने बत्तीस वर्ष की अल्पायु में समाज हित के लिए भारत के चार कोनों में चार मठ स्थापित किए। भगवान बुद्ध ने समाज को अहिंसा का पाठ पढ़ाया।

इस युग के महात्मा श्री मोहनदास कर्मचंद गाँधी ने अछूतोद्धार का पुण्य व्रत लिया, तो उनके ही शिष्य संत विनोबा भावे ने भूदान, ग्रामदान, श्रमदान की ज्योति जलाई। मदर टेरेसा के जीवन का कण-कण असहाय, पीड़ित समाज की सेवा में अर्पित हुआ। महात्मा हंसराज ने ज्ञान के स्रोत डी.ए.वी. शिक्षण संस्थाओं की स्थापना की। हनुमानप्रसाद जी पोद्दार ने ‘गीता-प्रेम’ के माध्यम से आध्यात्मिकता का अनंत कोष समाज को प्रदान किया। बिड़ला-बंधुओं ने दिव्य-देवालय स्थापित कर जन-जन में श्रद्धा-स्रोत प्रवाहित किए। अनेक विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना कर अज्ञानाधकार को मिटाने में योगदान दिया। उनके द्वारा नगर-नगर, ग्राम-ग्राम, स्थान-स्थान पर स्थापित धर्मशालाएँ, सभागार, आदि समाज कल्याण के देवालय ही हैं

आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लेकर समाज सेवा के प्रति समर्पित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आर्य- समाज, सनातन धर्म, जैन, बुद्ध, ईसाई धर्म, रामकृष्ण परमहंस आश्रम के लाखों प्रचारक अहर्निश निःस्वार्थ भाव से समाज सेवा रूपी यज्ञ में अपनी आहुति डाल रहे हैं।

        समाज-सेवा कठिन व्रत है, कठोर तपस्या है, कष्टप्रद कार्य है, कंटकाकीर्ण मार्ग है। महर्षि व्यास का कथन है- ‘सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः।’ तुलसी ने भी कहा है, ‘सेवाधर्म कठिन जग जाना।’ अपमान, ग्लानि, कटूक्ति, आरोप तथा लांछन इसके प्रतिफल हैं। महर्षि दयानंद ने जीवन में कितने अपमान सहे, कटूक्तियाँ सहीं, विष तक का पान किया। महान संघटक डॉ. हेडगेवार और श्री गुरुजी के शरीर को निरंतर प्रवास, भाषण, बैठकों और चिंतन के कारण व्याधियों ने दबोच लिया था। स्वामी विवेकानंद की अमरीका-यात्रा अर्थाभाव की असह्य पीड़ा से भरी थी।

समाज-सेवा का स्थान ईश्वर भक्ति से उच्च एवं श्रेष्ठतर है। ईश्वर भक्ति ‘स्व’ की उन्नति (आत्मिक उन्नति) एवं मोक्ष प्राप्ति का साधन है, जबकि समाज-सेवा जनता की जो कि जनार्दन का ही रूप है, आराधना है। जीवन की सफलता है। वेदव्यास जी ने कहा, ‘जीवितं सफलं तस्य यः परार्थोद्यतः सदा’ अर्थात् उसी का जीवन सफल माना जाता है, जो सदा परोपकार में प्रवृत्त रहता है। तेलुगु के भक्त कवि रामदास का तो मानना है, ‘मानव की सेवा करो तो भगवान की अर्चना करने की आवश्यकता नहीं है।’ यही बात साईं बाबा कहते हैं ‘सेवा करने वाला हाथ स्तुति करने वाले ओठों की अपेक्षा अधिक पवित्र है।’ ‘हरि अनंत हरि कथा अनन्ता’ के समान समाज-सेवा का क्षेत्र भी अनंत है, व्यापक है। भिक्षुक को भीख देना, भूखे को भोजन देना, नंगे को वस्त्र देना, लूले लंगड़े की सहायता करना, अंधे को राह दिखाना, समाज की सेवा के लघुतम रूप हैं। इसी प्रकार धर्मशाला बनवाना, निःशुल्क अस्पताल खोलना, अनाथालय, वृद्धाश्रम चलाना, विद्यालयों की स्थापना करवाना, प्याऊ लगाना आदि भी समाज सेवा के ही कार्य हैं।

‘समाज-सेवा छोटी हो या बड़ी, इसकी कीमत नहीं है। किस भावना से, किस दृष्टि से वह की जा रही है, उसकी कीमत है।’ – विनोबा ‘ अगर समाज को विश्वास हो जाए कि आप उसके सच्चे सेवक हैं, आप उसका उद्धार करना चाहते हैं, आप नि:स्वार्थी हैं, तो वह आपके पीछे चलने को तैयार हो जाता है।’ – प्रेमचंद पर आज तो समाज सेवा ख्याति लाभ करने, धन बटोरने और स्वार्थ सिद्धि का माध्यम बन गया है।

इतने में ही स्वार्थ पूर्ति होती तो कोई बात नहीं, आज का समाज सेवी तो समाज द्वारा दिए दान में से भी अपना भाग रखकर समाज सेवी कहलवाना चाहता है।

        रोना है तो इसका कोई नहीं किसी का।

        दुनिया है और मतलब, मतलब है और अपना।

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