संकेत बिंदु – (1) शिक्षित हताश व निराश (2) बेकारी राष्ट्र के माथे पर कलंक (3) दोषपूर्ण सरकारी व्यवस्था (4) सरकारी योजनाएँ कारगर नहीं (5) उपसंहार।
कितनी आकांक्षा लेकर अपने जीवन के प्रत्येक स्वप्न को साकार करने के लिए, अपने जीवन को उभारने, निखारने और सँवारने के लिए, मन में भविष्य को उज्ज्वल बनाने की अनेक योजनाओं को सँजोय जब देश का एक युवा कॉलेज से डिग्री प्राप्त करता है तो पता नही मन में जीवन के प्रति कितने रंगीन सपने, प्यारे से अरमान होते हैं। इंजीनियर, डॉक्टर, वैज्ञानिक, प्रक्तता, वक्ता, अधिवक्ता आदि अनेक विषयों की डिग्रियाँ हाथ में लिए नवयुवक अपने जीवन की नवीन प्रभात को निहारते हुए विद्यालय को छोड़कर जब अपने वास्तिवक जीवन में प्रवेश करते हैं तो स्थितियाँ देखकर आज का युवा हतप्रभ सा रह जाता है।
जीवन की नए सिरे से प्रारंभ करने के लिए अपने हाथ में डिग्री लेकर जब युवा जीविका के क्षेत्र में प्रयास करता है तो लगभग निराशा ही हाथ लगती है। क्योंकि एक ओर बेकारी अपना मुँह फैलाये खड़ी है और दूसरी ओर भ्रष्टाचार का कद काफी ऊँचा होने लगता है, तब इन बेकारी और भ्रष्टाचार के इन पत्रों में डिग्रीधारी युवक फँस जाता है। ‘इधर कुआँ-इधर खाई’ की कहावत ही सामने खड़ी दिखाई देती है।
1947 में देश स्वतंत्र हुआ, तब से अब तक देश ने प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति की है, मगर नौकरियाँ देने के मामले में देश पिछड़ गया है। उच्च शिक्षा प्राप्त युवा वर्ग नौकरी के लिए भटकता है और नौकरी है कि वह हनुमान की पूँछ की भाँति हाथ में आने से घबराती-सी लगती है। वैसे हमारे देश में केवल उन्नति और प्रगति के नाम पर भ्रष्टाचार, घोटाले, अनेक कांडों को तो अवसर अधिक प्राप्त हुआ है मगर जीविका उपार्जन के साधन प्रायः गौण हो होते चले गए हैं। युवा वर्ग के हाथ में उच्चशिक्षा की डिग्री तो है मंगर हाथ में काम नहीं है, कैसी विडंबना है कि एक बालक ने अपना पेट काटकर शिक्षा प्राप्त की, डिग्री प्राप्त की और जब जीवन के व्यावहारिक क्षेत्र में जीविका की तलाश में निकला तो हाथ में निराशा ही लगी? यह हमारे देश की व्यवस्था का दोष है कि देश की सरकार ने अभी तक उच्च शिक्षा प्राप्त छात्र वर्ग के लिए नौकरियों का प्रबंध नहीं किया। बेकारी की समस्या आज देश के माथे पर एक कलंक के समान है। बेरोजगारी देश की आर्थिक व सामाजिक दशा की अवनति का प्रतीक है, क्योंकि बेकारी देश में अराजकता बढ़ाती है और बेरोजगारी देश, समाज और व्यक्ति के लिए घातक है। एक अर्थशास्त्री ने इस संबंध में अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है, “नौकरी लगी तो डिग्री, डिग्री कहलाती है नहीं तो हाथ में पकड़ी डिग्री, बिगड़ी बन जाती है।”
यदि देश के अपराध के ग्राफ पर ध्यान दें तो पिछले कई दशकों से अपराध के क्षेत्र में शिक्षित व्यक्तियों का प्रवेश देश की व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लगाता है। देश में बढ़ रहे अपराधों में लूट, डकैती, मारपीट, हत्या, अपहरण, बलात्कार जैसे घिनौने कृत्यों में डिग्रीधारी युवकों का प्रतिशत भी कम नहीं है। शिक्षित डिग्रीधारी युवक अगर अपराध की दुनिया में प्रवेश करता है तो इसमें दोष हमारी सरकार और सरकारी व्यवस्था का है।
नौकरी पाने के क्षेत्र में आज हर कुर्सी की कीमत निर्धारित हो गई है, पुलिस के सिपाही की नौकरी की कीमत दस लाख रुपये तक माँगी जाती है, यही हाल सेना में नौकरी का है। कोई भी सरकारी कार्यालय चाहे राज्य सरकार पर हो या भारत सरकार का, किसी भी कार्यालय में नौकरी नीलाम होती है। देश के नेता जब स्वयं भ्रष्ट हैं तो वह अफसरों की भ्रष्टता पर अंकुश क्यों लगाने लगे? नौकरी के क्षेत्र में चाहे इंजीनियर हो या डॉक्टर, वैज्ञानिक हो या अध्यापक, जब लाखों रुपये रिश्वत में कुर्सी नीलाम होती है तो योग्य व्यक्ति नौकरी पाने के लिए पिछड़ जाता है और पैसे के बल पर अयोग्य उस कुर्सी को खरीद लेता है। यही कारण है कि आज के इस समय में लाखों डिग्रीधारी युवक बेरोजगारी की मार झेल रहे हैं, फिर ‘मरता क्या न करता’ वाली कहावत चरितार्थ होती है तथा अपराध को बढ़ावा मिलता है।
विडंबना यह है कि सरकार सांसदों और विधायकों का (जो अधिकांश अँगूठा छाप होते हैं) पेट भरने के लिए उनके वेतन में वृद्धि साथ अनेक सुविधाएँ देने के कानून तो बनाती है मगर आजादी के साठ वर्षों में किसी भी सरकार ने उच्चशिक्षा प्राप्त डिग्रीधारी युवकों के लिए आज तक जीविका उपार्जन की कोई योजना नहीं बनायी। अगर सरकार के पास कोई योजना नहीं है तो सरकार को चाहिए कि उच्चशिक्षा के सभी संस्थान बंद करा दें, इससे न उच्चशिक्षा के संस्थान होंगे और युवकों का डिग्रियाँ मिलेंगी फिर न समस्या होगी और न ही कोई समाधान ही खोजना पड़ेगा।
सरकारी स्तर पर स्वरोजगार की घोषणाएँ होती हैं, साथ ही यह भी स्वप्न दिखाया जाता है कि पढ़े लिखे व्यक्तियों को सरकार ऋण देती है। मगर वास्तविकता तो यह है कि ऋण भी केवल नेताओं और मंत्रियों के निकटवर्ती लोगों को ही मिलता है। ऋण के आँकड़े उठाकर यदि देखे जाएँ तो बिना मंत्री या नेता की सिफारिश के शायद एक प्रतिशत शिक्षित डिग्राधारी को ऋण नहीं मिला होगा।
समाज के अर्थ शास्त्रियों, समाज शास्त्रियों को इस विषय में पहल करने की आवश्यकता है, सरकार पर दबाव बनाया जाए और ऐसा प्रावधान या प्रारूप तैयार कराया जाए जिससे उच्चशिक्षा प्राप्त डिग्रीधारी को या तो सरकार नौकरी दे, या उसके अपनी जीविका चलाने के लिए बिना किसी नेता या मंत्री की सिफारिश के ऋण उपलब्ध कराया जाए, तभी देश का भविष्य सुरक्षित रह सकता है और उच्चशिक्षा प्राप्त व्यक्ति अपनी जीविका चलाने में सक्षम हो सकता है। जब तक सरकार इस विषय में गंभीरता से नहीं सोचती। तब तक इस समस्या का कोई समाधान नहीं खोजा जाता, जब तक यह बेकारी और बेरोजगारी की समस्या का धुन सारे राष्ट्र को खोखला कर देता। समय रहते इस समस्या का समाधान आना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है।