संकेत बिंदु – (1) गुरु का स्थान ईश्वर के ऊपर (2) शिक्षक और छात्र का दायित्व (3) प्राचीन काल से ही गुरु का महत्त्व (4) छात्रों पर शिक्षक का प्रभाव (5) उपसंहार।
शिक्षक, अध्यापक, गुरु, टीचर और मास्टर ये कुछ शब्द हैं जो हमें शिक्षा के क्षेत्र में देखने और सुनने को मिलते हैं और इनके साथ ही विद्यार्थी, शिष्य, स्टूडैंट और चेला शब्द भी देखे और सुने जा सकते हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार गुरु और शिष्य से बात प्रारंभ की जाए तो अच्छा रहेगा।
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पांय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दियो मिलाय॥
उपर्युक्त पंक्तियों में शिष्य संशय में हैं कि भगवान और गुरु दोनों खड़े हैं किसके पाँव छूने चाहिए, तभी उसी शिष्य को आभास हुआ कि गुरु के कारण ही भगवान के दर्शन का सौभाग्य मिला है, पहले गुरु के पाँव छू लेने चाहिए। कहने का यह अभिप्राय है कि यह गुरु का पद भगवान से भी ऊँचा माना गया है।
निष्ठावान् शिक्षक ही छात्र के जीवन में सुधार कर सकता है और शिक्षक के द्वारा ही छात्र जीवन में शिखर को छू पाने में सफल हो सकता है। शिक्षक और छात्र दोनों के मन में भावना का होना अति आवश्यक है। एक ओर तो बेचारा शिक्षक पूरे मनोवेग से छात्रों को पढ़ाने का प्रयास करे और दूसरी और छात्रों का ध्यान किन्हीं अन्य बातों में लगा रहे तो न शिक्षक को ही पढ़ाने में आनंद आएगा और न छात्रों का ही भला हो पाएगा।
छात्र को भी ज्ञान अर्जन के लिए संपूर्ण समर्पण भाव से ध्यान देने की ही आवश्यकता होती है, तभी जीवन में उन्नति प्राप्त हो सकती है। प्राचीनकाल में शिष्यों का समर्पण एक उदाहरण बनकर आज भी हमारे सम्मुख है। गुरु द्रोणाचार्य पांडवों को धनुर्विद्या में निपुण कर रहे थे और भील का बालक एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य द्वारा पांडवों को सिखायी जा रही धनुष विद्या को दूर खड़ा देखा करता था। एक ही मन से द्रोणाचार्य को अपना गुरु स्वीकार लिया और वह भी धनुष का स्वतः ही अभ्यास करने लगा। पारंगत होने पर एकलव्य ने जब अपनी विद्या का प्रदर्शन किया तो द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उसके गुरु का नाम जानना चाहा। तब एकलव्य ने बताया कि मैंने मन से आपको गुरु स्वीकार कर यह धनुष विद्या स्वयं ही सीखी है। इस पर गुरु दक्षिणा में एकलव्य ने अपने सीधे हाथ का अँगूठा काटकर द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा में भेंट कर दिया। यही नहीं मुनि वशिष्ठ और विश्वामित्र ने राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुध्न को शिक्षित किया और संदीपन गुरु ने श्रीकृष्ण को ज्ञान के साथ- साथ सहज और सरल जीवन जीने का पाठ भी पढ़ाया। शिक्षक, गुरु या अध्यापक कुम्हार की भाँति कहे गए हैं, जिस प्रकार कुम्हार अपनी गीली मिट्टी को जो चाहे आकार देने में सक्षम होता है उसी प्रकार गुरु शिक्षक का अध्यापक अपने शिल्प को आकार दे सकता है। अरस्तू ने अपने शिष्य सिकंदर को विश्व जीतने के लिए उकसाया तो चंद्रगुप्त को चाणक्य ने शिक्षित करके देश का इतिहास ही बदल दिया।
छोटे बच्चे के मन पर अध्यापक का जैसा गहरा प्रभाव पड़ता है, वैसा किसी अन्य का नहीं पड़ता। इसलिए अध्यापक का आदर्शवान् होना परम आवश्यक है। अध्यापक ही ऐसा एक केंद्र-बिंदु है जहाँ से बौद्धिक परंपराएँ तथा वैज्ञानिक और तकनीकी कुशलता एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को संचारित करती हैं। यह अध्यापक या शिक्षक ही होता है जो सभ्यता के दीपक को प्रज्ज्वलित करने में अपना योगदान करता है। शिक्षक, अध्यापक या गुरु व्यक्ति का मार्ग दर्शन ही नहीं करता, अपितु समूचे राष्ट्र का भाग्य निर्माता भी होता है।
शिक्षक यदि योग्य होगा तो छात्र भी योग्य ही बनेंगे। शिक्षक के व्यक्तित्व का प्रभाव छात्र पर निश्चित रूप से पड़ता है। चरित्रवान् और नीतिवान् अध्यापक के विद्यार्थी भी चरित्र और नीति में प्रवीण होंगे। शिक्षण, निरीक्षण, मार्गदर्शन, मूल्यांकन और सुधारात्मक कार्यों के साथ-साथ योग्य अध्यापक ही विद्यार्थियों, अभिभावकों और समुदाय से सदैव अनुकूल संबंध स्थापित करने के दायित्व को भी निभाता है। अध्यापक द्वारा शिक्षित छात्र जब परीक्षा में सफल होते हैं तो सबसे अधिक गर्व अध्यापक को ही होता है।
गोस्वामी तुलसीदास ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि-
श्री गुरु चरण सरोज रज,
निजमन मुकुरु सुधारि।
अर्थात् शिष्य का कर्त्तव्य है कि वह गुरु के चरणों की धूल अपने मस्तक पर धारण करे, लेकिन आज के संदर्भ में यदि हम देखें तो इसका यह भी अर्थ है कि विद्यार्थी अपने अध्यापक का सम्मान करे। अध्यापक या शिक्षक का कार्य तो केवल शिक्षा देना है, मगर विद्यार्थी का कार्य अध्यापक से भी बढ़ कर होता है, विद्यार्थी या छात्र का यह दायित्व हो जाता है कि सम्मानपूर्वक वह शिक्षा को भी ग्रहण करे साथ ही शिक्षक का भी पूरा सम्मान करे। यह कटु सत्य है कि ताली बजाने के लिए दोनों हाथों की आवश्यकता पड़ती है। एक हाथ से कभी भी ताली नहीं बजाई जा सकती।
छात्र यदि विनम्र होगा तो वह अपने अध्यापक से अच्छी शिक्षा प्राप्त कर पाने में सक्षम रहेगा, लेकिन यदि छात्र उद्दंड है तो वह सदैव विरस्कृत ही होता रहेगा, इसमें हानि छात्र की होती है। अध्यापक ने जो भी शिक्षा देनी है वह सामूहिक रूप से सभी छात्रों को कक्षा में देगा और यह छात्रों पर निर्भर करता है कि वह उस, अध्यापक की शिक्षा को कितना ग्रहण कर पाते हैं। पूरी कक्षा में अध्यापक किसी भी छात्र से शिक्षा देते समय अर्थात् पढ़ाते समय कोई भी भेदभाव नहीं रखते, फिर भी परीक्षा परिणाम में कुछ छात्र असफल हो जाते हैं, इसमें दोष उन छात्रों का है जिन्होंने मन लगाकर न तो अध्यापक की बात ही सुनी और न ही मन लगा अध्ययन, चिंतन और मन ही किया। लेकिन किसी भी छात्र के असफल होने का दुख छात्र से अधिक अध्यापक को होता है, क्योंकि अध्यापक को मन-ही-मन यह लगता है कि शायद मुझसे छात्रों को ठीक प्रकार से बताने या समझाने में कोई कमी रह गई है।
शिक्षक और छात्र का संबंध तो दूध और पानी की भाँति होता है, जैसे दूध में मिला पानी भी दूध ही कहलाता है उसी प्रकार एक अच्छे चरित्रवान् शिक्षक का छात्र भी अच्छा चरित्रवान् ही कहलाने का अधिकारी होता है। जहाँ अध्यापक का दायित्व छात्र को शिक्षा देना हैं, वही छात्र का भी कर्तव्य है अध्यापक द्वारा दी गई उस महत्त्वपूर्ण शिक्षा को ग्रहण कर जीवन में उन्नति पाता हुआ सदैव शिखर पर पहुँच कर अपने अध्यापक, अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के नाम हो ऊँचा करने का गौरव प्राप्त करे।