संकेत बिंदु – (1) शरीर और आत्मा का संबंध (2) देश- परिचय और कोमल भावनाओं का अंकुरण काल (3) विद्याध्ययन काल और देश-प्रेम (4) देश- प्रेम के अनिवार्य बातें (5) दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति।
विद्यार्थी और देश-प्रेम का संबंध ऐसा ही है जैसा कि शरीर और आत्मा का संबंध। यह उसके लिए मातृभूमि के ऋण से उऋण होने का साधन है। जीवन में स्वार्थ और कामना का हवन करना है। देश सेवा के माध्यम से अजर-अमर होने का वरदान है। कहा भी है-
शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा।
किसी भी शिक्षा संस्था में विद्या प्राप्त करने वाला विद्यार्थी कहलाता है। सदा कुछ- न-कुछ, किसी-न-किसी विषय में जानने-सीखने के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति भी विद्यार्थी है। मातृभूमि से साहचर्यगत प्रेम, देश-प्रेम है। देश के प्रति कर्तव्य पालन करना और तन, मन, धन समर्पण करना देश-प्रेम का परिचायक है।
विद्यार्थी राष्ट्र का एक अंग है, अतः देश-प्रेम उसका कर्तव्य है। रामनरेश त्रिपाठी ने ‘स्वप्न’ कविता में देश-प्रेम की महिमा बताते हुए कहा है-
देश प्रेम वह पुण्य क्षेत्र है, अमल असीम त्याग से विलसित।
आत्मा के विकास से जिसमें, मनुष्यता होती है विकसित॥
देश-प्रेम की पहली शर्त है देश- परिचय। बिना रूप परिचय के देश-प्रेम कैसा? देश के प्राणी (मानव, पशु, पक्षी, जंतु), प्रकृति, धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक स्थिति का ज्ञान देश का रूप परिचय है। रूप-परिचय देश की हित चिंतन तथा हित साधन की प्रवृत्ति को प्रश्रय देगा। हृदय में देश-प्रेम की ललक और भावना उत्पन्न करेगा। इस प्रकार जब देश का रूप विद्यार्थी की आँखों में समा जाएगा तो उसके अंतःकरण में यह भाव उदित होगा कि मेरा देश सदा धनधान्य से पूर्ण हो, उसके मानव सुखी रहें, पशु-पक्षियों व अन्य जंतुओं का अकारण विनाश न हो तथा देश के वन-बाग सुरक्षित रहें। जलाशय जल से परिपूर्ण हों। पर्यावरण प्रदूषित न हो।
विद्यार्थी-मन कोमल भावनाओं के अंकुरण का काल है। उसमें जो बीज पड़ जाएगा, भविष्य में वे भावनाएँ परिपक्व होकर वट-वृक्ष बन जाएँगी। विद्यार्थी-काल में यदि देश के प्रति प्रेम भावना जागृत हुई तो वह जीवन-भर अंतरात्मा में विद्यमान रहेगी। विद्यार्थी काल में उदित देश-प्रेम सच्चा राष्ट्र-प्रेम होगा। उसमें न छल होगा, न कपट। न देश के प्रति द्रोह होगा, न दुरभिसंधि। अंतःकरण की एक ही आवाज होगी, “तेरा वैभव अमर रहे माँ। हम दिन चार रहें न रहें।”
ब्रह्मचर्यावस्था अर्थात् विद्याध्ययन काल में छात्र अविवाहित होता है। परिवार के दायित्व से मुक्त होता है। कमाने की चिंता से दूर रहता है। अध्ययन रूपी तप में वह प्रवृत्त रहता है। उसके हृदय में उत्साह और उमंग भरा रहता है। अतः बिना झिझक वह संघर्षों से टक्कर ले सकता है। देश-प्रेमी की तो एक ही भावना रहती है-
मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ में देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक।
-माखनलाल चतुर्वेदी
यही कारण है कि गाँधी जी की ललकार पर सहस्रों विद्यार्थी स्वातंत्र्य- आंदोलन में कूद पड़े थे। सीने पर ब्रिटिश राज्य की गोली खा ली, पर पीठ नहीं दिखाई। जेल की कोठरी से प्यार किया, फाँसी के फंदे को चूमा, पर देश से द्रोह नहीं किया। सन् 1974 के आपातकाल में सिर पर कफन बाँधकर विद्यार्थी यदि इंदिरा की तानाशाही के विरुद्ध खड़े न होते तो देश आपातकाल से मुक्त न होता। दिनकर जी की शब्दों में-
जो अगणित लघु दीप हमारे / तूफानों में एक किनारे।
जल – जलकर बुझ गए एक दिन / माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल॥
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ देश-प्रेम के लिए तीन बातों को जीवन में आचरित करना अनिवार्य मानते हैं-
(1) शक्ति बोध अर्थात् अपने देश के सामर्थ्य का ज्ञान। देश की कमियों, खराबियों की सार्वजनिक चर्चा करना तथा दूसरे देशों की तुलना में अपने देश को हीन सिद्ध करना शक्तिबोध को चोट पहुँचाना है। इससे नागरिकों के मनोबल का ह्रास होगा।
(2) सौंदर्य-बोध अर्थात् देश को सुंदर रखने का प्रयत्न। घर का कूड़ा सड़क पर फेंकना, केला खाकर छिलका रास्ते में फेंकना; गंदे शब्दों का उच्चारण करना; चुगली लगाना: गली, घर, कार्यालय को गंदा रखना; सार्वजनिक स्थानों, जीनों तथा कोनों में पीक थूकना: उत्सवों, मेलों, रेलों तथा खेलों में ठेलमठेल करना; देश के सौंदर्य बोध को आघात पहुँचाना है।
(3) मत का प्रयोग देश के हित में यह जरूरी है कि हम अपने ‘वोट’ का प्रयोग अपने विवेक से करें, न कि जाति, संप्रदाय, दल या लालच वश।
शिक्षा संस्थाओं से संबद्ध होने के कारण आज का विद्यार्थी ‘विद्यार्थी’ तो हैं पर अध्ययन के प्रति उसमें पूर्ण रुचि और एकाग्रता नहीं, अध्यापक के प्रति श्रद्धा नहीं, शिक्षा- संस्थान के प्रति आदर भाव नहीं। शिक्षा संस्थान अध्ययन, मनन, चिंतन और समर्पण के देवालय हैं। मातृभूमि की पूजा अर्चना की ज्योति जागृत करने के पूजा स्थल हैं। इनके प्रति अश्रद्धा, अवहेलना, उपेक्षा के बाद विद्यार्थी से देश-प्रेम की आशा करना वैसा ही है, जैसे रेगिस्तान में जल की कामना करना।
विद्यार्थी में देशहित की भावना के अभाव के लिए क्या हमारी शिक्षा-पद्धति दोषी है या विद्यार्थी का आचरण? वस्तुतः इसके लिए न शिक्षा पद्धति दोषी है, न विद्यार्थी का आचरण। दोषी हैं तो राजनीतिज्ञों का व्यवहार। जब वह अखवार में तथाकथित परम देश-भक्त राजनीतिज्ञों को भ्रष्ट आचरण में लिप्त पाता है तो वह नैतिक शिक्षा को अस्पृश्य मानता है। जब राष्ट्र भक्त राजनीतिज्ञ अपने द्वारा संचालित शिक्षा-पद्धति को ही पानी पी-पीकर कोसते हैं तो वह अध्ययन को समय की बरबादी मानता है। जब गुरुजन अध्यापन में प्रमाद करते हैं तो छात्र के मन में उनके प्रति विद्रोह उठना स्वाभाविक है।