स्वाधीनता प्राप्ति से पहले हमारे देश की तीन बड़ी राजनैतिक समस्याएँ थीं। पहली और सबसे बड़ी समस्या यह थी कि हमारा देश पराधीन था। देश को स्वाधीन करना आसान काम नहीं था। हमें अंग्रेजों के शक्तिशाली प्रबल शासन का मुकाबला करना था। महात्मा गांधी के योग्य नेतृत्व में देशभक्तों के बलिदान और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के कारण हम स्वाधीन हुए और हमारी अत्यंत महत्त्वपूर्ण राजनैतिक समस्या का समाधान हो गया। दूसरी राजनैतिक समस्या यह थी कि हमारा देश 600 खंडों में बँटा हुआ था। इन छह सौ रियासतों को एक सूत्र में पिरो देना अर्थात् सब रियासतों की स्वाधीनता छीनकर उन सब को एक संघ में विलीन करने का अत्यंत कठिन कार्य महामति सरदार पटेल ने अत्यंत कुशलता के साथ बिना एक बूँद खून बहाe संपन्न कर लिया। यह दूसरी महत्त्वपूर्ण राजनैतिक समस्या का समाधान था। स्वतंत्रता प्राप्ति के ठीक बाद ही हमारे सामने तीसरी समस्या यह आई कि देश का संविधान कैसा बनाया जाए? इस दिशा में पहले भी अनेक प्रयत्न हुए थे, किंतु देश के स्वाधीन होने के पश्चात् तो इस समस्या को बहुत जल्दी हल करना जरूरी हो गया। भारत के नेताओं, विचारकों और विधानविदों के अथक परिश्रम और लगन से यह काम पूर्ण हो गया और 26 जनवरी 1950 के शुभ दिवस पर देश का महान् संविधान लागू हो गया। इस संविधान में एक साथ अमरीका और इंगलैंड के संविधानों की विशेषताओं का समन्वय किया गया था। नागरिकों के पूर्ण अधिकार, समाजवाद और गांधीवाद आदि के सामंजस्य का प्रयत्न किया गया था। गरीब-अमीर, ब्राह्मण और दलित, अशिक्षित या शिक्षित, पुरुष या स्त्री सबको एक समान राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक और नागरिक अधिकार देकर 17 करोड़ लोगों को मतदाता बना दिया। कल्पना तो कीजिए कि भारत के 17 करोड़ मतदाता कितनी बड़ी संख्या है! इसकी महत्ता का अनुमान इसी से लग सकता है कि यह संख्या उस समय अमरीका की कुल जनसंख्या के बराबर है। इतने महान देश का संविधान बनाना सरल समस्या नहीं थी। परंतु योग्य नेतृत्व के कारण यह काम भी संपन्न हो
गया।
किंतु इन तीन मुख्य समस्याओं के समाधान का यह अर्थ नहीं है कि देश के सामने अब कोई नई समस्या नहीं है। प्रत्येक देश में समय-समय पर नई से- नई समस्याएँ पैदा होती हैं। इन दिनों जो राजनैतिक समस्याएँ देश के सामने आई और आ रही हैं, उनमें में मुख्य तीन समस्याएँ हैं—
(1) राज्यों का भाषा के आधार पर पुनर्गठन;
(2) विदेशी राजनीति और
(3) शासनसूत्र हाथ में लेने के लिए राजनैतिक दलों में संघर्ष।
किंतु इन पंक्तियों में हम केवल प्रथम समस्या पर विचार करेंगे।
आज से बहुत वर्ष पूर्व जब विदेशी शासक एक के बाद एक भाग पर अधिकार कर रहे थे, तब प्रांतों का विभाजन किसी विशेष भौगोलिक आधार पर नहीं किया गया था। जैसा उस समय के शासकों को सूझा वे प्रांतों की सीमा का निर्धारण करते गए। राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस चीज का विरोध किया और वैज्ञानिक आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन की माँग की। स्वाधीनता मिलने के पश्चात् अभी देश पूर्णतः संगठित नहीं हो पाया था और राष्ट्र निर्माण के पथ पर चल भी नहीं पाया था कि अनेक प्रांतों में भाषा के आधार पर प्रांत- विभाजन की माँग की जाने लगी। अनेक स्थानों पर यह आंदोलन बहुत उग्र हो गया। इस आंदोलन के नेता अपनी पुण्य भूमि, मातृभूमि और भारत के अखंड-स्वरूप को भूलकर संकुचित प्रादेशिकता के प्रवाह में बह गए। जिस तरह सांप्रदायिकता और वर्ग संघर्ष ने राष्ट्रीयता की भावना को धक्का पहुँचाया है, उसी तरह भाषा के, जिन्हें प्रान्तीय बोली कहना ठीक होगा, आधार पर भी हम अखिल राष्ट्रीयता को भूल गए। अनेक राज्यों में अपनी भाषा व बोली के आधार पर एक दूसरे के राज्य के जिलों को हथियाने का आंदोलन चल पड़ा। इस आंदोलन में हिंसात्मक प्रदर्शन भी हुए। भारत सरकार ने इस ग्रान्दोलन से विवश होकर एक कमीशन नियुक्त किया। उसने जो सिफारिशें पेश कीं, भाषावादियों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया और उनका संघर्ष जारी रहा। महाराष्ट्र में संयुक्त महाराष्ट्र बनाने की माँग ने जोर पकड़ लिया और बंबई हिंसात्मक प्रदर्शन हुए। बंगाल और बिहार की सीमा के प्रश्न पर दोनों राज्यों में काफी मन-मुटाव हो गया। पंजाब में पंजाबी सूबे के नाम पर झगड़ा बहुत बढ़ गया।
दुख की बात यह थी कि इन क्षुद्रता पूर्ण परस्पर संघर्षो में कांग्रेसी भी बहुत उत्साह से शामिल होते रहे और उनकी वजह से देश की अखंडता और शांति खतरे में पड़ गई। हमारी नम्र परंतु सुनिश्चित सम्मति है कि भाषा के आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन का नारा उसी तरह राष्ट्रघाती था जिस तरह संप्रदाय व वर्ग के नाम पर किए गए संघर्ष। जब संविधान में प्रत्येक नागरिक को उसकी भाषा और संस्कृति की रक्षा का आश्वासन दे दिया गया; तब इस प्रकार के आंदोलन का कोई अर्थ नहीं रह जाता। बंबई में यदि गुजराती और मराठी अबतक एक साथ रहे हैं तो कोई कारण नहीं कि आगे भी एक साथ क्यों न रह सकें। यदि कोई जिला बिहार के पास है तो वहाँ के बंगालियों को किसी खतरे का सामना करना पड़ेगा, यह कैसे माना जा सकता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ नेता अपने-अपने भौतिक स्वार्थी के लिए भाषा का नारा लगाकर लोगों को भड़काते रहे। भारत के नेताओं और शासकों के सामने यह सबसे बड़ी समस्या थी। हमारी निश्चित सम्मति है कि देश की सब भाषाओं की लिपि यदि नागरी कर दी जाए और राष्ट्रभाषा हिंदी का पढ़ना अनिवार्य कर दिया जाए तो भाषा के आधार पर पारस्परिक संघर्ष की भावना बहुत कम हो जाएगी। जो हो, आज यह समस्या विकट रूप से सामने है। श्री राजगोपालाचार्य ने यह सुझाव दिया कि अभी कुछ वर्षों तक पुनर्गठन की यह योजना स्थगित कर देनी चाहिए ताकि लोगों का जोश कुछ ठंडा हो सके। राजाजी का यह सुझाव बहुत दूरदर्शितापूर्ण था।
पुनर्गठन की रूपरेखा
राज्य पुनर्गठन प्रयोग ने जो सिफारिशें की उन पर देश के अनेक भागों में बहुत जोर का आंदोलन छिड़ गया। उनमें से अनेक सिफारिशें आश्चर्यजनक थीं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन सिफारिशों पर विचार-विनिमय के बाद आवश्यक परिवर्तन करने का विचार प्रकट किया। फिर क्या था, प्रायः प्रत्येक राज्य से उन सिफारिशों के विरुद्ध संशोधन पर संशोधन आने लगे। बंबई व पंजाब में भूकम्प-सा आने लगा। सरकार ने सब दृष्टियों का समन्वय करने के लिए पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों में कुछ परिवर्तन किए। सरकार ने पुनर्गठन के लिए एक विधेयक संसद में पेश किया और निश्चय हुआ कि-
(1) असम, बिहार व बंगाल की सीमाओं में थोड़े से हेर-फेर किए जाएँ, जिससे एकप्रान्तीय भाषा-भाषी जिले उस प्रांत में मिल जाएँ।
(2) उत्तर प्रदेश यथापूर्व रहे अर्थात् न उसकी सीमाएँ कम की जाएँ और न बढ़ाई जाएँ।
(3) दिल्ली केंद्रीय शासन के नीचे रहेगा।
(4) पंजाब व पॅप्सू मिला दिए जाएँ, परंतु यह संयुक्त पंजाब व्यवहार के लिए दो क्षेत्रों में पंजाबी व हिंदी में बँट जाएगा। असेम्बली, गवर्नर और मन्त्रिमंडल एक ही रहेगा। हिमाचल प्रदेश फिलहाल पृथक् इकाई रहे।
(5) राजस्थान में अजमेर राज्य सम्मिलित कर लिया जाए। सिरोही का आबू प्रदेश भी, जो बंबई राज्य में शामिल कर दिया गया था, राजस्थान में फिर मिला दिया जाए। मध्यभारत की कुछ सीमाओं में भी परिवर्तन किया जाएगा।
(6) बंबई राज्य के गुजराती प्रदेश व सौराष्ट्र, बंबई के मराठीभाषी प्रदेश व विदर्भ (नागपुर आदि) मिलाकर एक बंबई राज्य बनाया जाए। हैदराबाद का कुछ प्रदेश भी इसमें सम्मिलित किया जाएगा। यह द्विभाषी राज्य होगा।
(8) हैदराबाद राज्य को खंड-खंड कर दिया जाए। इसके कुछ प्रदेश आंध्र मैसूर और बंबई में मिलाए जाएँगे।
(9) आंध्र व तैलंगाना मिलाकर एक विस्तृत राज्य बनाया जाएगा।
(10) मद्रास, मैसूर व केरल राज्य भी दक्षिणी भारत में रहेंगे।
(11) मध्य प्रदेश (मराठी भाग निकालकर), भूपाल, विंध्य प्रदेश तथा मध्य भारत को मम्मिलित करके एक राज्य बनाया जाएगा। इसका नाम मध्य प्रदेश होगा।
(12) जम्मू और कश्मीर यथापूर्व पृथक् राज्य रहेगा।
इन सब परिवर्तनों के साथ अन्य भी अनेक महत्त्वपूर्ण निश्चय किए गए हैं। जम्मू और कश्मीर को छोड़कर सभी ‘ख’ श्रेणी के राज्य ‘क’ श्रेणी के स्तर पर लाए जाएँगे। राजप्रमुख का पद समाप्त कर दिया गया है। पुनर्गठन आंदोलन के समय यह अनुभव किया गया कि इससे पृथक्ता की भावना बढ़ती है। इसलिए सारे देश को पाँच क्षेत्रों में बाँट दिया गया है :
(1) उत्तरी क्षेत्र – जम्मू-कश्मीर, पंजाब, राजस्थान दिल्ली हिमाचल प्रदेश।
(2) मध्यक्षेत्र – उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश।
(3) पूर्वी क्षेत्र – बिहार, बंगाल, असम, उड़ीसा।
(4) पश्चिमी क्षेत्र – बंबई।
(5) दक्षिणी क्षेत्र – मैसूर, मद्रास, आंध्र और केरल।
इन पाँच क्षेत्रों की पृथक् पृथक् समितियाँ हैं जो किसी राज्य विशेष की अपेक्षा समस्त क्षेत्र के हित की दृष्टि से विचार करती हैं। यह क्षेत्रीय समितियाँ यदि ठीक दिशा में काम कर सकीं तो पृथकता की द्वेषपूर्ण भावना को शांत करने में अवश्य महायता मिलेगी।