संकेत बिंदु – (1) सूक्ति का भावार्थ (2) महापुरुषों के विचार (3) इतिहास सबसे बड़ा गवाह (4) बीते हुए समय की क्षतिपूर्ति संभव नहीं (5) व्यक्ति को समय का सदुपयोग करना चाहिए।
जिस प्रकार मुँह से निकली बात, कमान से छूटा तीर, देह से निकली आत्मा, बीता हुआ बचपन, गुजरी हुई जवानी, नक्षत्र लोक से टूटे तारे, शाखा से टूटी टहनी, पेड़-पौधों से झड़े हुए पत्ते, फल और फूल कभी नहीं लौटते, उसी प्रकार बीता हुआ समय कभी नहीं लौटता।
समय का किसी के साथ बंधुत्व, मित्रता अथवा जाति-बिरादरी का संबंध नहीं, जो उसे जोर देकर लौटाया जा सके। उस पर किसी का पराक्रम भी नहीं चलता। करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं का कमीशन और रिश्वत उसके सम्मुख तुच्छ हैं। उसका कोई ‘बॉस’ नहीं, जिसका वह दबाव माने। उसका कोई गुरु नहीं, जिसका आदेश वह शिरोधार्य करे। अथर्ववेद में सच कहा है- काल (समय) विश्व का स्वामी है।
भाई वीरसिंह कहते हैं, ‘लंघ गया न मुड़के आँवदा’ (एक बार जो बीत गया, वह फिर लौटकर नहीं आएगा।) वर्जिल कहते हैं, ‘समय पुनः वापस न आने के लिए उड़ा जा रहा है।’ स्वयम्भूदेव पूछते हैं, ‘गय दियहा कि एन्ति पडीवा’ अर्थात् गए हुए दिन क्या फिर लौटकर आते हैं? महात्मा गाँधी जी कहते हैं, ‘एक भी मिनिट जाता है, तो वापिस कभी नहीं आता।’ शंकर कृप चेतावनी देते हैं, ‘समय रूपी अमृत बहता जा रहा है। संभव है प्यास बुझाने का अवसर तुम्हें न मिले।’ उर्दू के शायर दाग इस न लौटने वाले समय पर दुख और निराशा भरे शब्दों में कहते हैं-
“गुजर गए हैं जो दिन फिर न आएँगे हरगिज।
कि एक चाल फलक हर बरस नहीं चलता॥”
वेद का कथन है- काल (समय) अश्व है। यह अजर और भूरिवीर्यवान है, पर इसके मुख में सात रश्मियाँ रूपी रासें भी लगी हुई हैं। यदि ये रासें सवार के हाथ से निकल गईं तो यह समय रूपी अश्व भी सवार के हाथ से निकल जाएगा। लौटकर नहीं आएगा।
मैथिलीशरण गुप्त का भी यही प्रश्न है-
हा दैव! अब वै दिन कहाँ हैं और वे रातें कहाँ?
है काल की घातें कि कल क़ी आज हैं बातें कहाँ?
समय रहते वर्षा नहीं हुई तो खेती बरबाद हो जाती है। समय निकलने के बाद वर्षा ने दर्शन दिए तो क्या लाभ? ‘का वर्षा जब कृषि सुखाने, समय चूकि पुनि का पछिताने। ‘आप को ट्रेन पकड़नी है, आप समय पर स्टेशन नहीं पहुँचे। गाड़ी निकल गई, वह आपके लिए लौटकर नहीं आएगी। इंटरव्यू देने लेट पहुँचे हैं। नियुक्तियाँ घोषित हो गई। आप नौकरी से वंचित रह गए।
इतिहास इस प्रकार के उदाहरणों से भरा है, जहाँ समय निकलने की सोच ने विफलता का मुख दिखाया। द्वितीय विश्व-युद्ध में हिटलर की पराजय का कारण विलंब से सैनिक सहयोग मिलना था। जब सहायता पहुँची तब तक हिटलर बंदी बना लिया गया था। नैपोलियन का सेनापति ग्रूशी पाँच मिनिट देर से पहुँचा तो तब तक नेपोलियन हार चुका था। रूस में श्री लालबहादुर शास्त्री को समय पर ‘मेडीकल एड’ मिल जाती तो वे बच सकते थे। तात्या टोपे रानी लक्ष्मीबाई के समय पर सैनिक सहयोग न दे सका, परिणामतः रानी को झाँसी का किला छोड़ना पड़ा।
परंतु ‘बच्चन’ बीते हुए कल पर पछतावा नहीं करते, उसके लौटने की प्रतीक्षा नहीं करते, उसके लिए खोजते नहीं फिरते। वे तो कहते हैं— ‘जो बीत गई तो बात गई।’ इसलिए ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेई।’
सत्ययुग बीता, त्रेता बीता, द्वापर बीता, पर लौटकर कोई नहीं आया। राम राज्य बीता, पर लौटकर उसके दर्शन नहीं हुए। गीता की वाणी श्रीकृष्ण के मुख से अर्जुन के अतिरिक्त महाभारत के पश्चात कोई नहीं सुन सका। कारण, अतीत को वर्तमान बनाना न नर के वश में है, न दैव के।
सच तो यह है कि पुत्र न होने पर दत्तक पुत्र से वंश चलाया जा सकता है, चरित्र का पतन होने पर पुनः चरित्रवान बना जा सकता है, घाटा होने पर लाभ अर्जित किया जा सकता है, मृत्यु के मुँह से भी एकबार निकला जा सकता है, पर आज तक ऐसी कोई घड़ी नहीं बनी जो बीते हुए समय को वापिस कर दे, बीते हुए घंटों को पुनः बजा दे।
कहना पड़ेगा समय सबसे महान है – परमात्मा से भी, जगत नियंता से भी और प्रकृति से भी। भक्ति, तप, साधना आदि साधनों से परमात्मा को तो प्रसन्न करके बुलाया जा सकता है, किंतु कोटि उपाय करने पर भी बीता हुआ समय नहीं बुलाया जा सकता।
अतः व्यक्ति को जो समय मिले, उसका सदुपयोग करना चाहिए। जैसे समय पर बोया बीज उचित फल देता है, वैसे ही समय पर किया गया कार्य भी उचित फल प्रदान करता है। अन्यथा कार्य की असफलता के कारण व्यक्ति को निरंतर पश्चात्ताप की आग में जलना पड़ता है।