(1) प्रस्तावना – मानव-जीवन में शिक्षा की आवश्यकता
(2) भारत में निरक्षरता
(3) उत्तर प्रदेश में साक्षरता-प्रसार योजना के दो पहलू –
(क) साक्षर बनाना
(ख) साक्षरता कायम रखना
(4) साक्षर बनाने के साधन-
(क) प्रौढ़ स्कूलों की स्थापना
(ख) स्कूलों और कालेजों से सहायता
(5) साक्षरता कायम रखने के साधन-
(क) वाचनालयों और पुस्तकालयों की स्थापना
(ख) असरकारी
पुस्तकालयों एवं वाचनालयों को सहायता
(6) प्रतिवर्ष ‘साक्षरता दिवस’ मनाने की योजना
(7) उपसंहार – सारांश
शिक्षा जीवन के विकास का साधन है। यह व्यक्तिगत जीवन के हो विकास का साधन नहीं, वरन् उससे राष्ट्र और समाज की उन्नति में भी पर्याप्त सहायता मिलती है। जहाँ शिक्षा का प्रचार हैं, जहाँ के स्त्री-पुरुष शिक्षा द्वारा ज्ञान प्राप्त करके नई-नई वस्तुओं की खोज एवं निर्माण करते हैं, जहाँ के नर-नारी साक्षर बनकर सामाजिक कुरीतियों तथा अंधविश्वासों का निवारण करते हैं, उस राष्ट्र को सचमुच राष्ट्र के नाम से पुकारते हुए गर्व होता है। ऐसे राष्ट्र को समस्त विश्व मस्तक झुकाता है। वस्तुतः शिक्षा अमृत है, अशिक्षा विष। शिक्षा उत्थान है, अशिक्षा पतन। शिक्षा दिव्य सम्पत्ति है, अशिक्षा फूटी कौड़ी।
वर्त्तमान काल में हमारा देश अशिक्षा के अभिशाप से पीड़ित है। क्या बालक क्या प्रौढ़, क्या स्त्री क्या पुरुष, सभी इस रोग से आक्रांत हैं। देश का केवल दसमांश ही साक्षर नाम से पुकारा जा सकता है। बालक-बालिकाओं में तो शिक्षा का कुछ प्रचार हैं भी, पर प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों की दशा अत्यंत शोचनीय है। उनमें से अधिकांश के लिए ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ ही है।
हमारे ग्राम तो पूर्णतया अशिक्षा के केंद्र बने हुए हैं। वहाँ निरक्षरता का अखंड साम्राज्य है। देश के लिए यह कितनी लज्जा की बात है ! जो देश एक दिन अन्य देशों का विद्या गुरु था वह आज काल देव की कुदृष्टि से कितना नीचे गिर गया है ! आज उसके शिष्य उससे बहुत आगे बढ़ गए हैं।
हमारे प्रांत में कांग्रेसी सरकार ने जहाँ प्रांत की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति की ओर कदम बढ़ाया है वहाँ शिक्षा दानवी का संहार करने के भी साधन जुटाए। 1 अगस्त 1638 ई0 को उत्तर प्रदेश में पंडित श्रीनारायणजी चतुर्वेदी की अध्यक्षता में शिक्षा- प्रसार विभाग की स्थापना की गई और 15 जनवरी सन् 1936 ई0 को शिक्षा प्रसार योजना का श्रीगणेश हुआ। इसका श्रेय हमारे प्रांत के भूतपूर्व शिक्षा सचिव श्री सम्पूर्णानंद जी को है। विभाग ने अपने अल्प जीवन में जो आशातीत कार्य कर दिखाया है उससे हमें विश्वास होता है कि हमारे प्रांत की अशिक्षा-दानवी से शीघ्र छुट- कारा मिल जाएगा।
शिक्षा-प्रसार ‘योजना दो भागों में विभाजित है-साक्षर बनाना और साक्षरता कायम रखना। साक्षर बनाने के लिए प्रौढ़ स्कूलों की स्थापना की गई है। यद्यपि अर्थाभाव के कारण इन स्कूलों की संख्या अपर्याप्त है तथापि इनसे बहुत लाभ हुआ है। इन स्कूलों में रात्रि के समय प्रौढ़ों को शिक्षा दी जाती है, क्योंकि यही ऐसा समय है जब वे लोग अपने कार्य से अवकाश पाते हैं। 5-6 माह तक की अवधि प्रत्येक प्रौढ़ को शिक्षा के लिए नियत है। पाठ्यक्रम में तीसरी कक्षा के स्तर को एक हिंदी रीडर और भारतवर्ष के भूगोल तथा गणित का साधारण ज्ञान रखा गया है। हिंदी रीडर में ऐसी साधारण भाषा रहती है जैसी नित्य प्रति व्यवहार में आती है। ऐसी सादी भाषा लिखना पढ़ना और सिखाना ही उक्त रीडर का उद्देश्य होता है। स्कूलों के डिप्टी इंसपैक्टर से साक्षरता का प्रमाण-पत्र मिलने से पहले विद्यार्थी की परीक्षा ली जाती है। परी क्षक प्राय: हिंदुस्तानी मिडिल स्कूल का प्रधानाध्यापक होता है।
इस साधन के अतिरिक्त अ-सरकारी संस्थाओं को भी इस कार्य में योग देने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। इण्टरमीडिएट कॉलिज, हाई स्कूल और हिंदुस्तानी मिडिल स्कूलों से एक-एक गाँव घूमकर उनमें साक्षरता का प्रचार करने की प्रार्थना की गई है। इस योजना के अनुसार बहुत से स्कूलों और कॉलिजों ने कार्य किया है। विद्यार्थी समुदाय ने विशेषकर अँगूठा निशानी के विरुद्ध (No thumb impression) आंदोलन में भाग लिया है। वे अनेक मनुष्यों को हस्ताक्षर करना सिखाकर इस दशा में प्रशंसनीय कार्य कर रहे हैं।
यह तो हुई साक्षर बनने की बात। अब साक्षरता कायम रखने की बात लीजिए। जब तक साक्षरों को निरक्षर होने से बचाने के लिए कोई उपाय न किया जाएगा तब तक साक्षरता-प्रसार – योजना कभी सफलता नहीं प्राप्त कर सकती। अतः हमारे प्रांत की सर- कार ने साक्षरता कायम रखने की ओर विशेष ध्यान दिया है। इस कार्य के सम्पादन के लिए पुस्तकालयों और वाचनालयों की स्थापना की गई है। बॉक्स आदि आवश्यक सामान के अतिरिक्त प्रत्येक पुस्तकालय को प्रति वर्ष हिंदी-उर्दू को पुस्तकें दी जाती हैं। ये पुस्तकालय गाँवों में खोले गए हैं। प्रत्येक पुस्तकालय की 5 से 8 मील की परिधि के भीतर चार-पाँच शाखाएँ होती हैं जिनको प्रतिमाह 20 से 30 पुस्तकों का एक बॉक्स मिलता है। इन शाखाओं का प्रबंध वही पुस्तकालय करता है। स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार प्रत्येक पुस्तकालय को दो साप्ताहिक और एक मासिक पत्र दिया जाता है। वाचनालय के अध्यक्षों को निरक्षर व्यक्तियों को सामाचार-पत्र पढ़कर सुनाने के लिए प्रतिमास एक रुपया भत्ता दिया जाता है।
सरकारी पुस्तकालयों और वाचनालयों की स्थापना के अतिरिक्त अ-सरकारी पुस्तकालयों एवं वाचनालयों को भी सहायता दी जाती है। पुस्तकालय की उपयोगिता के अनुसार 32 से 66 तक वार्षिक सहायता दी जाती है। हर पुस्तकालय को दो पत्र भी मिलते हैं।
प्रतिवर्ष लोगों में उत्साह भरने के लिए ‘साक्षरता दिवस’ की आयोजना की जाती है। उस दिन स्कूलों के जुलूस निकलते हैं और सभाए होती हैं जिनमें साक्षरता-प्रसार की उपयोगिता पर भाषण दिये जाते हैं और लोगों से अपील की जाती है कि वे देश से निरक्षरता के कलंक को दूर करें। लोगों से प्रतिज्ञा पत्रों पर इस आशय के हस्ताक्षर कराए जाते हैं कि वे आगामी वर्ष में कम से कम एक व्यक्ति को साक्षर बनाएँगे।
इस प्रकार हमारे प्रांत में साक्षरता का कार्य द्रुत गति से चल रहा है और इसका भविष्य उज्ज्वल प्रतीत होता है। हाँ, धन की कमी से यह कार्य और अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता। प्रत्येक शिक्षित व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह इस पवित्र कार्य में हाथ बँटाए। अपने देशवासियों की सेवा के निमित्त पाश्चात्य देशों में जहाँ लाखों मनुष्य अपना सर्वस्व बलिदान कर रहे हैं, वहाँ क्या हमारे प्रांत के शिक्षित स्त्री-पुरुष अपने भाइयों और बहिनों को साक्षर बनाने में भी संकोच करेंगे।