संकेत बिंदु – (1) विद्या और राजनीति सहोदरा (2) विद्या राजनीति की दासी के रूप में (3) छात्र जीवन में राजनीति (4) वर्तमान छात्र राजनीति के रोग से ग्रस्त (5) उपसंहार।
विद्या और राजनीति सहोदरा हैं। दोनों का पृथक रहना कठिन है। दोनों के स्वभाव भिन्न हैं, किंतु लक्ष्य एक है: व्यक्ति और समाज को अधिकाधिक सुख पहुँचाना। विद्या नैतिक नियमों का वरण करती है, अतः उसमें सरलता है, विजय है तथा बल है, जबकि राजनीति में दर्प है, और है बाह्य शक्ति। भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक पृष्ठों को पलटें, तो पता लगेगा कि विद्या ने राजनीति को स्नेह प्रदान किया है और प्रतिदान में राजनीति ने शिक्षा को समुचित आदर दिया है, जिसका संचालन राजनीतिक नेताओं द्वारा होता है।
संसार का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब भी किसी राष्ट्र में क्रांति का बिगुल बजा, तो वहाँ के छात्र द्रष्टा मात्र नहीं रहे, अपितु उन्होंने क्रांति की बागडोर संभाली। परतंत्रता – काल में स्वातंत्र्य के लिए और वर्तमान काल में भ्रष्टाचारी सरकारों के उन्मूलन के लिए भारत में छात्र-शक्ति ने अग्रसर होकर क्रांति का आह्वान किया। इण्डोनेशिया और ईरान में छात्रों ने सरकार का तख्ता ही उलट दिया था। यूनान की शासन नीति में परिवर्तन का श्रेय विद्यार्थी वर्ग को ही है। बंगलादेश को अस्तित्व में लाने में ढाका विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। असम के मुख्यमंत्री तो विद्यार्थी रहते ही मुख्यमंत्री बने थे।
आज विद्या राजनीति की दासी है। राजकीय तो राजकीय हैं, यहाँ तो सहायता प्राप्त विद्यालय भी राजकीय नियमों से जकड़े पड़े हैं। पाठ्यक्रम और पाठ्य-पुस्तकें भी राजकीय हैं। उससे विचलित होते ही अनुशासन को कोड़ा पीठ पर पड़ जाता है। इस प्रकार जब आर्थिक, शैक्षिक और प्रशासनिक दृष्टि से राज – शक्ति विद्यार्थियों पर राज्य करे, अनपढ़ और अँगूठाटेक राजनीतिज्ञ दीक्षांत भाषण दें और अल्पशिक्षित राजनीतिज्ञ अध्यापकों की सभा में शिक्षा-सुधार के उपाय सुझाएँ, तब विद्यार्थी राजनीति से अछूता कैसे रह सकता है?
विद्यार्थी को विद्याध्ययन करने के उपरांत भी जीवन के चौराहे पर किंकर्तव्य-विमूढ़ खड़ा होना पड़ता है। नौकरी उसे मिलती नहीं, हाथ की कारीगरी से वह अनभिज्ञ है। भूखा पेट रोटी माँगता है। वह देखता है, राजनीतिज्ञ बनकर समाज में आदर, सम्मान, प्रतिष्ठा और धन प्राप्त करना सरल है, किंतु नौकरी पाना कठिन है। ईमानदारी से रोजी कमाना पर्वत के उच्च-शिखर पर चढ़ना है तो वह राजनीति में कूद पड़ता है।
आज कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्र संघों के चुनाव होते हैं, जो कि संसद के चुनाव से कम महत्त्वपूर्ण और अल्पव्ययी नहीं हैं। विद्यालयों में संसद और राज्य विधान- सभाओं का अनुकरण कराया जाता है। आज विधान सभाओं और संसद में जो हंगामे, लांछन और वाक्-युद्ध चलते हैं, क्या वे अनुकरणीय हैं? क्या उनका दुष्प्रभाव जन-जीवन पर नहीं पड़ेगा? ऐसी स्थिति में विद्यार्थी राजनीति में अलिप्त कैसे रह सकता है? ‘ बोये पेड़ बबूल के, आम कहाँ से पाय?”
वर्तमान भारत का विद्यार्थी राजनीति के रोग से ग्रस्त है। वह शासन और नीति की दाढ़ों में जकड़ा हुआ है। 18 वर्ष की आयु में मतदान का अधिकार देकर उसे राजनीति के छल-छंदमय वातावरण में घसीटा गया है। हड़ताल, धरना उसके पाठ्यक्रम के अंग हैं। तोड़-फोड़, राष्ट्रीय संपत्ति की आहुति परीक्षा के प्रश्न-पत्र हैं। उचित – अनुचित माँगों पर अधिकारियों और शासकों को झुका लेना उसकी सफलता का प्रमाण है।
आज का विद्यार्थी कल का नागरिक होगा। देश का प्रबुद्ध नागरिक बनने के लिए राजनीति के सिद्धांत और व्यवहार का ज्ञान अनिवार्य है। कारण, ‘राजनीति मानवीय कार्य-व्यापार का विज्ञान है, केवल शासन संबंधी कौशल नहीं।’ (चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य). डॉ. जानसन की धारणा है, ‘Politics are now nothing more than a means of rising in the world.’ अर्थात राजनीति अब विश्व में ऊँचा उठने के साधन से अधिक कुछ नहीं।’ विश्व में स्वयं अपने राष्ट्र की उन्नति के लिए विद्यार्थी को राजनीति का ज्ञान देना चाहिए।
उचित राजनीति के ज्ञान के लिए सर्वप्रथम शिक्षा के क्षेत्र में राजनीतिज्ञों का हस्तक्षेप बंद करना होगा और शिक्षा को शासन के नियंत्रण से मुक्त करना होगा। इसके लिए सार्वभौम और विश्वव्यापी सिद्धांतों का निरूपण करना होगा। आचार्यगण को सार्वभौमिक सत्यों का अनुगमन करना होगा। डॉ. आत्मानंद मिश्र ने स्पष्ट शब्दों में राजनीतिज्ञों को चेतावनी दी है, ‘राजनीतिज्ञों को यह समझाना होगा कि शिक्षा गरीब की लुगाई और सबकी भौजाई नहीं है, जो हर अगुवा और पिछलगुवा उसे छेड़ता रहे। जिसका शिक्षा से नमस्कार नहीं, दुआ-बंदगी नहीं, वह भी उसके संबंध में बिना सोचे-विचारे, बिना आनाकानी किए, बिना आगा-पीछा देखे कुछ भी कह डाले तथा हर ऐरे गैरे नत्थू खैरे को शिक्षा के बारे में कुछ कहने की पूर्ण स्वतंत्रता हो। दलगत और फरेबी राजनीति के अखाड़ेबाजों को यह समझना होगा कि शिक्षक एवं छात्र भ्रष्टाचार, सामंतशाही, आडंबर, विलासिता आदि को समाजवाद की संज्ञा नहीं देंगे और राजनीति के नाम पर समाज विरोधी तत्त्वों द्वारा शिक्षा की छेड़-छाड़ बर्दाश्त नहीं करेंगे।’
इस प्रकार शिक्षा में राजनीति का हस्तक्षेप समाप्त होने पर ही भारत का विद्यार्थी व्यावहारिक राजनीति के दर्शन का पंडित बन पथ-प्रदर्शक, सूत्रधार, क्रांत-दर्शी और समाज का उन्नायक बन सकेगा।