संकेत बिंदु – (1) सत्संगति का अर्थ (2) मानव-जीवन पर प्रभाव (3) संगति के रूप (4) अच्छी संगति से मानव का उद्धार (5) सत्संगति से मानव जीवन के पाप समाप्त।
सज्जनों के साथ उठना-बैठना सत्संगति है। साधु-महात्माओं या धर्मनिष्ठ व्यक्तियों की संगति और धर्म-चर्चा करना सत्संगति है। योगवाशिष्ठ के अनुसार ‘पूर्ण महात्मा और सज्जनों के साथ को ही सत्संगति कहते हैं।’
सत्संगति सच्चरित्रता के निर्माण की पृष्ठभूमि है। गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है – ‘सठ सुधरहि सत्संगति पाई। पारस परसि कुधातु सुहाई।‘ पारस के स्पर्श से जैसे लोहा स्वर्ण बन जाता है, सत्संगति से दुष्ट मनुष्य भी सुधर जाता है। साधारण कीड़ा भी फूलों की संगति से बड़े-बड़े देवताओं और महापुरुषों के मस्तक पर चढ़ जाता है।
सत्संगति दो शब्दों का योग है – सत् + संगति। यहाँ’ सत्’ शब्द ‘संगति’ का विशेषण है। संगति ‘सम् + गति’ का संधि रूप है। जिसका अर्थ है समानगति अर्थात् एक साथ रहना, उठना-बैठना, विचार-विमर्श करना।
संगति का प्रभाव मानव-जीवन पर अवश्य पड़ता है। कहावत प्रसिद्ध है – खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। ‘ज्यों पलास संग पान के, पहुँचे राजा हाथ।’ ‘कीट चढ़े सुरसीस पर, पुष्पमाल के संग।’ पारस के छूते ही लोहा स्वर्ण बन जाता है। गंधी की दुकान पर बैठने मात्र से सुगंध का आनंद मिलता है जबकि काजल की कोठरी में कितना भी सावधान रहे, काजल की लीक तो लग ही जाती है। वर्षा की एक बूँद का विभिन्न पदार्थों से संगति होने का परिणाम दर्शाते हुए सूरदास कहते हैं-
सीप गयो मोती भयो कदली भयो कपूर
अहिमुख गयो तो विष भयो, संगत के फल सूर।
जब संगति का प्रभाव अनिवार्य है तो क्या संगति से बचा नहीं जा सकता? इसका उत्तर ‘न’ में होगा। कारण, मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह समाज की उपेक्षा करके लोक में जी नहीं सकता। इसलिए संगति मानव जीवन की पहचान बनी।
संगति के दो रूप हैं- कुसंगति तथा सत्संगति। कुसंगति अर्थात् बुरे लोगों की संगति और सत्संगति अर्थात् सज्जनों की संगति। कुसंगति का प्रभाव कितना तीव्र होता है, इसके लिए लोकोक्ति प्रसिद्ध है, ‘घोड़ों को गधों के अस्तबल में बाँध दीजिए, कुछ नहीं तो वे दुलती मारना जरूर सीख जाएँगे।’ गंगा जब समुद्र का संग करती है तो अपनी महत्ता, यश और पावनता खो देती हैं। केले और बेर का साथ देख लीजिए-
मारी मरे कुसंग की केरा के डिग बेर।
वह हाले वह अंग चिरे, विधिना संग निबेर॥
इतना ही नहीं दुर्जन के संग के कारण मनुष्य को पग-पग पर मानहानि सहनी पड़ती है। लोहे के संग से अग्नि भी हथौड़े के द्वारा पीटी जाती है। भगवती सीता का हरण तो रावण ने किया, परंतु बंधन में पड़ना पड़ा समुद्र को। कारण, उस पर पुल बाँधा गया। फिर दुर्जन साथ और आश्रय देने वाले का कौन-सा अपकार नहीं करता?
काँच भी कंचन का संग पा जाने पर मरकत मणि की शोभा प्राप्त कर लेता है। गलियों का पानी गंगाजी में मिलने पर गंगा के रूप में ही वंदित होता है। तुलसी कहते हैं – ‘मज्जन फल पेखिअ तत्काला, काक होहिं पिक बकउ मराला।‘ वृंद कहते हैं – ‘सब ही जानत बढ़त है, वृच्छ बराबर बेल।’ पुष्प के संग रहने से मिट्टी के कणों में भी सुगंधि आने लगती है। वाल्मीकि के मत से सत्संगति के कारण मृत्यु भी उत्सव जैसी हो जाती है और आपत्ति भी संपत्ति के समान प्रतीत होने लगती है।
भगवान राम के सत्संग से वानर और रीछ संस्कृति के अनुयायी तर गए। योगेश्वर कृष्ण की संगति से निराश हताश अर्जुन महाभारत युद्ध का विजेता बना। घोर कलियुग में बालक रामबोला स्वामी नरहर्यानंद के सत्संग से तुलसी बना। स्वामी विरजानंद की संगति से मूलशंकर ‘दयानंद’ बने। रत्नाकर वाल्मीकि बने। ठीक भी है- ‘बिनु सत्संग विवेक न होई’ तथा ‘सठ सुधरहि सतसंगति पाई।’
भवभूति कहते हैं, ‘सत्संगजामि निधनान्यपि तारयंति।’ अर्थात् सत्संग में होने वाला मरण भी मनुष्य का उद्धार कर देता है।’ ऋग्वेद का कथन है, ‘देवो देवेभिरागमत्’ अर्थात् परमेश्वर विद्वानों की संगति से प्राप्त होता है।
सत्संगति का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए गुरु गोविंद सिंह लिखते हैं-
जो लोग श्रेष्ठ लोगों की शरण लेते हैं, उनकी क्या चिंता करनी? जैसे दाँतों से घिरी जीभ भी सुरक्षित रहती है, उसी प्रकार गुरुभक्त लोग भी दुष्टों और दुर्भाग्य से सुरक्षित रहते हैं।
गर्ग संहिता कहती है, ‘गंगा पाप का, चंद्रमा ताप का तथा कल्पवृक्ष दीनता के अभिशाप का अपहरण करता है, परंतु सत्संग पाप, ताप और दैन्य, तीनों का तत्काल नाश कर देता है।’ इसीलिए महापुरुषों का सत्संग समस्त उत्कृष्ट अमूल्य पदार्थों का आश्रय, कल्याण और संपत्ति का हेतु तथा समस्त उन्नति का मूल कहा गया है। तुलसी ने सच ही कहा है, ‘सतसंगति मुद मंगल मूला, सोड़ फल सिधि सब साधन फूला।”
मानव जीवन की आकांक्षा रहती हैं- इहलोक में सुख, शांति, समृद्धि एवं ऐश्वर्य-भोग तथा देहान्त के अनंतर स्वर्ग प्राप्ति। यह तभी संभव है, जब व्यक्ति लौकिक जीवन में सत्संगति का वरण करे।
अपने से हीन व्यक्ति के संग से मनुष्य हीन हो जाता है। बराबर वाले के संग से ज्यों का त्यों बना रहता है। श्रेष्ठ पुरुषों के संग से शीघ्र ही मनुष्य का उदय तथा विकास हो जाता है। अतः व्यक्ति को सदा श्रेष्ठ पुरुषों का ही संग करना चाहिए।