संकेत बिंदु – (1) शिक्षकों के सम्मान का दिन (2) डॉ. राधाकृष्णन का व्यक्तित्व (3) अध्यापक राष्ट्र निर्माता के रूप में (4) अध्यापक दिवस का महत्त्व विद्यालयों में (5) स्वतंत्रता पश्चात् शिक्षा के स्तर में कमी।
शिक्षकों को गरिमा प्रदान करने वाला दिन है ‘शिक्षक दिवस’। शिक्षकों द्वारा किए गए श्रेष्ठ कार्यों का मूल्यांकन कर उन्हें सम्मानित करने का दिन है ‘शिक्षक दिवस’। समाज और राष्ट्र में ‘टीचर’ के गर्व और गौरव की पहचान कराने का दिन है ‘टीचर्स डे।’ छात्र- छात्राओं के प्रति और अधिक उत्साह उमंग से अध्यापन, शिक्षण तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में संघर्ष के लिए उनके अंदर छिपी शक्तियों को जागृत करने का संकल्प – दिवस है ‘अध्यापक-दिवस’। सम्मानित अध्यापक-अध्यापिकाओं के व्यक्तित्व और कृतित्व को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित कर उनकी कीर्ति और यश को गौरवान्वित करने का शुभ दिन है, 5 सितंबर।
इसी प्रकार विभिन्न राज्यों से शिक्षण के प्रति समर्पित अति विशिष्ट शिक्षकों के नाम राज्य सरकारें केंद्र को भेजती हैं। राज्य सरकारों द्वारा प्रस्तावित नामों को मानव संसाधन विकास मंत्रालय का शिक्षा विभाग चुनता है। ऐसे चुने गए शिक्षकों को इस मंत्रालय द्वारा 5 सितंबर को सम्मानित किया जाता है।
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन् प्रख्यात दार्शनिक, शिक्षा शास्त्री, संस्कृतज्ञ और राजनयज्ञ थे। सन् 1962 से 1967 तक वे भारत के राष्ट्रपति भी रहे थे। राष्ट्रपति पद पर आने से पूर्व वे शिक्षा- जगत् से ही संबद्ध थे। प्रेजीडेंसी कॉलिज, मद्रास में उन्होंने दर्शन शास्त्र पढ़ाया। सन् 1921 से 1936 तक कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के ‘किंग जार्ज पंचम’ प्रोफेसर पद को सुशोभित किया। सन् 1936 से 1939 तक आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पूर्वी देशों के धर्म और दर्शन के ‘स्पाल्डिन प्रोफेसर के पद को गौरवान्वित किया। सन् 1939 से 1948 तक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद को गरिमा प्रदान की। राष्ट्रपति बनने के उपरांत जब उनके प्रशंसकों ने उनका जन्मदिवस सार्वजनिक रूप से मनाना चाहा तो उन्होंने जीवनपर्यंत स्वयं शिक्षक रहने के नाते इस दिवस को (5 सितंबर) को शिक्षकों का सम्मान करने के हेतु ‘शिक्षक-दिवस’ के रूप में मनाने का परामर्श दिया। तब से प्रतिवर्ष यह दिन ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
अध्यापक राष्ट्र के निर्माता और राष्ट्र की संस्कृति के संरक्षक हैं। वे शिक्षा द्वारा बालकों के मन में सुसंस्कार डालते हैं तथा उनके अज्ञानान्धकार को दूर कर देश का श्रेष्ठ नागरिक बनाने का दायित्व वहन करते हैं। वे राष्ट्र के बालकों को न केवल साक्षर ही बनाते हैं, बल्कि अपने उपदेश के माध्यम द्वारा उनके ज्ञान का तीसरा नेत्र भी खोलते हैं। वे अपने छात्रों में भला-बुरा, हित-अहित सोचने की शक्ति उत्पन्न करते हैं। राष्ट्र के समग्र विकास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं।
अध्यापक का पर्यायवाची शब्द है ‘गुरु’। द्वयोपनिषद् के अनुसार, ‘गु’ अर्थात् अंधकार और ‘रु’ का अर्थ है ‘निरोधक’। अंधकार का निरोध करने से गुरु कहा जाता है। स्कंदपुराण (गुरु गीता) के अनुसार ‘रु’ का अर्थ है ‘तेज’। अज्ञान का नाश करने वाला तेज रूप ब्रह्म गुरु ही है, इसमें संशय नहीं।
तैतिरीयोपनिषद् में तो आचार्य को देव समान माना है, ‘आचार्य देवो भव। ‘ कबीर ने तो गुरु को परमेश्वर से भी बड़ा माना है-
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दिओ मिलाय॥
प्रश्न उठता है कि अध्यापक-दिवस विद्यालयों के प्रति ही समर्पित क्यों? महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय इसकी सीमा में क्यों नहीं आते जबकि डॉ. राधाकृष्णन्, जिनके जन्मदिन पर यह कार्यक्रम निर्धारित किया गया है, स्वयं महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालयों से संबद्ध रहे हैं?
पहली बात, क्षेत्र की बात छोड़ दें तो डॉ. राधाकृष्णन् मूलतः अध्यापक थे। दूसरे, प्राथमिक से लेकर वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय ही विद्यार्थियों में संस्कारों के निर्माण स्थल हैं। यहाँ जिन संस्कारों के बीज उनमें अंकुरित होंगे, महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय में जाकर वे पल्लवित होंगे।
16 वर्ष की आयु तक अध्ययन करने की शैली, खेल के प्रति रुचि, एन.सी.सी. द्वारा अनुशासन, सभा-मंचों द्वारा वाद-विवाद प्रतियोगिता, संगीत और कला की साधना, स्काउटिंग द्वारा मानवीय भावनाओं की जागृति विद्यालयों में ही सम्भव है। इसी कारण शिक्षक-दिवस पर विद्यालयों के शिक्षकों का ही सम्मान करना उचित है।
स्वतंत्रता के पश्चात् भारत के विद्यालयों की संख्या तो सुरक्षा के मुँह की तरह बढ़ी है, किंतु उनकी पढ़ाई और व्यवस्था का स्तर बहुत गिरा है। राजकीय और राजकीय सहायता प्राप्त विद्यालयों में अध्यापन और अनुशासन का तो और भी बुरा हाल है। सेण्ट्रल बोर्ड ऑफ सेकेण्डरी एजूकेशन दिल्ली का परीक्षा परिणाम इस बात का प्रमाण है। इन परिणामों का आँकड़ा 30-35% तक आ जाना इन स्कूलों की व्यवस्था और अध्यापकों की सक्रियता का दर्पण ही तो है। जब इन स्कूलों के आचार्य और प्राचार्य सम्मानित होते हों तो लगता है राजनीति के विष ने विद्यालयों को विषैला और विद्यार्थी को विद्या की अरथी उठाने पर विवश कर दिया है। व्यक्तित्व विकास के लक्ष्य के अभाव ने विद्यार्थी के आचरण को प्रभावित किया। आजीविका के अभाव ने विद्यार्थी को परजीवी बनाकर असामाजिक कर दिया है।
‘मालविकाग्निमित्रम्’ नाटक में महाकवि कालिदास कहते हैं-
लब्धास्पदोऽस्मीति विवादभीरोस्तितिक्षमाणस्य परेण निन्दाम्।
यस्यागमः केवल जीविकायां तं ज्ञानपण्यं वाणिजं वदन्ति॥
जो अध्यापक नौकरी पा लेने पर शास्त्रार्थ से भागता है, दूसरों के अंगुली उठाने पर भी चुप रह जाता है और केवल पेट पालने के लिए विद्या पढ़ाता है, ऐसा व्यक्ति पंडित नहीं वरन् ज्ञान बेचने वाला बनिया कहलाता है।
चावल या गेहूँ में कंकर देखकर चावलों को फेंका नहीं जाता, गेहूँ को अनुपयोगी नहीं माना जाता। समझदार व्यक्ति कंकर को चुन-चुन कर बाहर करता है और गेहूँ-चावल का सदुपयोग करता है। प्रशासन यदि बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के प्रति समर्पित अध्यापकों को ही सम्मानित करे तो ‘शिक्षक दिवस’ और भी गौरवान्वित होगा। अपने नाम को सार्थक करेगा।