संसार में दो विचारधाराएँ अर्थ चक्र को संचालित कर रही हैं—एक लोक- तंत्री देशों की निजी उद्योग-पद्धति है, जिसे पूँजीवाद कहते हैं। दूसरी विचार- धारा समाजवाद या साम्यवाद की है। ऐसा प्रतीत होता है कि अन्य देशों की भाँति भारत भी आज दो भागों में बँट गया है। साम्यवाद अपना प्रचार तीव्र गति से भारत में बढ़ा रहा है। इसका मुख्य आधार हिंसात्मक उपायों से जन-सामान्य के लिए सुख की प्राप्ति है।
साम्यवाद से अंतर
महात्मा गांधी ने भारत को एक नई अर्थ नीति का संदेश दिया है। इसका आधार अहिंसा और प्रेम है। भौतिकवाद और अध्यात्मवाद का समन्वय इसके मूल में है। यह अर्थ – नीति भारतीय दृष्टिकोण और भारतीय परंपराओं के अनुकूल है। साम्यवाद की सब अच्छाइयाँ इसके मूल में हैं, परंतु उनकी बुराइयों को छोड़ दिया गया है। साम्यवाद की मूल भावना जनहित की है। महात्मा गांधी की नई अर्थ नीति का नाम सर्वोदयवाद है अर्थात् सबका उदय, विनाश या मरण किसी का भी नहीं। साम्यवाद से सर्वोदय का दूसरा प्रधान अंतर यह है कि साम्यवाद भौतिकवादी यूरोप की भूमि पर उत्पन्न हुआ है, इसलिए उसकी दृष्टि भौतिक है। इहलोक तक ही उसकी दृष्टि जाती है। संसार के सभी भौतिक सुखों को साम्यवाद जनसामान्य तक पहुँचाना चाहता है। गांधीवाद भी इसे स्वीकार करता है, परंतु इसके साथ भारतीय परंपरा व भारतीय दृष्टिकोण के कारण वह नैतिकता पर अधिक बल देता है। त्याग व सादगी अपनाने पर वह ज्यादा जोर देता है। गांधी सर्वोदयवाद के प्रतीक थे और स्टालिन साम्यवाद के दोनों की निम्नलिखित तुलना से दोनों विचार- धाराओं का अंतर बहुत स्पष्ट हो जाएगा-
गांधी और स्टालिन
समाज सुख का एक उद्देश्य होते हुए स्टालिन और गांधी के जीवन और विचारधारा में अंतर है। स्टालिन मशीनरीवाद, बड़े-बड़े नगरों व निरंकुश एकाधिकार का समर्थक था। गांधी ग्रामोद्योगों, ग्रामों और जन पंचायतों का समर्थक था। स्टालिन मजदूरों और किसानों को भी मोटरें देना चाहता था, गांधी अमीरों को भी त्यागमय जीवन का उपदेश देता था। स्टालिन संघर्ष और पशुबल का पुजारी था, गांधी शांति, प्रेम तथा आत्मबल का स्टालिन शरीर पर शासन करता था, मतभेद को सहन नहीं करता था किंतु गांधी हृदय में प्रवेश करना चाहता था और सब में अच्छाई देखने को उद्यत था। स्टालिन की परलोक में श्रद्धा नहीं थी, गांधी ईश्वर पर अगाध विश्वास और परलोक का भी सुख चाहता था। स्टालिन और गांधी साम्यवादी दृष्टि और पूर्वी सभ्यता के उज्ज्वल उदाहरण हैं।
जमींदारी उन्मूलन के दो तरीके
एक और उदाहरण से दोनों विचारधाराओं का अंतर स्पष्ट हो जाएगा, रूस व भारत दोनों ने जमींदारी प्रथा समाप्त करनी थी। रूस ने जमींदारों से उन्हें बिना एक पैसा दिए, जमीन जबर्दस्ती छीन ली और अपना अधिकार स्थापित कर लिया, जिसने जरा भी चूँ-चरा की, उसे गोली का निशाना बना दिया गया। भारत में भी तैलंगाना में कम्यूनिस्टों ने हिंसात्मक उपायों द्वारा जमीन छीनने का प्रयत्न किया। दूसरी ओर आचार्य विनोबा ने जो आज सर्वोदय के नेता हैं, भूदान यज्ञ का प्रारंभ किया। लोगों के हृदय परिवर्तन के द्वारा वे किसानों को भूमि दिलाना चाहते हैं। साम्यवादियों की भाँति वे भी जमींदारों की भूमि का मूल्य नहीं चुकाते, साम्यवादी शरीर पर अधिकार करता है, विनोबा उसके हृदय पर, और बल या कानून का आश्रय नहीं लेते। भारत सरकार ने बीच का शस्त्र अपनाया। उसने कानून के द्वारा जमीन जरूर ली, परंतु उसका मूल्य भी चुका दिया।
कानून नहीं, जनता
सर्वोदयवाद भी दण्डात्मक राज्य संस्था की समाप्ति को चरम लक्ष्य मानता है, किंतु इसके लिए पहले वह जनता को तैयार करना चाहता है। कानून में बल- प्रयोग की भावना अंतर्हित है, इसलिए वह कानून की उपेक्षा करके भी जनता को शांति के लिए प्रेरित करता है। कानून द्वारा सच्ची शांति नहीं हो सकती। सच्ची शांति जीवन के अन्तः में शांति है। जनता के जीवन के मूल्यों में परिवर्तन कर दो, कानून पर उसकी प्रतिच्छाया अवश्य पड़ेगी। कानून न हृदय में परिवर्तन ला सकता है, न दिमाग में। यही कारण है कि जहाँ साम्यवाद सफल भी हुआ है, वहाँ उसकी परिणति तानाशाही व राज्य-पूँजीवाद में हुई है और यह वस्तुतः साम्यवाद का प्रतिवाद है। यही कारण है कि गांधीवाद सत्ता के अधिकार पर केंद्रीभूत नहीं है और न वह राज्य सत्ता पर निर्भर करता है। वह तो जनता को जीवन में क्रांति के लिए प्रेरित करता है। एक वर्ग के विरुद्ध दूसरे वर्ग का विद्वेष साम्यवादी विचारधारा के मूल में है, किंतु गांधीवाद वर्गो की चिंता न कर बढ़ता है। राज्य पर जनता को कम से कम निर्भर बनाकर गांधीवाद राज्य की आवश्यकता को कम करना चाहता है।
चर्खा व ग्रामोद्योग
गांधी जी यह अनुभव करते थे कि जब तक बहुमात्रा – उत्पादन और उसके लिए बड़े-बड़े लोहमय दानव (अर्थात् भारी मशीनरी) मौजूद रहेगी, तब तक मानव के व्यक्तित्व का विकास संभव नहीं है। मार्क्स ने वैयक्तिक स्वामित्व हटाकर सामाजिक स्वामित्व का विधान अवश्य किया, किंतु उत्पादन की यंत्रमय प्रणाली को नहीं बदला। उनकी तीक्ष्ण दृष्टि बड़े पैमाने के उद्योगों से होने वाली सामाजिक एवं राजनैतिक बुराइयों की ओर नहीं जा सकी। परिणाम यह हुआ कि केंद्रित उत्पादन प्रणाली पर केंद्रित राजनीतिक शक्ति का भवन खड़ा हुआ। आज की बड़ी मशीनरी, जिसकी ओर आज भारत भी द्रुत गति से भाग रहा है, विशाल एवं भयंकर दैत्य का रूप धारण करके मानव के व्यक्तित्व को खंड-खंड कर रही है। मानव मशीन का महज पुर्जा बनकर रह गया है। इसका व्यक्तित्व दैत्याकार मशीनों की विषाक्त छाया में विकसित न होकर निरंतर दबता जा रहा है। बड़े कारखानों में बड़े-बड़े विशेषज्ञों और इंजीनियरों की जरूरत है और सामान्य जन विशेषज्ञ बन नहीं सकते। नतीजा यह हुआ कि मजदूर अब पूँजीपति वर्ग का दास न होकर विशेषज्ञ तथा प्रबंधक का दास हो गया। नागनाथ की जगह साँपनाथ आए। यही कारण है कि गांधी जी ने शासन व अर्थ दोनों क्षेत्रों में विकेंद्रीकरण का सिद्धांत हमारे सामने प्रस्तुत किया। मार्क्स ने कहा था कि पूँजीवाद में उत्पादक का उसके औजारों से संबंध टूट गया है, वह स्वयं उसका स्वामी नहीं। गांधी जी ने कहा कि उत्पादक अपने यंत्रों का स्वामी उसी समय हो सकता है, जब उसके यंत्र छोटे- छोटे हों। बड़े यंत्रों में वह स्वयं खो जाता है, अतएव उन्होंने बड़े उद्योग-धंधों की जगह विकेंद्रित छोटे-छोटे ग्रामीण उद्योग-धंधों को प्रधानता दी, जिससे मनुष्य को अपने हस्त कौशल के लिए अधिक अवसर मिल सके। इसी विकेंद्रित ग्रामोद्योग प्रधान अर्थ – प्रणाली का प्रतीक ‘चर्खा’ है।
ग्रामोद्योगों से लाभ
भौतिक दृष्टि से भी ग्रामोद्योग के विकास के अनेक अच्छे परिणाम निकल सकते हैं। व्यक्ति के स्वतंत्र विकास की इसमें पूरी गुंजाइश है, परंतु पूँजीवाद द्वारा शोषण इसमें संभव नहीं है। जब बड़ी मात्रा में उत्पत्ति ही नहीं होगी, तब अपना माल बेचने के लिए बड़े-बड़े साम्राज्य स्थापन की इच्छा भी नहीं रहेगी और राजनैतिक व आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने के लिए किए जाने वाले युद्ध भी अनावश्यक हो जाएँगे। मशीनरी देश में बेकारी को फैलाती है। एक मशीन 10-20 या 100 आदमियों की रोजी छीन लेती है। आज भारत औद्योगिक दृष्टि से बहुत बढ़ रहा है, पर बेकारी की समस्या उससे भी तीव्र गति से बढ़ रही है। देश में करोड़ों मनुष्यों को काम नहीं मिल रहा, या बहुत कम मिल रहा है और दूसरी ओर एक आदमी मशीनरी के द्वारा बहुत से आदमियों की रोजी छीन रहा है। ग्रामोद्योगों से बेकारी-निवारण के साथ- साथ जनता का असंतोष भी बहुत कम हो जाएगा और वह शांति से अपना जीवन व्यतीत कर सकेगी। आज देश में जो पंचवर्षीय योजनाएँ चालू हो रही हैं, उनमें ग्रामोद्योगों पर अधिक बल देने का यही कारण है।
भारत के नेता साम्यवाद और सर्वोदयवाद, बड़े उद्योग और ग्राम-उद्योग, केंद्रीकरण और विकेंद्रीकरण सभी का समन्वय करना चाहते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि गांधीवाद या सर्वोदय ने उनके हृदय व आत्मा को उद्वेलित किया और अंग्रेजी शिक्षा के कारण साम्यवाद ने उनके मस्तिष्क को। इसलिए वे दोनों का समन्वय करने का प्रयत्न कर रहे हैं।
विकेंद्रित शासन
गांधी जी राज्य की समाप्ति अथवा अनावश्यकता को उन्नत समाज का अंतिम लक्ष्य मानते थे। वे प्रारंभ से अंत तक मानव थे, इसलिए केंद्रीय अर्थ-व्यवस्था हो, या केंद्रीय राज्य व्यवस्था, उन्हें प्रिय न थी। विकेंद्रित अर्थ – प्रणाली ही विकेंद्रित राज्य प्रणाली को जन्म दे सकती है और मनुष्य का कदम सत्ता से स्वतंत्रता की ओर बढ़ सकता है। संसार के प्रसिद्ध दार्शनिक रसेल ने लिखा है कि अगर समाज को शोषण से मुक्त होना है, तो गांधी जी के सर्वोदयवाद को अपनाना पड़ेगा।