संकेत बिंदु-(1) स्वास्थ्य रक्षा का अर्थ (2) स्वास्थ्य रक्षा का आधार (3) व्यायाम स्वास्थ्य रक्षा का मूल मंत्र (4) पौष्टिक और स्वास्थ्यकर भोजन (5) गहरी और शांत निद्रा।
स्वास्थ्य रक्षा का अर्थ है शरीर की रोग, विकार, आलस्य आदि से रक्षा। मन के उद्वेग, कष्ट या चिंता से रक्षा, स्वास्थ्य रक्षा है। शास्त्रों के अनुसार आध्यात्मिक (मन से उत्पन्न दुख), आधिभौतिक (शारीरिक दुख) तथा आधिदैविक (प्रकृति प्रदत्त दुख) रूपों से जीवात्मा की रक्षा, स्वास्थ्य रक्षा है।
वेदव्यास जी के अनुसार प्रकृति से उत्पन्न तीन गुण (सत्त्व, रज तथा तम) जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं। इनमें सत्त्व गुण (निर्मल होने से प्रकाशवान्) को छोड़कर शेष दो रजो गुण (कामना और आसक्ति) तथा तमो गुण (प्रमाद, आलस्य और निद्रा) से जीवात्मा की रक्षा स्वास्थ्य रक्षा है।
गोस्वामी तुलसीदास के अनुसार दैहिक (शारीरिक), दैविक (प्राकृतिक) तथा भौतिक (सांसारिक) तापों से शरीर की रक्षा स्वास्थ्य-रक्षा है।
स्वास्थ्य-रक्षा का आधार महर्षि चरक ने ‘त्रय उपस्तम्भा आहारः स्वप्नो ब्रह्मचर्यमिति’ बताया है, अर्थात् स्वास्थ्य रूपी घर की स्थिर रखने के लिए उसके तीनों पाए-आहार, स्वप्न (निद्रा) तथा ब्रह्मचर्यं ठीक-ठाक रखने चाहिए। वेन्डेल फिलिप्स का कथन है कि स्वास्थ्य-रक्षा की पृष्ठभूमि है परिश्रम। इसके लिए परिश्रम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं।’
महाकवि कालिदास की एक सूक्ति है- ‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।’ अर्थात् सभी धर्मों (कर्तव्यों) का पहला साधन शरीर है, अतः शरीर का स्वस्थ्य रहना परमावश्यक है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं हो, तो मन स्वस्थ नहीं रह सकता। मन स्वस्थ नहीं, तो विचार स्वस्थ नहीं होते। उर्दू में एक सूक्ति है- ‘तन्दुरुस्ती हजार न्यामत’ अर्थात् स्वास्थ्य हजारों अन्य अच्छे भोगों से बढ़कर है। अंग्रेजी में भी कहावत है ‘Health is wealth’ अर्थात् स्वास्थ्य ही धन है।
स्वास्थ्यहीन व्यक्ति अविवेकी, विचारशून्य, आलसी, अकर्मण्य, हठी, क्रोधी, झगड़ालू अर्थात् दुर्गुणों का भंडार होता है। इसके विपरीत शरीर की स्वस्थता से मुख मंडल दमकता है, शरीर का गठन और अंगों की चारुता चमकती है, चाल में चुस्ती और चंचलता प्रकट होती है। शरीर में आत्मा निवास करती है। आत्मा परमात्मा का स्वरूप है। एक प्रकार से शरीर परमात्मा का पुण्य मंदिर है, जिसे स्वच्छ और शुद्ध रखना मनुष्य का धर्म है। इस धर्म-पालन के साधन हैं-व्यायाम, संतुलित एवं नियमित भोजन, शुद्ध जलवायु का सेवन, संयम-नियमपूर्ण जीवन तथा ब्रह्मचर्य पालन।
व्यायाम स्वास्थ्य-रक्षा का मूल मंत्र है। विद्वानों का कथन भी है- ‘व्यायामात्पुष्टगात्राणि। व्यायाम से गात्र पुष्ट होते हैं, पाचन शक्ति ठीक रहती है, शरीर में ठीक से रक्त संचार होता है, पुट्ठे मजबूत होते हैं, सीना चौड़ा होता है, भुजाओं में बल आता है और इंद्रियाँ शक्ति संपन्न होती हैं। इससे मन में साहस, उत्साह, आत्मविश्वास, निर्भीकता और स्वावलंबन के भाव जाग्रत होते हैं। चेहरे की झुर्रियाँ, शरीर की शिथिलता, मन की उदासी, हवा की निराशा तथा मस्तिष्क की निष्क्रियता दूर होती है। इस प्रकार व्यायाम से शरीर सुंदर बनता है, बुद्धि विकसित होती है और मन पर संयम रहता है।
स्वास्थ्य-रक्षा के लिए व्यायाम नित्य और नियमित रूप से करना चाहिए, पर उतना ही करना चाहिए, जिससे थकावट न जान पड़े। भोजन के पश्चात् व्यायाम नहीं करना चाहिए और न व्यायाम के तुरंत पश्चात् भोजन करना चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त या प्रातः शुद्ध और खुली हवा में व्यायाम करना हितकर है। व्यायाम के पश्चात् रगड़-रगड़ कर स्नान अनिवार्य है।
स्वास्थ्य-रक्षा का दूसरा मूलमंत्र है- पौष्टिक और स्वास्थ्यकर भोजन। भोजन नियत समय पर और भूख लगने पर करना चाहिए। सादा, सुपाच्य, संतुलित और पौष्टिक भोजन अधिक लाभप्रद है। घी, तेल, फल, सब्जी के प्रयोग से भोजन में पौष्टिकता आती है। सड़-गले बासी, अपाच्य भोजन से बचना चाहिए। खटाई मिर्च से दूर करना चाहिए। अपनी शारीरिक प्रकृति और ऋतु के विरुद्ध भोजन नहीं करना चाहिए। जैसे-गर्म भोजन के मध्य ठंडा जल, ताजे फल खाकर जल पीना, दही के साथ मूली और दूध के साथ मछली असंगत हैं। नशीले द्रव्यों से परहेज करना चाहिए, ये स्वास्थ्य भक्षक हैं।
पानी स्वच्छ पीना चाहिए। कई बार नलों में गंदा पानी आ जाता है। उसे उबालकर या फिलटर कर स्वच्छ कर लेना चाहिए। आचार्य चाणक्य ने जल की विशेषता प्रकट करते हुए लिखा है, ‘अजीर्ण होने पर जल औषधि है, पच जाने पर जल बल देता है। भोजन के समय जल अमृत के समान हैं और भोजन के अंत में विष का फल देता है।’
स्वास्थ्य-रक्षा का तीसरा मूलतंत्र है-निद्रा। गहरी और शांत निद्रा स्वास्थ्य की सहचरी है। जो सदाचारी है, निःस्पृह है और संतोष से तृप्त है, उसको समय पर निद्रा आए बिना नहीं रहती। नींद से शरीर की थकावट दूर होती है, मस्तिष्क स्वस्थ होता है, चेतना आती है। महाकवि प्रसाद निद्रा को अत्यंत प्यारी वस्तु मानते हुए लिखते हैं, ‘घोर दुख के समय भी मनुष्य को यही सुख देती है।’ रहस्य की बात यह भी है कि स्वास्थ्य ठीक हो, तो मनुष्य को काँटों पर भी नींद आ जाती हैं, वर्ना फूलों की पंखुड़ियों पर रात करवटें बदलते गुजरती है।
स्वास्थ्य-रक्षा का चौथा मूल मंत्र है-ब्रह्मचर्य। ब्रह्मचर्य का अर्थ है-मन, वचन और काया से समस्त इंद्रियों का संगम। चित की अनुचित वृत्तियों का निरोध अर्थात् इंद्रिय- निग्रह, संयम है। इंद्रियों का संयम स्वास्थ्य-रक्षा की कुंजी है। ब्रह्मचर्य की महिमा का गान करते हुए अथर्ववेद में कहा गया है- ‘ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत।’ अर्थात् ब्रह्मचर्य रूपी तपोबल से ही विद्वान् लोगों ने मृत्यु को जीता है।
दैनिक जीवन में स्वास्थ्य-रक्षा के मूल-मंत्रों को अपनाकर हम इस संसार का उपभोग कर सकते हैं, जीवन में आनंद की गंगा बहा सकते हैं, ‘जीवेम शरदः शतम्’ की कल्पना को साकार कर सकते हैं।