संकेत बिंदु – (1) मेरी प्रिय कवि सूरदास (2) सूरदास का जीवन परिचय (3) सूरदास के ग्रंथ और उनमें भक्ति भावना (4) बाल-क्रीड़ाओं और शृंगार का वर्णन (5) सूर की भाषा और पदों की विशेषता।
हिंदी के सैकड़ों साहित्यकार हुए हैं, जिन्होंने माँ भारती के मंदिर में पद्य या गद्य- विधाओं के रूप में अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं। जैसे सभी सुमन अपनी सुगंध के कारण सबको अच्छे लगते हैं, ऐसे ही मैं हिंदी के सभी साहित्यकारों के सम्मुख श्रद्धा से सिर झुकाता हूँ। फिर भी, जिस प्रकार गुलाब को फूलों का राजा माना जाता है, उसी प्रकार मैं साहित्यकारों में भक्त शिरोमणि सूरदास को कवियों का शिरोमुकट मानता हूँ। पाँच सौ वर्ष बीत जाने पर उनकी कविता आज भी काव्य-रसिकों को रसमग्न करती है और भक्तों को भाव-विभोर करती है। यही भक्त शिरोमणि सूरदास मेरे प्रिय कवि हैं।
भक्त- प्रवर सूरदास का जन्म संवत् 1535 में दिल्ली के निकट सीही ग्राम में हुआ था। वे सारस्वत ब्राह्मण थे। इनके जन्मांध होने अथवा बाद में अंधे होने के बारे में विद्वानों में मतभेद है। अधिकांश विद्वान् उनकी जन्मांधता की ही पुष्टि करते हैं। यह कहना तो असंभव है कि इनकी शिक्षा-दीक्षा किस प्रकार हुई, किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि साधुओं की संगति और ईश्वर प्रदत्त अपूर्व प्रतिभा के बल पर ही उन्होंने बहुत ज्ञान प्राप्त कर लिया। युवावस्था में वे आगरा और मथुरा के बीच गौघाट पर साधु जीवन व्यतीत करते थे। संगीत के प्रति उनकी स्वाभाविक रुचि थी। मस्ती के क्षणों में वैरागी सूर अपना तानपूरा छेड़कर गुनगुनाया करते थे। यहीं उनकी पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक महाप्रभु स्वामी वल्लभाचार्य जी से भेंट हुई। सूरदास ने एक पद उन्हें गाकर सुनाया। स्वामी जी को यह पद बहुत पसंद आया और उन्होंने सूरदास जी को अपने मत में दीक्षित कर लिया तथा श्रीमद्भागवत की कथाओं को सुललित गेय पदों में रूपांतरित करने का आदेश दिया। श्रीनाथ जी के मंदिर की कीर्तन सेवा का भार भी उन्हीं को मिल गया।
सूरदास रचित तीन ग्रंथ प्राप्त हैं- सूरसागर, सूरसारावली और साहित्य लहरी। ‘सूरसागर’ सूरदास जी की सर्वश्रेष्ठ एवं वृहद् रचना है। इसमें प्रसंगानुसार कृष्ण-लीला संबंधी भिन्न-भिन्न पद संगृहीत हैं। सूरदास के कृष्ण तो सौंदर्य, प्रेम और लीला के अवतार हैं। इनके कुल पदों की संख्या सवा लाख कही जाती है, किंतु अभी तक प्राप्त पदों की संख्या दस हजार से अधिक नहीं है।
सूर उच्चकोटि के भक्त थे। भक्त होने के साथ ही वे एक सिद्ध कवि भी थे। उनकी भक्ति में कवि सुलभ कल्पना का स्वाभाविक योग है।
सूरसागर में भगवान कृष्ण की बाल लीलाओं एवं बालप्रकृति का सूक्ष्म निरीक्षण और विवेचन है। बाल लीलाओं का जितना स्वाभाविक एवं सरस चित्रण सूरदास कर सके हैं, उतना हिंदी का कोई अन्य कवि नहीं कर सका। रामचंद्र शुक्लजी का मानना है, ‘शृंगार और वात्सल्य के क्षेत्र में जहाँ तक सूर की दृष्टि पहुँची, वहाँ तक और किसी कवि की नहीं।’ इन दोनों क्षेत्रों में इस महाकवि ने मानो औरों के लिए कुछ छोड़ा ही नहीं।’ एक दो चित्रों से हम इसकी परख कर सकते हैं।
बालकों की स्पर्द्धाशील प्रकृति का रूप देखिए-
मैया कबहि बढ़ेगी चोटी?
किती बार मोहि दूध पियत भइ, यह अजहू है छोटी।
तू जो कहति बल की बेनी ज्यों है है लांबी मोटी।
काचो दूध पियावति पचि-पचि, देत न माखन रोटी।
सूर का शृंगार-वर्णन भी केवल कवि-परंपरा का पालन मात्र से होकर जीवन की सजीवता व पूर्णता की अभिव्यक्ति करता है। गोपियों का विरह वर्णन तो एक विशेष महत्त्व रखता है। उनके पद वर्ण्य विषय का मनोहारी चित्र प्रस्तुत कर देते हैं और साथ ही सरस भाव की स्पष्ट व्यंजना करते हैं।
राधा और कृष्ण अभी अनजान हैं, किंतु सौंदर्य का आकर्षण उनमें विकसित होने लगा है। प्रथम मिलन में प्रेम उमड़ पड़ता है। कृष्ण खेलने निकले हैं-‘खेलन हरि निकसे ब्रज खोरी’ और वहीं पर-
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी।
‘सूर’ श्याम देखत ही रीझे नैन नैन मिली परी ठगौरी॥
आँखों का जादू हो गया। परिचय की आकुलता बढ़नी स्वाभाविक थी। कृष्ण ने आगे बढ़कर पूछ ही लिया-
बूझन श्याम कौन तू गोरी?
कहाँ रहति, काकी तू बेटी, देखी नाहीं कबहुँ ब्रज खोरी।
राधा भी कम न थी। उसने भी मुँह फिराकर उत्तर दिया-
काहे को हम ब्रज तन आवति खेलति रहति आपनी पौरी।
सुनति रहति स्त्रवन नंद ढोटा, करत रहत माखन दधि चोरी॥
कृष्ण को मौका मिल गया, हाजिरजबाब तो थे ही। झट बोल उठे-
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं, आवहुँ खेलैं संग मिलि जोरी।
सूर के काव्य की एक और विशेषता है, वह है सूर के पदों की गेयता। इस विशिष्ट गुण के कारण ही हजारों नर-नारी सूर के पदों में वर्णित कृष्ण-लीला गाकर मस्ती में झूम जाते हैं। दूसरे, उक्ति – वैचित्र्य अर्थात् एक भी भाव, विषय एवं चित्र को अनेक प्रकार से तथा अनूठे ढंग से प्रस्तुत करने के गुण ने उनके काव्य में एक विशेष आकर्षण उत्पन्न कर दिया है। सूर के दृष्टकूट पद भी हिंदी-साहित्य में नई छटा दिखाते हैं।
सूरदास जी की भाषा ब्रजभाषा है। परिनिष्ठित ब्रजभाषा में सर्वप्रथम और सर्वोत्तम रचना करने वाले सूर ही हैं। उनकी भाषा पूर्ववर्ती कवियों की भाषा की अपेक्षा अधिक संयत, सुव्यवस्थित और मँजी हुई है। कोमल पदों के साथ उनकी भाषा स्वाभाविक, प्रवाहपूर्ण, सजीव और भावों के अनुसार बन पड़ी है। माधुर्य और प्रसाद उनके काव्य के विशेष गुण हैं।