Lets see Essays

शिक्षा का गिरता स्तर – एक शानदार निबंध

shiksha ka girta star par ek shandaar nibandh

संकेत बिंदु – (1) ब्रिटिश प्रतिरूप पर आधारित (2) शिक्षा का राजनीतिकरण व शिक्षा आयोग (3) शिक्षकों द्वारा उत्तरदायित्व की उपेक्षा (4) पाठ्य पुस्तकों के स्तर में कमी (5) राजनीतिक हस्तक्षेप और मूल्यांकन पद्धति।

शिक्षा मनुष्य को पूर्णत्व प्रदान करने का साधन एवं विकास का सोपान है। उसके भीतर मूलभूत या जन्मजात गुणों का विकास या प्रकटीकरण शिक्षा के बिना संभव नहीं है।

भारत की वर्तमान शिक्षा-प्रणाली ब्रिटिश प्रतिरूप पर आधारित है, जिसकी नींव 1835 में रखी गई थी। इसका उद्देश्य था शिक्षा से भारत में प्रशासन को बिचौलियों की भूमिका निभाने और दफ्तरी कार्य के लिए क्लर्क तैयार करना। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी शिक्षा का उद्देश्य ‘बाबू संस्कृति’ का विकास और वर्द्धन बना रहा, जो भारत की वर्तमान स्थिति के प्रतिकूल है। श्री राजनाथसिंह का तो कहना है, ‘शिक्षा संस्थाएँ आज ज्ञान का मंदिर होने के स्थान पर अज्ञानता से उत्पन्न कलुष का केंद्र बनकर मनुष्य को सींग- पूँछ विहीन पशु बनाने का काम कर रही हैं।’

शिक्षा का स्तर गिर रहा है, इसका प्रमाण है नौकरियों में उत्तरोत्तर बढ़ता डिग्री- मूल्यांकन। स्वतंत्रता-काल में कलर्क की नौकरी के लिए ‘मैट्रिकुलेट’ होना पर्याप्त था। आज कम-से-कम बी. ए. होना चाहिए। प्राइमरी स्कूल में अध्यापक योग्यता थी मैट्रिक जे.वी., एस.वी. आज कम-से-कम बी. ए. बी.एड चाहिए।

भारत का दुर्भाग्य रहा है कि यहाँ हर अच्छी शिक्षा नीति राजनीति और नौकरशाही की चौखट पर सिर फोड़-फोड़ कर दम तोड़ती है। शिक्षा मंत्री की विचारधारा अनुसार शिक्षा नीति में कम्यूनिस्टीकरण, मुस्लिमीकरण या भगवाकरण की बू आती है। इसलिए विपक्ष नीति की दृष्टि से शिक्षा योजना को नहीं देखता, वह तो विचारधारा के आधार पर शिक्षा नीति की आलोचना करता है। नौकरशाही तो 85 प्रतिशत राशि को योजना के लागू होने में खा जाती है, डकार भी नहीं लेती। शेष 15 प्रतिशत राशि को लूट का माल समझ कर आवंटित करती है। इसमें भ्रष्टाचरण भी अपना भाग माँगता है। तब बची-खुची राशि से शिक्षा का उद्धार होगा, स्तर सुधरेगा अंतरिक्ष- स्पर्श से कम नहीं।

शिक्षा-स्तर को उन्नत करने का पहला आयोग 1948-49 में ‘राधाकृष्णन आयोग’ बना। उद्देश्य था विश्वविद्यालयीय शिक्षा का उद्धार। दूसरा आयोग 1952 में ‘मुदालियर आयोग’ बना माध्यामिक शिक्षा आयोग। उसके बाद अनेक शिक्षा आयोग बने। इसमें पहले आयोग की नियुक्ति ही अव्यावहारिक थी। कारण, सुधार का कार्य प्राथमिक शिक्षा से होना चाहिए, जबकि पहला आयोग विश्वविद्यालय शिक्षा पर विचार करने के लिए नियुक्त किया गया। जब तक जड़ को नहीं सींचा जाएगा, पत्ते, पुराण पल्लवित पुष्पित होंगे ही नहीं।

शेष शिक्षा आयोगों ने ‘संपूर्ण शिक्षा’ पर विचार किया। उनकी सिफारिशों को किसी-न-किसी कारणवश लागू करने में कठिनाई उत्पन्न होती रही। ‘शिक्षा का व्यवसायीकरण’ करने की सिफारिश सर्वप्रथम कोठारी आयोग (1964-66) ने दी थी। उसके बाद तो सभी शिक्षा आयोगों ने पूरी शक्ति और सर्वसम्मति से इस तत्त्व का समर्थन किया है। क्या ‘व्यावसायिक शिक्षा’ आरंभ हुई? एक या दो प्रतिशत। ऊपर से औसत शिक्षकों की योग्यताएँ व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की शिक्षा देने के लिए अपर्याप्त रही है। परिणामतः आयोगों की सिफारिशों के लागू करने के अभाव में शिक्षा का स्तर गिरता गया।

अध्यापन का दायित्व होता है शिक्षक पर। असल में, वह ही शिक्षा-स्तर को उन्नत करने की रीढ़ है। वह चाहे तो शिक्षार्थी को शिक्षित कर सकता है और चाहे तो अपने अनपेक्षित व्यवहार से ज्ञान-विहीन छोड़ सकता है। सरकारी और सहायता प्राप्त स्कूलों में अधिकांश शिक्षक पीरियड में समय पर पहुँचकर पढ़ाने के विरुद्ध हैं। अनेक शिक्षक तो विद्यालय में हाजरी लगाने आते हैं; कक्षा, विद्यार्थी और अध्यापन से उनका कोई नाता नहीं।

स्वतंत्रतापूर्व के शिक्षक स्कूल या कॉलेज जाने से पहले अपनी ‘स्टडी’ (स्वाध्याय) करके चलते थे ताकि अध्यापन में कोई कठिनाई न आए तथा नए विचार उत्पन्न हों। आज का शिक्षक अपने को विषय का विशेषज्ञ समझता है, इसलिए ‘स्वाध्याय’ को बेकार मानता है। दूसरी ओर आज का शिक्षक विषय का विशेषज्ञ नहीं, भ्रांत द्रष्टा है। उसे अपने विषय की समझ ही नहीं है। अशुद्ध सहायक पुस्तकों पर जिनका ज्ञान आधारित होगा, 2 + 2 = 5 ही पढ़ाएँगे। ऐसी स्थिति में छात्र यह सोचते हैं कि शिक्षक के पढ़ाने में कुछ भी चुनौतीपूर्ण नहीं होता तो फिर स्कूल जाने का क्या लाभ?

पब्लिक स्कूलों में जहाँ शिक्षा स्तर बहुत ऊँचा माना जाता है, वहाँ पुस्तकों का यह आलम है कि गधे के बोझ से कम बस्ता नहीं होता और कैसी-कैसी पुस्तकें पढ़ाई जाती हैं, उसका एक उदाहरण ही पर्याप्त है- “कमल’ हिंदी भाषियों के लिए और ‘जलज’ संस्कृत भाषियों के लिए।” जबकि कमल और जलज, दोनों संस्कृत तत्सम शब्द हैं और हिंदी में आम प्रयुक्त होते हैं। और आगे चलिए ‘केवल मनुष्य के मुख से उच्चारित, रूप को ही हम भाषा कहते हैं।’ इसका अर्थ है, लिखित रूप को भाषा नहीं कहते।

अब जरा स्कूल पाठ्यक्रमों में करोड़ों रुपए खर्च करके वर्षों विद्वज्जनों की बैठकों के बाद जो पुस्तकें एन.सी.ई.आर.टी. तैयार करता हैं उनका आलम यह है-

(1) असेम्बली में बम फेंकने के कारण 23 मार्च, 1931 को सरदार भगतसिंह, शिवराम, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी दी गई।’

(2) हिंदी की 9 कक्षा के ‘बी’ पाठ्यक्रम में पुस्तक लगी हैं पूर्वा भाग 1 तथा कथा- कलश भाग 1। इसके मुख्य संपादक हैं- रामजन्म शर्मा और चन्द्रा सदायत। 25 अन्य हिंदी विद्वानों की समिति ने इन पर कार्य किया है। स्तर है इन पुस्तकों का छठी श्रेणी का। इसे कहते हैं ‘खोदा पहाड़, निकली चुहिया और वह भी मरी हुई।’

(3) आठवीं कक्षा की पाठ्य-पुस्तक है – सरस भारती भाग 3। उसमें से तीन पाट हैं – (क) इब्राहिम गार्दी (कहानी): वृंदावनलाल वर्मा।

(ख) प्रियतम (कविता): सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’।

(ग) क्या निराश हुआ जाए (निबंध): हजारीप्रसाद द्विवेदी।

ये तीनों पाठ दसवीं कक्षा : बी कोर्स की पाठ्य-पुस्तक मानसी भाग-दो में भी हैं। अर्थात आठवीं और दसवीं का स्तर एक है। धन्य है राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् के हिंदी विभाग की सोच को।

(4) बारहवीं इलेक्टिव में एक पाठ्य-पुस्तक है – मंदाकिनी भाग दो। उसमें एक ओर तो प्रसाद, निराला और अज्ञेय की क्लिष्ट कविताएँ हैं और दूसरी ओर नागार्जुन की ‘बहुत दिनों बाद’  पाँचवी स्तर की कविता है।

शिक्षा के गिरते स्तर का एक कारण परीक्षा और मूल्यांकन पद्धति है। पाठ्य-क्रम से बाहर और स्तर से ऊँचे प्रश्न पूछकर लाखों परीक्षार्थियों के भविष्य को अंधकार में धकेलने में पेपर सेटर को दया नहीं आती। 12वीं कक्षा में हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रश्नों के उत्तर देने में परीक्षार्थी क्या, अध्यापकों को भी पसीना आ सकता है, क्योंकि उनका स्तर एम.ए. का होता है।

भारत में शिक्षा-स्तर गिरने का एक प्रमुख कारण है – राजनीति का हस्तक्षेप। ‘निजी स्वार्थ के लिए सभी कुकर्म करने वालों की जमात को आज ‘नेता’ के नाम से पहचाना जाता है।‘  – पत्रकार राजनाथ सिंह इन नेताओं के संरक्षण में पुष्पित और पल्लवित हैं, शिक्षा के कर्णधार। वे शिक्षा का स्तर पाताल में पहुँचाएँ या देश- प्रतिभा की धारा को अवरुद्ध करें, इनके हितों को, उनकी नौकरी को आँच नहीं आएगी कारण, नेता जी का वरद-हस्त उनके ऊपर हैं तथा ‘सैयाँ भए कोतवाल तो डर काहे का।’ अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति महमुदुर्रहमान ने राजनीति से तंग आकर कहा था, ‘वे भविष्य में किसी राजनीतिज्ञ को विश्वविद्यालय में नहीं बुलाएँगे।’

दूसरे, यदि वर्ग विशेष या सिफारिश के स्थान पर योग्यता और प्रतिभा को महत्त्व देकर शिक्षक, शिक्षा समिति तथा पाठ्यक्रम निर्धारण समितियों के सदस्यों का चयन हो तो शिक्षा स्तर में निश्चित सुधार होगा।

Leave a Comment

You cannot copy content of this page