Lets see Essays

Types of Marriages in India भारत में विवाह की विविध पद्धतियाँ और विवाह-संस्कार –

bharteeya vivah ke prakaar

समस्त संस्कारों में विवाह का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अधिकांश गृह्यसूत्रों का आरंभ विवाह-संस्कार से होता है। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में भी वैवाहिक विधि-विधानों की काव्यात्मक अभिव्यक्ति मिलती है। उपनिषदों के युग में भी आश्रम चतुष्टय का सिद्धान्त पूर्णतः प्रतिष्ठित हो चुका था, जिनमें गृहस्थाश्रम की महत्ता सर्वाधिक स्वीकार की जा चुकी थी। गृह्य-सूत्रों, धर्म-सूत्रों एवं स्मृतियों में भी परवर्त्तीकाल में प्रस्तुत संस्कार का पूर्ण परिचय मिलता है। स्वामी दयानन्द ने “गृहाश्रम-संस्कार” का भी विधान किया है; उनके अनुसार ऐहिक और पारलौकिक सुख प्राप्ति के लिए विवाह करके अपने सामर्थ्य अनुसार परोपकार करना और नियत काल में यथाविधि ईश्वरोपासना और गृह कृत्य करना और सत्य धर्म में ही अपना तन, मन धन लगाना तथा धर्मानुसार सन्तानों की उत्पत्ति करना, इसी का नाम गृहाश्रम संस्कार है।” किंतु मेरे विचार से विवाह एवं गृहाश्रम संस्कार को एक ही मान लेना उचित है।

स्वामी दयानन्द ने विद्यारंभ एवं केशांत को मान्यता न देकर वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम के प्रवेश करने पर संस्कार का विधान किया है, अतः हम इन दोनों ही संस्कारों का संक्षिप्त परिचय यहाँ देना अनुपयुक्त नहीं समझते हैं।

वानप्रस्थाश्रम प्रवेश संस्कार –

प्राचीन भारतीय मान्यता के अनुसार यहाँ चार आश्रमों की पूर्ण प्रतिष्ठा थी— ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास। वान- प्रस्थाश्रम का आशय यह है कि मानव अपनी गृहस्थाश्रम के लिए निर्धारित आयु को पूर्ण करके अर्थात् पचास वर्ष की आयु होने पर अथवा प्रपौत्र के हो जाने पर गृहस्था- श्रम का त्याग कर अरण्य निवास करे अथवा भावी जीवन के निर्माण के लिए संयम- पूर्वक साधना करे। यही नहीं, प्राचीन मान्यता के अनुरूप मुक्ति प्राप्ति के लिए ईश्वरार्चन भी करे। जैसा कि लिखा भी है—

“ब्रह्मचर्याश्रम समाप्य गृहीभवेत् गृही भूत्वा वनी भवेत् बनी भूत्वा प्रवृजेत्” इसी श्लोक में संन्यासाश्रम का भी उल्लेख है, जिसमें वानप्रस्थाश्रम के उपरान्त संन्यास लेने का विधान है। संन्यासाश्रम में दीक्षित होने पर मानव मोह आदि का परि- लाग कर पक्षपात रहित विरक्त हो समस्त जन-जीवन के परोपकारार्थं विचरण करे। अन्त्येष्टि संस्कार — हिंदू के जीवन का अन्तिम संस्कार अन्त्येष्टि है, जिसके साथ वह अपने ऐहिक जीवन का अन्तिम अध्याय समाप्त करता है। भारतीय पुन- जन्मवाद में आस्था रखकर एक भारतीय इस संस्कार को करता है क्योंकि परलोक में सुख एवं कल्याण की प्राप्ति के लिए यह संस्कार आवश्यक माना गया है। बोधायन पितृमेध सूत्र में कहा गया है कि – “जात संस्कारेणेमं लोकमभिजयतिमृत्संस्कारेणामुं लोकम्” अर्थात् जन्मोत्तर संस्कारों के द्वारा व्यक्ति इस लोक को जीतता है और मरणोत्तर संस्कारों द्वारा उस लोक को। अन्त्येष्टि-क्रियाओं में व्यवहृत ऋचाएँ ॠग्वेद तथा अथर्ववेद में उपलब्ध होती हैं। इसका विधान कृष्ण यजुर्वेद के तैत्तिरी- यारण्यक के षष्ठ अध्याय में प्राप्त होता है। परवर्ती कतिपय गृह्य सूत्रों में अन्त्येष्टि संस्कार से सम्बद्ध विधि-विधानों का बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है। इस संस्कार के करने से कुछ विशेष लाभ भी है। इस संस्कार के करने से एक तो संक्रामक रोग एवं कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। दूसरी बात यह भी है कि इस संस्कार से मृतक तथा जीवित के प्रति गृहस्थ के कर्त्तव्यों में सामञ्जस्य स्थापित होता है। यह पारिवारिक और सामाजिक स्वास्थ्य विज्ञान का एक विस्मयजनक समन्वय तथा जीवित सम्बन्धियों को सांत्वना प्रदान करना भी इसका एक लक्ष्य था।

आज बच्चों के निर्माण के लिए न जाने कितने साधनों का प्रयोग किया जा रहा है, न जाने कितनी संस्थाएँ केवल बच्चों के निर्माण के लिए कार्य कर रही हैं। प्राचीन भारत में इन सभी का अभाव था, किंतु मानव आज से अधिक सभ्य एवं शिष्ट तथा बल संपन्न था। इसका एकमात्र कारण संस्कारों का क्रियान्वयीकरण ही था। संस्कार व्यवहार में मानव-जीवन के निर्माण व विकास की क्रमबद्ध योजना है। ए संस्कार जीवन के परिष्कार एवं व्यक्तित्व के विकास में भी अपना योगदान करते हैं। समस्त भौतिक एवं आध्यात्मिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए सफल पथ प्रस्तुत करते हैं। संस्कार शिक्षा दान का एक वैज्ञानिक प्रयोग है, महाभारत के प्रमुख पात्र अभिमन्यु ने माँ के पेट में ही चक्रव्यूह की रचना तथा उसका ज्ञान प्राप्त कर लिया था। वैवाहिक नियम समाज में पारिवारिक जीवन को सुखद बनाने के साथ ही सामाजिक कुरीतियों के निवारण में योग देते हैं। वानप्रस्थ एवं संन्यासाश्रम राष्ट्र के सर्वाङ्गपूर्ण अभ्युदय एवं शिक्षा के लिए आवश्यक है। निष्कर्ष यह है कि मानव निर्माण एवं सर्वाङ्गीण विकास में संस्कार महत्वपूर्ण योगदान करते हैं। निश्चय ही ए संस्कार मनुष्य को वास्तविक अर्थों में मानव बनाने का कार्य करते हैं।

विवाह पद्धतियाँ

वैदिक संस्कारों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान विवाह संस्कार का है। आज के जीवन में भी इस संस्कार की महत्ता अक्षुण्ण है। आज के विवाह संस्कार की पूर्णतः रूपरेखा पाणिग्रहण, अग्नि परिक्रमा, सप्तपदी, लाजाहोम आदि समस्त वैवाहिक पद्धति वही है, जो सैकड़ों वर्ष पूर्व थी, आज भी जीवन की इस मधुर बेला के आरंभ में वर कहता है कि ‘मैं सौभाग्य की समृद्धि के लिए तेरा हाथ पकड़ता हूँ, जिससे हम पूर्ण आयु को प्राप्त हों, भग, अर्यमा और दान- शील सविता देव आदि ने प्रसाद रूप में गृहस्थ धर्म के पालन के लिए तुम्हें मुझे प्रदान किया है। ‘

विवाह-संस्कार के ऊपर विचार करते हुए श्री राय ‘Vedic Index’ में लिखते हैं—“विवाह-संस्कार के लिए ऐसे सुविस्तृत समारोहों का आयोजन किया जाता था, जिनका स्वरूप और संस्कार दोनों ही इण्डो-जर्मनिक तथा अइण्डो-जर्मनिक जाति के लोगों के प्रचलन के ही समान और उनका अभीष्ट भी वैवाहिक संबंध में स्थायित्व तथा प्रभावोत्पादकता लाना होता था समारोह का आरंभ वधू के घर से होता था, जहाँ अपने मित्रों और सम्बन्धियों सहित वर का आगमन और वहीं वधू के मित्रों तथा सम्बन्धियों से भी उसका परिचय होता था। अतिथियों के मनोरंज- नार्थ एक अथवा अनेक गायों का वध किया जाता था। वधू को एक पत्थर के ऊपर खड़ा कराकर औपचारिक रूप से वर उसका हाथ अपने हाथों में लेता था और उसके साथ घर की अग्नि के चतुर्दिक परिक्रमा करता था इस कृत्य के पश्चात् विवाह संपन्न हुआ मान लिया जाता था। इसी के पश्चात् पति को ‘हस्तग्राभ’ (जो हाथ पकड़ता है) भी कहा जाता था। विवाह-संस्कार के समाप्त हो जाने पर वह अपनी वधू को एक गाड़ी में बैठाकर वैवाहिक जलूस (बरात) के साथ अपने घर ले जाता था।” विवाह-संस्कार का पूर्ण विवरण हमें गृह्य-सूत्रों में उपलब्ध होता है, ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में भी वैवाहिक विधि-विधानों को काव्यमय अभिव्यक्ति प्राप्त हो चुकी थी। उपनिषदों के युग में आश्रम व्यवस्था की प्रतिष्ठा हो चुकी थी जिसमें अन्याश्रमों के साथ गृहस्थाश्रम की महत्ता सर्वाधिक थी और इस गृहस्थाश्रम की आधार-शिला विवाह-संस्कार ही था। विवाह-संस्कार जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण प्रश्न था, क्योंकि इसी संस्कार के अवसर पर वर-वधू अपने नवीन जीवन के महान् उत्तर- दायित्व को उठाने की प्रतिज्ञा करते हैं। विवाह-संस्कार के अवसर पर होने वाली सप्तपदी नामक पद्धति में वर वधू से कहता है कि प्रिए ! हमारे वैवाहिक जीवन के लक्ष्य होंगे- (1) अन्नादि आवश्यक सामग्री, (2) बल, (3) आर्थिक सम्पत्ति, (4) सुख और मनः प्रसाद, (5) सन्तान पालन, (6) दीर्घायुष्य, (7) परस्पर प्रेम। यहीं नहीं आगे भी परस्पर एक-दूसरे से कहते हैं कि “तुम्हारा हृदय मेरे व्रत के अनुकूल हो, तुम्हारा चित्त मेरे चित्त के अनुकूल हो, मेरे कथन को प्रेमपूर्वक एक मन होकर सुने। भगवान् प्रजापति तुमको मुझमें अनुरक्त करें।’ वे परस्पर यह भी प्रतिज्ञा करते हैं कि ‘यह जो तुम्हारा हृदय है, वह मेरा हृदय हो जाय। यह जो मेरा हृदय है वह तुम्हारा हृदय हो जाय।

वस्तुतः विवाह-संस्कार गृहस्थ जीवन का सफलता के लिए आवश्यक तत्त्व है। डॉ. मंगलदेव ने विवाह-संस्कार का मूल्यांकन करते हुए लिखा है कि-

“विवाह विषयोपभोग के असंयत जीवन की आरंभ नहीं है। वह तो, वास्तव में, गृहस्थ जीवन के पूर्ण उत्तरदायित्व को समझने वाले दम्पत्ति के लिए, जीवन- संघर्ष में और राष्ट्र की सेवा में प्रवृत्त और प्रविष्ट होने का एक महान् प्रतीक है।”“ वैदिक भारत में विवाह-संस्कार इसलिए भी अनिवार्य हो जाता है क्योंकि पत्नी के बिना कोई व्यक्ति यज्ञ नहीं कर सकता था। यह भारतीय धार्मिक जीवन – “अयज्ञियो वा का अनिवार्य तत्त्व है। यज्ञ के बिना वह “अयज्ञिय” कहा जाता था—’ एष योऽपत्नीक” एकाकी पुरुष सर्वथा अपूर्ण है क्योंकि पत्नी उसका अर्द्धभाग है। मनु ने भी आयु का द्वितीय भाग गृहस्थाश्रम में व्यतीत करने के लिए माना। याज्ञवल्क्य स्मृति में तैत्तिरीय ब्राह्मण के ऊपर के वचन का समर्थन इस प्रकार किया गया है— अपत्नीको नरो भूय कर्मभ्यो न जायते ब्राह्मणः क्षत्रियो वापि वंश्य शूद्रोपि वा नरः। कोई भी अपत्नीक व्यक्ति चाहे वह ब्राह्मण हो या क्षत्रिय या वैश्य अथवा शूद्र, धार्मिक क्रियाओं का अधिकारी नहीं हो सकता। आशय यही है कि जब जीवन की सर्वाङ्गीण क्रियाओं में नारी का महत्त्व अनिवार्य है तो फिर विवाह-संस्कार के महत्त्व के संबंध में कहना ही क्या?

विवाह की संख्या

विभिन्न स्मृतियों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख मिलता है, जिनके नाम क्रमश: (1) ब्रह्म, (2) देव, (3) आर्ष, (4) प्रजापत्य, (5) आसुर, (6) गान्धर्व, (7) राक्षस तथा (8) पैशाच हैं। आश्वलायन गृह्य-सूत्र में भी इनका विधान उपलब्ध होता था। इन आठ प्रकार के विवाहों में प्रथम चार प्रकार के प्रशस्त माने जाते हैं, शेष अप्रशस्त।

पैशाच –

सबसे अधिक अप्रशस्त विवाह का प्रकार पैशाच था, इसके अनुसार नर छल-कपट के द्वारा कन्या पर अधिकार प्राप्त कर लेता था। दूसरे शब्दों में अचेतन, · सुप्त या मत्त कन्या के साथ मैथुन करना पैशाच विवाह है। एकान्त में एकांकी, सुप्त अथवा मत्त कन्या के साथ मैथुन करना ही पैशाच विवाह का प्रकार है। संभव तो यह भी है कि पश्चिमोत्तर भारत की पिशाच जाति में इसका प्रचलन रहा होगा; वहीं से यह नामकरण हुआ है।

राक्षस –

मनु के कथनानुसार रोती-पीटती कन्या को उसके संबंधियों को मारपीटकर बलात् अपहरण कर लेना राक्षस विवाह कहलाता था। यह पद्धति प्राचीन युद्धप्रिय जनों में प्रचलित थी। मनु के अनुसार क्षत्रियों के लिए राक्षस विवाह अनुचित नहीं है। महाभारत में भीष्म ने भी इसे क्षत्रियों के लिए प्रशस्त माना है। याज्ञवल्क्य आदि इस विवाह पद्धति को युद्ध से उत्पन्न हुआ मानते हैं. “युद्ध हरणेन राक्षसः राक्षसो युद्ध हरणादिति।”

गान्धर्व –

विवाह का यह तीसरा प्रकार था। आश्वलायन गृह्य-सूत्र के अनुसार जिसमें पुरुष एवं स्त्री परस्पर निश्चय कर एक-दूसरे के साथ गमन करते हैं, वह गान्धर्व विवाह कहा जाता है। हारीत और गौतम के मत में जिसमें कन्या अपने पति का चुनाव करती है, वह गान्धर्व विवाह कहलाता है। मनु के अनुसार कन्या एवं पुरुष कामुकता वश जो स्वेच्छा से संभोग करते हैं वह गान्धर्व विवाह कहलाता है।” यह विवाह प्राचीनतम विवाह प्रकारों में से एक है। अथर्ववेद में एक स्थल पर गन्धर्व पतियों का उल्लेख मिलता है। हिमालय के निकट भू-भाग में अधिक प्रचलित होने से इसकी गान्धर्व · नाम से प्रसिद्धि हुई है। महाभारत में इस विवाह के प्रकार की प्रशंसा की गई है, क्योंकि इसके मूल में दो व्यक्तियों का पारस्परिक प्रेम होता “सकामायाः सकासेन निमंन्त्रः श्रेष्ठ उच्यते।” किंतु धार्मिक दृष्टिकोण इस विवाह को अच्छा नहीं मानता है।

आसुर –

आश्वलायन गृह-सूत्र विवाह के इस प्रकार को गान्धर्व से अच्छा मानता है। मनु के कथनानुसार जिस विवाह में पुरुष कन्या के माता-पिता को यथा- शक्ति धन देकर कन्या को प्राप्त कर लेता है, विवाह का वह प्रकार आसुर है। विवाह के इस प्रकार में धन ही प्रधान निर्णायक माध्यम होता है। वैसे तो यह सौदे – बाजी ही थी जिसमें धन लेकर कन्या बेच दी जाती थी। कुछ धर्म शास्त्रकार इसे “मानुष” अभिधान प्रदान करते हैं।

प्राजापत्य

आश्वलायन गृह्य-सूत्र के अनुसार जिस विवाह में पति-पत्नी को समान धर्म के आचरण का उपदेश दिया जाता था, वह प्राजापत्य विवाह का प्रकार था। “ सहधर्म चरत इति प्राजापत्य”। इस विवाह में पिता अपनी कन्या का पाणि- ग्रहण संस्कार योग्य वर साथ कर देता था, जिससे दोनों ही अपने नागरिक एवं धार्मिक कर्तव्यों को साथ-साथ पालन करें। प्राजापत्य नाम स्वयं इस बात का सूचक है कि नवदम्पति प्रजापति के प्रति अपना ऋण चुकाने अर्थात् सन्तान उत्पत्ति, उसका पालन-पोषण करने के लिए ही विवाह कर रहे हैं।

आर्ष-

यह विवाह पूर्वोक्त सभी से श्रेष्ठ है। इसमें कन्या का पिता वर से यज्ञादि विहित कार्य करने के लिए एक अथवा दो गो मिथुन प्राप्त करता था। गो मिथुन ग्रहण करना कन्या का मूल्य नहीं था। भारतीय समस्त धर्म-ग्रंथों के अनु- सार जब कोई युवक कन्या के पिता को एक गो मिथुन प्रदान कर उससे विवाह करता है तो वह ‘आर्ष’ कहलाता है। इस विवाह को ‘आर्ष’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह ऋषि परंपरा में प्रचलित था। डा0 अविनाशचंद्र ने लिखा है— ‘“जब उसके विस्तृत ज्ञान तथा आध्यात्मिक योग्यता के कारण किसी ऋषि के साथ किसी कन्या का विवाह किया जाता था तो विवाह का वह प्रकार ‘आर्ष’ कहलाता था।”

देव

आश्वलायन गृह्य-सूत्र के अनुसार “ ऋत्विजे वितते कर्मणि दद्यादलं कृत्य स दव’ इस विवाह के प्रकार में पिता कन्या को अलंकृत करके आरब्ध यज्ञ में पुरोहित को दे देता था। यह दान देवयज्ञ के अवसर पर किया जाता था, अतः इस विवाह का नाम ‘दैव’ था। बोधायन गृह्य-सूत्र के अनुसार कन्या दक्षिणा के रूप में दी जाती थी- “दक्षिणासु दीयमानास्वन्तर्वेदि यत्तृत्विजे स देवः “ इसलिए इसे ‘दैव’ संज्ञा प्रदान की गई है। मनु के अनुसार यज्ञ में बड़े-बड़े विद्वानों का वरण कर उसमें कर्म करने वाले विद्वान को वस्त्र आभूषण आदि से कन्या को सुशोभित करके देना, वह दैव विवाह है।

ब्राह्म –

आश्वलायन गृह्य-सूत्र, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति तथा वशिष्ठस्मृति के अनुसार ब्राह्म विवाह, विवाह का सर्वश्रेष्ठ प्रकार था। यह ब्राह्मणों के योग्य था अतः इसे ‘ब्राह्म’ नामक संज्ञा दी गई है। इस विवाह में पिता सर्वगुण संपन्न वर को स्वयं आमन्त्रित कर उसका विधिवत् संस्कार कर दक्षिणा के साथ यथाशक्ति वस्त्राभूषणों से अलंकृत कन्या का दान करता था। यह प्रकार आज भी प्रचलित है तथा इसका आभास हमें ऋग्वेदीय – सोम सूर्या के विवाह में भी मिल जाता है।

इन विवाहों के अतिरिक्त एक-दो विवाह के प्रकार और भी प्रचलित हैं किंतु वे विशेष रूप से उल्लेखनीय नहीं हैं। सेनार्ट ने “वैदिक इण्डेक्स” में लिखा है कि- “आर्य लोग विवाह के विषय में सर्वण तथा असगोत्र विवाह दोनों नियमों का अनुसरण करते थे।” वैदिक ग्रंथों के पर्यालोचन से तथा विवाह के इन प्रकारों को पढ़कर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उस काल में में वर-वधू अत्यंत प्रौढ़ होते थे, अतः समय- समय पर वर-वधू स्वेच्छ्या भी विवाह कर लिया करते थे।

Leave a Comment

You cannot copy content of this page