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संयुक्त राष्ट्रसंघ

UNO par hindi nibandh

आदि काल से जब इस धरती पर मानव ने जन्म लिया था, उसमें दो परस्पर विरोधी भावनाएँ एक साथ पनपती रही हैं। प्रेम, दया, शांति की भावना मानव में स्वाभाविक है। इसी भावना के कारण माँ बालक को प्यार करती है, दुलार करती है। पति-पत्नी व परिवार के सदस्य ही नहीं, समाज के विविध संगठन भी मानव की इन्हीं कोमल प्रवृत्तियों का परिणाम हैं। दूसरी भावना है, संघर्ष, शत्रुता व लड़ाई-झगड़े की। मानव में निहित पशुत्व समय- समय पर जाग उठता है, अबोध शिशु भी परस्पर लड़ते हैं। स्वार्थ इस पशुत्व को सदा उत्तेजित करता है। मनुष्यों के निजी झगड़े हों या जातियों और देशों के भीषण युद्ध, इसी भावना के परिणाम हैं। ये दोनों भावनाएँ एक साथ मानव में अनादि काल से पनपती आई हैं। कभी मानव-भाव बल पकड़ता है तो कभी पशुत्व या दानव का भाव प्रबल हो जाता है।

प्रथम विश्व-युद्ध

बड़े-बड़े युद्ध जब मानव को थका देते हैं, तब वह शांति की खोज करने लगता है। युद्धों के बाद संधियाँ होती हैं और यह प्रयत्न किया जाता है कि भविष्य में युद्ध न हों। बीसवीं सदी के प्रारंभ में 1914 में जो विश्व-युद्ध हुआ था, उसके भीषण संहार को देखकर योद्धा राष्ट्रों ने आपसी विवाद -ग्रस्त प्रश्नों को तलवारों, तोपों और बमों द्वारा नहीं, पारस्परिक शांति चर्चा अथवा पंचायत द्वारा तय करने के लिए जिनेवा में राष्ट्रसंघ (लीग ऑफ नेशन्स) की स्थापना की थी।

इस संस्था ने कुछ वर्ष तक अच्छा काम किया। इसके दो मुख्य कार्य थे— एक राजनैतिक विवादों का पारस्परिक संधि चर्चा द्वारा निर्णय और दूसरे अंतर्राष्ट्रीय रूप से समाज सेवा की व्यवस्था, जैसे अफीम और स्त्रियों के व्यापार पर रोक, शिक्षा प्रसार तथा मजदूरों की सुख-सुविधा आदि। अनेक समस्याएँ इसके सामने आईं और हल भी हुईं, किंतु कुछ समय बाद सदस्य- राष्ट्रों के पारस्परिक स्वार्थ के कारण विकट प्रश्नों का निर्णय ठीक तरह नहीं हो सका। राष्ट्रसंघ में उन्हीं राष्ट्रों का बोलबाला था, जो स्वयं बड़े-बड़े साम्राज्य हथियाए हुए थे। जब जापान ने चीन के मंचूरिया पर आक्रमण किया, तो ब्रिटेन व फ्रांस किस मुँह से उसका विरोध करते? जब इटली ने अबीसीनिया पर आक्रमण किया, तब भी राष्ट्रसंघ कुछ न कर सका। संघ के पास अपनी कोई शक्ति न थी, जिससे अपराधी देश को दंड दिया जा सकता। जर्मनी ने जब देखा कि राष्ट्रसंघ किसी अपराधी को दंड नहीं दे सकता, तब उसने भी ‘सब संधियों को भंग करके पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया और कुछ दिन बाद समस्त विश्व युद्ध की ज्वाला में जलने लगा। राष्ट्रसंघ भी जीवित न रह सका। वह भी इस प्रचंड ज्वाला में भस्म हो गया।

नए राष्ट्रसंघ की स्थापना

1939 के महायुद्ध में संसार ने जिस भीषण विध्वंस व प्रलय के दर्शन किए, वह कल्पनातीत था। युद्ध के विजेता राष्ट्र भी इसकी पुनरावृत्ति नहीं चाहते थे। युद्ध काल में ही ब्रिटेन, रूस और अमरीका में जो-जो सम्मेलन हुए, उनमें युद्ध विजय की चर्चा के साथ-साथ भावी विश्व व्यवस्था पर भी विचार किया जाता रहा। अतलांतक सम्मेलन में आक्रमणकारी देशों द्वारा पराजित देशों को स्वशासन का अधिकार, विश्व शांति की स्थापना, स्वराज्य और समानता तथा किसी दूसरे देश के अधिकारों तथा भूमिभागों का अपहरण न करना आदि कुछ सिद्धांतों की घोषणा की गई थी। बल प्रयोग न करने, अनुन्नत देशों की आर्थिक प्रगति और सामाजिक सुरक्षा का भी वचन दिया गया था। 24 अक्तूबर, 1944 को इस दिशा में पहला कदम उठाया गया, जबकि वाशिंगटन में डंबटर्न प्रोक्स भवन में एक कान्फ्रेंस की गई। इसमें विश्व राष्ट्र- संघ बनाने का निश्चय किया गया। इसके अनुसार सानफ्रांसिस्को में विविध राष्ट्रों के 200 प्रतिनिधियों, 100 कर्मचारियों और 300 कान्फ्रेंस सेक्रेटरियों की कान्फ्रेंस हुई। संघ के उद्देश्य यह रखे गए-

अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को कायम रखना;

राष्ट्रों में परस्पर मित्र भाव की वृद्धि;

आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और सार्वदेशिक समस्याओं के हल के लिए सब राष्ट्रों का सहयोग;

इन सब उद्देश्यों के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन।

इनके साथ ही सब राष्ट्रों के बल प्रयोग छोड़ने, विवादग्रस्त मामलों का संघ द्वारा निर्णय कराने आदि की भी घोषणाएँ की गई।

पाँच संस्थाएँ

नए संयुक्त राष्ट्रीय संघ के लिए, जिसे अंग्रेजी में यूएनओ के संक्षिप्त नाम से बुलाया जाता है, पाँच अलग-अलग संस्थाएँ बनाई गई असेम्बली,  सुरक्षा समिति, आर्थिक और सामाजिक समिति, ट्रस्टीशिप कौंसिल और अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय।

नई समस्याएँ

यह नया संयुक्त राष्ट्रसंघ जिस उत्साह के वातावरण में स्थापित हुआ था, उस उत्साह से काम नहीं कर सका। इसका मुख्य कारण था राष्ट्रों की स्वार्थ भावना, जिसने पहले संघ को भी प्रभाव – शून्य बना दिया था। संघ के सामने एक से एक कठिन समस्याएँ आई और इसमें संदेह नहीं कि वह कुछ सीमा तक सफल भी हुआ है। सबसे अधिक कठिन और पेचीदा प्रश्न सुरक्षा समिति के पास आए। उनमें से कुछ प्रमुख प्रश्न निम्न हैं- इजराइल में अरबों व यहूदियों का संघर्ष, कश्मीर पर पाकिस्तान का आक्रमण, दक्षिणी अफ्रीका में भारतीयों से दुर्व्यवहार, इण्डोनेशिया की स्वाधीनता, दक्षिणी-पूर्वी अफ्रीका का शासन, इरीट्रिया आदि इटली के उपनिवेश, ग्रीस पर समीपवर्ती देशों के आक्रमण, अणु बम पर नियंत्रण, कम्यूनिस्ट चीन की संघ में सदस्यता, कोरिया में गृह-युद्ध, बर्लिन की रूस के द्वारा नाकाबंदी, ईरान व अंग्रेजों का तेल संबंधी झगड़ा, मिश्र का अंग्रेजों से स्वेज नहर -संबंधी संघर्ष और अणु बम व शस्त्रास्त्र वृद्धि पर रोक। ये सभी मामले पेचीदे हैं। राष्ट्रसंघ के सदस्य परस्पर स्वार्थ के कारण गुणावगुण की दृष्टि से इन पर विचार नहीं कर सके। आपसी दलबंदी की दृष्टि से विचार के कारण इनके समाधान में कुछ कठिनता हुई। कश्मीर का प्रश्न इसी कारण उलझा पड़ा है। अणु बम पर रोक, जर्मनी व कोरिया के एकीकरण भी हल नहीं हो रहे हैं फिर भी आंशिक सफलता अवश्य मिली है। इजराइल और कश्मीर में विराम-संधि हो चुकी है, इण्डोनेशिया का प्रश्न हल हो चुका है, बर्लिन का प्रश्न भी अस्थायी रूप से हल हुआ है। परंतु सबसे बड़ी सफलता जिस पर राष्ट्रसंघ के अधिकारी गर्व करते हैं, कोरिया में आक्रमणकारी के विरुद्ध राष्ट्र संघ का संयुक्त रूप से कदम उठाकर युद्ध समाप्ति है। इण्डोचायना में भी युद्ध को रोकने में कुछ सफलता मिली है।

संगठन में दोष

संसार की राजनैतिक समस्याएँ बहुत विषम हैं। मानव जब तक स्वार्थ से ऊपर नहीं उठे, वह इन समस्याओं पर निष्पक्ष रूप से गुणावगुण या न्याय-अन्याय की दृष्टि से विचार नहीं कर सकेगा। इस कारण राष्ट्रसंघ की सफलता संदिग्ध होने लगी है। इस संघ के संगठन में भी कुछ दोष रह गए हैं। एक दोष तो यह है कि राष्ट्रसंघ में पाँच देशों- अमरीका, ब्रिटेन, रूस, फ्रांस और चीन को बहुत अधिक महत्त्व दे दिया गया है। उन्हें सुरक्षा समिति का स्थायी सदस्य मान लिया गया है। फिर इन पाँचों को प्रत्येक प्रश्न पर अपने निषेध अधिकार का प्रयोग करके शेष सबका निरादर करने का अधिकार प्राप्त है। अनेक महत्त्वपूर्ण प्रश्न केवल इसी निषेधाधिकार के कारण हल नहीं हो पाए। तीसरा दोष यह है कि इस संघ के पास भी अपने निश्चय को क्रियान्वित करने के लिए सशस्त्र शक्ति नहीं है। इजराइल, पाकिस्तान, दक्षिणी अफ्रीका आदि को संघ अपने निश्चयों के लिए विवश नहीं कर सका। कोरिया के प्रश्न पर भी अमरीका की विशेष रुचि थी, इसीलिए अधिकांश सेना उसी को देनी पड़ी। इण्डोचायना में भी आंशिक सफलता ही मिली है।

सामाजिक सेवाएँ

आज भी संसार की अधिकांश राजनैतिक व आर्थिक समस्याएँ हल नहीं हुई, किंतु इसी कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ को असफल नहीं कहा जा सकता। अराजनीतिक क्षेत्र में संघ ने कम सफलता नहीं पाई है। संयुक्त राष्ट्रसंघ मानव हितकारी बहुत से कार्य कर रहा है। अंतर्राष्ट्रीय बाल संकट कोष की स्थापना करके 50 देशों में बच्चो को खाने, कपड़े और चिकित्सा संबंधी सुविधाएँ दी गई हैं। संयुक्तराष्ट्रीय शरणार्थी संगठन के द्वारा 10 लाख से अधिक युद्ध- पीड़ितों की सहायता की जा चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के सहयोग से संसार की सरकारें अपने-अपने प्रदेशों में रोगों को दूर करने में प्रयत्नशील हैं। संसार भर में दुर्भिक्ष और भूख के विरुद्ध भी जोरदार संघर्ष किया जा रहा है। विविध देशों में अन्नादि के उत्पादन बढ़ाने में यह संगठन सहयोग दे रहा है। ट्रैक्टर, खाद्य और बीज आदि इसकी ओर से दिए जाते हैं। शिक्षा, विज्ञान एवं संस्कृति संगठन (यूनेस्को) के द्वारा संसार से निरक्षरता को दूर करने में वह प्रयत्नशील है। अल्पविकसित देशों को सहायता देने के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय बैंक की स्थापना की गई है जो विभिन्न देशों को विकास योजनाओं के लिए ऋण देता है। ट्रस्टीशिप कौंसिल के द्वारा राष्ट्रसंघ अपने अधीनस्थ प्रदेशों में एक करोड़ 70 लाख व्यक्तियों की उन्नति में क्रियाशील है। मानव के मौलिक अधिकारों की घोषणा संघ का एक महान् कार्य है, जिसमें नागरिक की स्वतंत्रता की विस्तार से घोषणा की गई है।

भविष्य

संयुक्त राष्ट्रसंघ के भूतपूर्व प्रधान मंत्री श्री टिग्वेली ने कहा था कि “विश्व- शांति को खतरे में डालने वाले प्रायः सभी गंभीर प्रश्न किसी न किसी रूप में संघ के सामने आए हैं और इससे प्रकट है कि शांति सुरक्षा और अपनी जनता की भलाई व उन्नति चाहने वाले सभी राष्ट्र संघ को आशापूर्ण नेत्रों से देखते हैं।” वस्तुतः राष्ट्रसंघ संसार में शांति स्थापित कर सकता है, किंतु इसके लिए आवश्यक यह है कि आज जिस तरह वह स्वयं शांति के बदले रूस व अमरीका की दलबंदी का अखाड़ा बन रहा है, वह वैसा स्वरूप बदल ले।

राष्ट्रसंघ को पहले कुछ आदर्श निश्चित करने चाहिए, जिनके आधार पर प्रत्येक प्रश्न पर विचार किया जाए। वे आदर्श वही हो सकते हैं जो उसने मानव अधिकारों के घोषणा-पत्र में नियत किए हैं। इनके अनुसार प्रत्येक छोटे-बड़े देश को स्वराज्य मिलना चाहिए। एक बार सब छोटे-बड़े देशों को स्वतंत्र करने के बाद विश्व की तीन-चौथाई राजनीतिक उलझनें हल हो जाएँगी। आक्रमणकारी की स्पष्ट शब्दों में निंदा ही काफी न होगी, उसके विरुद्ध कठोर कार्रवाई भी बिना किसी पक्षपात के करनी होगी। यदि संयुक्त राष्ट्रसंघ ऐसा कर सका, तो वह उसकी एक जीवित संस्था रहेगी, अन्यथा उसकी भी पहले राष्ट्रसंघ (लीग ऑफ नेशन्स) की सी दुर्गति होगी।

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