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शिक्षा – एक शानदार निबंध

shiksa par ek hindi nibandh

संकेत बिंदु – (1) शिक्षा के बारे में विद्वानों के विचार (2) मनुष्य का सर्वांगीण विकास (3) मानव जीवन के लिए शिक्षा का उद्देश्य (4) शिक्षा प्राप्ति के लिए अनिवार्य गुण (5) समाज व विद्यार्थी की प्रगति में सहायक।

‘शिक्षा’ शब्द ‘शिक्ष’ धातु से भाव में ‘अ’ तथा ‘टाप्’ प्रत्यय जोड़ने पर बनता है। इसका अर्थ है -अधिगम, अध्ययन तथा ज्ञानाभिग्रहण। शिक्षा के लिए वर्तमान युग में शिक्षण, ज्ञान, विद्या, एजूकेशन (Education) आदि अनेक पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग होता है।

एजूकेशन (Education) शब्द की उत्पत्ति लेटिन भाषा के Educare तथा Educere शब्दों से मानी जाती है। Educare शब्द का अर्थ है, ‘To educate to bring up, to raise’ अर्थात् शिक्षित करना पालन-पोषण करना तथा ऊपर उठाना।

शिक्षा – शास्त्री टी. रेमांट का विचार है, शिक्षा विकास का वह क्रम है, जिसमे व्यक्ति अपने को धीरे-धीरे विभिन्न प्रकार से अपने भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक वातावरण के अनुकूल बना लेता है। जीवन ही वास्तव में शिक्षा है। प्रोफेसर ड्यूवी के मत में, ‘शिक्षा एक प्रक्रिया है जिसमें तथा जिसके द्वारा बालक के ज्ञान, चरित्र तथा व्यवहार को एक विशेष साँचे में ढाला जाता है।

स्वामी विवेकानंद का कथन हैं ‘शिक्षा विविध जानकारियों का ढेर नहीं, बल्कि मनुष्य में जो संपूर्णता गुप्त रूप से विद्यमान है, उसे प्रत्यक्ष करना ही शिक्षा का कार्य है।’ प्लेटो ने भी शिक्षा के संबंध में इसी तरह के भाव व्यक्त किए हैं, ‘शरीर और आत्मा में अधिक- से-अधिक जितने सौंदर्य और जितनी संपूर्णता का विकास हो सकता है, उसे संपन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य है।’ हर्बर्ट स्पेन्सर शिक्षा का महान् उद्देश्य कर्म को मानते हुए कहते हैं, ‘लोगों को पूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए प्रस्तुत करना ही शिक्षा का उद्देश्य हैं।’

डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार, ‘इसमें केवल बुद्धि का प्रशिक्षण ही नहीं, बल्कि हृदय की शुद्धता और आत्मा का अनुशासन भी सम्मिलित होना चाहिए।’

भारतीय संस्कृति में ज्ञान को मनुष्य का तृतीय नेत्र (ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रम्) बताया गया है। विद्या ही मानवी शील का शृंगार है। यही विवेक का मूल हैं। शिक्षा राष्ट्र की आंतरिक सुरक्षा है, जीवन की सफलता का दिव्य साधन हैं। विद्या (शिक्षा) ही वह साधन है, जिसके द्वारा मनुष्यता का विकास होता है। शिक्षा-शून्य व्यक्ति तो पशु समान ही होता है। उक्त प्रसिद्ध है – ‘विद्या विहीनः पशुः।’  इतना ही नहीं, शिक्षा मनुष्य के लिए कल्पवृक्ष के समान है। उसके द्वारा मनुष्य के जीवन का सर्वांगीण विकास होता है – ‘किं किं न साधयति कल्पलतेव विद्या।’

शिक्षा रूपी संपत्ति संसार के सब धनों में विलक्षण है। अन्य धन नष्ट हो सकते हैं, चुराए जा सकते हैं, शासन द्वारा जब्त किए जा सकते हैं, किंतु शिक्षा रूपी धन इन विपदाओं से मुक्त है। इसे न चोर चुरा सकता है, न राजा छीन सकता है और न भाई-बंधु बाँट सकते हैं। इस धन की सबसे बड़ी विलक्षणता तो यह है कि ज्यों-ज्यों व्यय किया जाता हैं, त्यों- त्यों यह बढ़ता ही जाता है। स्पष्ट है कि मनुष्य स्वयंगृहीत शिक्षा को जितना ही दूसरों को देगा, उतना ही उसका ज्ञान बढ़ेगा। किसी कवि ने ठीक ही कहा है-

सरस्वती के भंडार की बड़ी अपूरब बात।

ज्यों-ज्यों खरचे त्यों बढ़े, बिन खरचे घटि जात॥

शिक्षा मानव-जीवन के लिए वैसी ही है, जैसे संगमरमर के टुकड़े के लिए शिल्पकला। फलत: शिक्षा केवल ज्ञान-दान ही नहीं करती, वह संस्कार और सुरुचि के अंकुरों का पोषण भी करती है। हिंदी के प्रसिद्ध कवि श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ ने शिक्षा को संसार की सभी प्रकार की प्राप्तियों में श्रेष्ठतम बताया है। इसी प्रकार होरसमैन विद्या को भवन के प्रजातंत्र की किलेबंदी मानता है।

शिक्षा के उद्देश्य को व्यक्त करते हुए प्रेमचंद जी अपनी एक कथा में लिखते हैं कि “यह ठीक है कि शिक्षा और संपत्ति का प्रभुत्व सदा ही रहा है, किंतु जो शिक्षा हमें निर्बलों को सताने के लिए तैयार करे, जो हमें धरती और धन का गुलाम बनाए, जो हमें भोग- विलास में डुबाए, जो हमें दूसरों का रक्त पीकर मोटा होने का इच्छुक बनाए, वह शिक्षा नहीं, भ्रष्टता है।” एक शिक्षाविद् का कथन है कि “जिस शिक्षा में समाज और देश के कल्याण-चिंतन के तत्त्व नहीं हैं. वह कभी सच्ची शिक्षा नहीं कही जा सकती है।” डॉ. हरिशंकर शर्मा ने शिक्षा के आदर्श का उद्घाटन इन पंक्तियों में किया है-

‘जो शिक्षा मानव्रता का मार्ग दिखाए,

मन वचन, कर्म में शुचिता, समता लाए।

तन, मन, आत्मा को विमल-बलिष्ठ बनाए,

विज्ञान, ज्ञान का मर्म महत्त्व बताए।’

सामवेद संहिता में ‘पावका नः सरस्वती’ (हमारी विद्या पवित्र विचारों को फैलाने वाली हो) कहकर शिक्षा के महत्त्व का सार ही प्रस्तुत कर दिया है।

शिक्षा प्राप्ति के लिए आत्म-संयम, कर्तव्य निष्ठा, धैर्य, सहनशीलता, सत्य तथा अपरिग्रह अनिवार्य गुण हैं। इन गुणों के लिए अपेक्षित है अतुल शक्ति, पारदर्शी बुद्धि तथा आचरण की शुचिता। स्वाध्याय, स्मृति और विवेकशक्ति उसकी रीढ़ है, आधार स्तंभ हैं। शिक्षा के अभाव में मनुष्य का जीवन अत्यंत दूषित एवं पाशविक बन जाता है। इस स्थिति पर प्रकाश डालते हुए किसी कवि ने लिखा है-

विद्या बिना अब देख लो हम दुर्गुणों के दास हैं।

हैं तो मनुज हम, किंतु रहते दनुजता के पास हैं।

दायें तथा बायें सदा सहचर हमारे चार हैं।

अविचार, अन्धाचार औ’ व्यभिचार, अत्याचार हैं॥

हाँ! गाढ़तर तमसावरण से आज हम आच्छन्न हैं।

ऐसे विपन्न हुए कि अब सब भाँति मरणासन्न हैं।

निरुक्त में शिक्षा के लिए अपात्र का निषेध करते हुए विद्या स्वयं विद्वान् से कहती है, ‘मैं तुम्हारी निधि हूँ, तुम मेरी रक्षा करो। निंदक, कुटिल और असंयमी के लिए मुझे न दो, तभी मैं शक्ति और सामर्थ्य से युक्त रह सकती हूँ।’

‘विद्याह वै ब्राह्मणमाजगाम, गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि।

असूयकायानृजवेऽयताय, न मा ब्रूया वीर्यवनी तथा स्याम्॥’

शिक्षा चेतन या अचेतन रूप से मानव की वैयक्तिक रुचियों, समताओं, योग्यताओं और सामाजिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए आवश्यकता के अनुसार स्वतंत्रता देकर, उसका सर्वांगीण विकास करती है तथा उसके आचरण को इस प्रकार परिवर्तित करती है जिससे शिक्षार्थी और उसके समाज, दोनों की प्रगति होती हैं।

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