संकेत बिंदु – (1) पहले दर्जे की कायरता (2) आत्महत्या के अनेक कारण (3) उपभोक्ता संस्कृति और निराशा (4) आत्महत्या के 16 प्रमुख कारण (5) आत्महत्या और इच्छा मृत्यु में अंतर।
अपने हाथों अपना वध कर देना आत्म-हत्या या आत्मघात है। दूसरे शब्दों में, अपने प्राण जान-बूझकर अपने हाथों नष्ट करना आत्म हत्या है। मानसिक तनाव में प्रभु इच्छा के विरुद्ध किन्हीं भयंकर कष्टों को न सह सकने पर अत्यधिक ऊँचे पर्वत, या भवन से छलांग लगाकर या गले में फंदा लगाकर मृत्यु को वरण करना आत्म-हत्या है।
आत्म-हत्या का निर्णय मनुष्य सर्वथा असह्य वेदना के क्षण में ही लेता है। मृत्यु का चुनाव वह इसलिए करता है कि क्योंकि उसका अपनी शर्तों पर सुख और शांतिपूर्ण जीवन जीना असंभव हो गया है। वह जीना तो चाहता है, पर उसकी दृष्टि में उसके लिए कोई मार्ग शेष रह नहीं जाता। इसलिए आत्म-हत्या मानवीय कर्म नहीं, बल्कि जीवन की विफलता है। दुःसाहसपूर्ण होने पर पहले दर्जे की कायरता है।
‘आत्म-हत्या के कारण अनेक हो सकते हैं, किंतु प्रमुख कारण है ईश्वर का निषेध। जब मनुष्य ईश्वर से जुड़ा हो तो वह आत्म-हत्या करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। ईश्वर की मृत्यु के बाद मनुष्य इस पूरे ब्रह्माण्ड में अकेला हो गया, दूसरी ओर आधुनिक जीवन-व्यवस्थाओं ने उसे और भी अकेला कर दिया। अतः जिनकी संवेदनशीलता नष्ट नहीं हो पाई, वे सोचने लगे कि जीवन कितनी ऊलजलूल चीज है। यह सवाल सार्थक है या निरर्थक, यह सवाल भी दरअसल, महत्त्वाकांक्षी चित्त से ही पैदा होता है। उसे हर चीज का कुछ न कुछ अर्थ चाहिए। जीवन का उस तरह कोई अर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि यह कोई क्रिया नहीं है, यह तो एक स्थिति है। जब व्यक्ति का चिंतन नकारात्मक हो जाता है तो वह आत्म हत्या करने की बात सोचने लगता है।’
प्रख्यात मनोवैज्ञानिक जुंग ने अपने परीक्षणों में पाया था कि नास्तिकों में आत्म-हत्या की दर सबसे ज्यादा होती है। उसका निष्कर्ष था कि धर्म व्यक्ति को समुदाय के साथ एक निश्चित भावनात्मक रिश्ते में बाँधता है, वह उसे अकेला और निराश होने से रोकता है, जीवन का एक बृहत्तर लक्ष्य उसके सामने प्रस्तुत करता है इसलिए धार्मिक आस्थाओं के व्यक्ति अपेक्षाकृत कम आत्मघात करते हैं।
दूसरी ओर विभिन्न कारणों से जब मानव के लिए जीवन बोझ बनता जा रहा हो और आत्मा अत्यंत निर्बल हो जाए तो हताशा या निराशा की स्थिति व्यक्ति की घेर लेती है। वह अपेक्षाकृत अपने को अधिक अधीर महसूस करता है। मामूली सा भी झटका उसे आत्म-हत्या का मार्ग प्रशस्त करता है।
तीसरी ओर, औद्योगीकरण के साथ-साथ बढ़ती है उपभोक्ता संस्कृति। लालची प्रवृत्ति, गतिशीलता एवं संवेदनशीलता उपभोक्ता संस्कृति की देन है। परिणामतः व्यक्ति को निरंतर मानसिक तनाव में जीना पड़ता है। इसी तनाव के दो ही दुखद परिणाम हैं- (1) दिल का दौरा (2) आत्म हत्या की ओर प्रेरित होना।
विश्व कवि रवींद्रनाथ टैगोर का विचार है कि ‘लोगों के एक-दूसरे के नजदीक रहते हुए भी लगातार मानवीय मूल्यों की अपेक्षा करना आत्म हत्या की निश्चित प्रक्रिया है।’ समाज-शास्त्री महावीर ‘अधिकारी’ का विचार है, ‘हत्या से भी बड़ा अपराध आत्म-हत्या को माना गया है, इसलिए कि इससे हर जीने वाले का जीवन पर से विश्वास उठने लगता है और शायद इसलिए भी कि आत्म-हत्या करने की इच्छा उस मनःस्थिति में पैदा होती है जब आदमी अपने गुनाह के प्रति प्रायश्चित की अग्नि में तपकर जीने के लिए सर्वथा उपयुक्त होकर भी जीवन का अंत करना चाहता है।’
‘एक्सीडेंटल डेथ्स एँड स्यूसाइड्स इन इंडिया 1999 ‘ के अनुसार आत्म-हत्याओं के 16 कारण हैं-
(1) परीक्षा में असफलता (2) ससुराल पक्ष के साथ लड़ाई-झगड़ा (3) पति-पत्नी के बीच तनाव (4) गरीबी (5) प्रेम से संबंधित मामले (6) उन्माद (7) संपत्ति को लेकर विवाद (8) असाध्य रोग (9) बेरोजगारी (10) दीवालियायन अथवा आर्थिक स्थिति में अचानक बदलाव (11) प्रियजन की मृत्यु (12) सामाजिक प्रतिष्ठा में गिरावट (13) दहेज विवाद (14) अवैध गर्भधारण (15) अज्ञात और (16) अन्य कारण।
इसी विवरणिका में आत्म हत्या के लिए अपनाए गए 11 साधनों का भी उल्लेख है। ये हैं-
(1) रेलवे लाइन से कटकर (2) मशीन से कटकर (3) अग्नि, शस्त्र और हथियारों से (4) विष खाकर (5) आग लगाकर (6) पानी में डूबकर (7) फाँसी लगाकर (8) ऊँचे स्थान से कूद कर (9) नींद की गोली खाकर (10) बिजली का तार पकड़कर तथा अन्य साधनों से आत्मघात करना।
इसी विवरणिका के अनुसार आत्म-हत्या की वजहों पर नज़र डाली जाए तो सबसे ज्यादा आत्महत्याएँ (करीब 11.1 प्रतिशत) उन लोगों ने कीं, जो किसी न किसी असाध्य रोग (ड्रेडफुल डीजीज) के शिकार थे। सास-ससुर से झगड़े के चलते 6.9 प्रतिशत लोगों ने आत्महत्याएँ की। 5.8 प्रतिशत आत्महत्याएँ पति-पत्नी विवाद और 4.1 प्रतिशत आत्महत्याएँ प्रेम-संबंधों में आयी दरारों के चलते हुईं। सबसे अधिक लोग जहर खाकर मरे। फाँसी लगाकर, पानी में डूबकर, जलकर और रेल से कटकर मरने वालों की संख्या भी काफी रही।
इच्छा मृत्यु में व्यक्ति जब चाहता है तभी प्राण विसर्जित करता है, किंतु आत्म-हत्या और इच्छा मृत्यु दोनों में अंतर है। ‘आत्मा हत्या’ जीवन की विफलता है और ‘इच्छा मृत्यु’ जीवन की सफलता, प्रसन्नता और उत्सर्ग की सूचक है। प्रभु श्रीराम ने सरयू में जल समाधि लेकर जीवन उत्सर्ग किया। ‘भीष्म’ ने उत्तरायण होने पर ही स्वेच्छा से मृत्यु का आलिंगन किया। विष का प्याला पीकर मीरा कृष्णमय हो गई। राजपूत नारियों ने ‘जौहर’ की चिता में जलकर अपने जीवन को धन्य किया। ‘सती’ होकर अनेक नारियाँ पति का साथ निभाती हैं।
‘आत्म-हत्या’ करके मरने के लिए प्रस्तुत होना, भगवान की अवज्ञा है! जिस प्रकार सुख-दुख उसकी देन हैं, उन्हें मनुष्य झेलता है, उसी प्रकार प्राण भी उसकी धरोहर हैं।