संकेत बिंदु – (1) व्यक्तित्व निर्माण में सहायक (2) नैतिक, मानसिक और शारीरिक दृष्टियों से स्वावलंबी बनाना (3) मानव जीवन के प्रमुख सोपान (4) काम और मोक्ष प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण (5) जीवन को सही ढंग से जीने की योग्यता
‘विद्याविहीन पशु’ को ज्ञान का तृतीय नेत्र प्रदान कर विवेकशील बनाना, उसमें अच्छे- बुरे की पहचान उत्पन्न करना, कायदे-कानून की समझ प्रदान करना तथा जीवन में सर्वांगीण सफलता और संपन्नता प्रदान करने के लिए संस्कार और सुरुचि के अंकुर उत्पन्न कर उसके व्यक्तित्व निर्माण में ही शिक्षा का महत्त्व है।
संपूर्णानंद जी के शब्दों में, ‘मन और शरीर का तथा चरित्र के भावों के परिष्कार में ही शिक्षा का महत्त्व है।’ प्लेटो के विचार में ‘शरीर और आत्मा में अधिक-से-अधिक सौंदर्य और संभावित संपूर्णता का विकास संपन्न करने में ही शिक्षा का महत्त्व है।’
मानव-जीवन आद्योपांत कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि है। कौतूहल, विचित्रता और जटिलताओं से परिपूर्ण होने के कारण इसका पथ तमसाच्छन्न है। द्वंद्व और संघर्ष ही इस रजःपूर्ण पथ की नियति है। इस नियति की विजय पर शिक्षा की महिमा टिकी है। शिक्षा मानव को विषय विशेष का ज्ञाता बनाने के अतिरिक्त नैतिक, मानसिक और शारीरिक, सभी दृष्टियों से कर्मठ, योग्य, सदाचारी, समर्थ तथा स्वावलंबी बनाती है। डॉ. जान जी. हिबन के विचार में ‘शिक्षा का महत्त्व परिस्थितियों का सामना करने की योग्यता उत्पन्न करना है।’
शिक्षा का महत्त्व मानव जीवन के लिए वैसा ही है जैसे संगमरमर के टुकड़े से मूर्ति बनाने के लिए शिल्पकला का। फलतः शिक्षा केवल ज्ञान-दान नहीं करती, संस्कार और सुरुचि के अंकुरों का पालन भी करती हैं। डॉ. हरिशंकर शर्मा शिक्षा का महत्त्व ‘मानवता का मार्गदर्शन; मन वचन – कर्म में शुचिता-समता लाना, तन-मन-आत्मा को विमल- बलिष्ठ बनाना तथा ज्ञान-विज्ञान का मर्म – महत्त्व बताने में’ मानते हैं।
वस्तुतः अपने को जीवित रखने के लिए अपने वातावरण तथा उसकी सापेक्षता में निज को समझकर जीवन के अनुकूल कार्यों को करना और प्रतिकूल के निवारण में ही शिक्षा का महत्त्व है।
भारतीय मनीषियों ने मानव जीवन के चार सोपान माने हैं। ये हैं- धर्म, अर्थ, काम ओर मोक्ष। इनको पुरुषार्थ की संज्ञा से अभिहित किया गया है। इन चारों पुरुषार्थों पहला पुरुषार्थ है धर्म। जीवन में सफलतापूर्वक धर्म के निर्वहन में ही शिक्षा का महत्त्व है।
धर्म आत्मा और अनात्मा का, जीवात्मा और शरीर का विधायक है। संस्कार जीवात्मा और शरीर का विकास करता है। धर्म से मनुष्य में सद्गुणों के संस्कार उत्पन्न होते हैं। धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इंद्रिय-निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध वृत्तियाँ पल्लवित होती हैं। नैतिकता का पदार्पण होता है। अतः सच्चे धर्म का ज्ञान उत्पन्न करने में ही शिक्षा का महत्त्व।
दूसरा पुरुषार्थ है अर्थ। अर्थ धन का पर्याय है। कार्लमार्क्स ने सच कहा है, ‘मानव के संपूर्ण सामाजिक कार्यों के केंद्र में अर्थ अवस्थित है।’ धर्म का सेवन भी धन द्वारा होता है। धन भाग्य की गठरी है। रोजी-रोटी अर्जन का प्रतिफलन है। अत शिक्षा का महत्त्व मानव में अर्थ अर्जित करने की योग्यता उत्पन्न करने में है। इसके लिए शिक्षा का व्यवसायीकरण होना चाहिए। व्यवसायिक शिक्षा मानव की जीवकोपार्जन योग्य बनाएगी।
तीसरा पुरुषार्थ है, काम। काम का अर्थ है इच्छा। विविध इच्छाओं की पूर्ति और तज्जनित-आनंद की प्राप्ति में शिक्षा का महत्त्व है। यही कारण है कि आज विद्या विभिन्न कलाओं में विकसित हुई है। ललित कलाओं (काव्य, संगीत, चित्र, मूर्ति और वास्तुकला) का उद्देश्य मन को आनंद प्रदान करना है। मनुष्य के सभी काम भोग अथवा आनंद में परिसमाप्ति के लिए ही शुरू किए जाते हैं। शिक्षा का महत्त्व तभी है जब वह स्वस्थ आनंद प्रदान करे, ताकि वह मानव के सांस्कृतिक विकास का साधन बन सके।
मोक्ष का अर्थ यदि ‘मन की शांतिपूर्ण एक स्थिति विशेष’ लें तो मन का शांत रहना भी मनुष्य के आनंद का बड़ा कारण है; सब झगड़ों का अंत है। यदि ‘हृदय की अज्ञान- ग्रंथि का नष्ट होना ही मोक्ष’ कहा जाए, तो हृदय की अज्ञानता दूर करने में ही शिक्षा का महत्त्व है। मोक्ष का अर्थ ‘सभी प्रकार के बंधनों से मुक्ति हो, तो वह ज्ञान सुशिक्षा से ही संभव है। सुशिक्षा सत्य का ज्ञान कराएगी। इसीलिए भारतीय संस्कृति में ज्ञान को मनुष्य की तीसरी आँख (ज्ञानं तृतीयं मनुजस्य नेत्रम्) बनाया गया है।
शिक्षा का महत्त्व इन चारों पुरुषार्थों द्वारा जीवन जीने की योग्यता में है। धार्मिक शिक्षा से मानव में मानवीय गुणों का विकास होगा। सात्त्विक वृत्तियों का उदय होगा। जीवन में सत् असत् की परख होगी। धन उपार्जन की शिक्षा मानव को परिवार – पालन योग्य बनाएगी। धन कमाने के विविध ढंग बताएगी। समाज का कोई व्यक्ति नौकरी के लिए किसी का द्वार नहीं खटखटाएगा। दर-दर मारा-मारा नहीं भटकेगा। अपने अर्जित ज्ञान, परिश्रम और पुरुषार्थ से धन कमा सकेगा। काव्य, संगीत, चित्र, मूर्ति और वास्तुकलाओं का चित्रण जीवन में आदान-प्रदान करेगा; उसके सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा करेगा। दूसरी ओर, ललित कलाएँ धन उपार्जन का श्रेष्ठ साधन बन गई हैं।
अनुचित अनुपयोगी तथा व्यर्थ के बंधनों से मुक्ति दिलाकर शिक्षा मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करेगी।
संसार रूपी समुद्र में जीवन के सुचारु संचालन तथा मंगलमय जीवन के लिए शिक्षा पतवार है। जीवन को सर्वगुण संपन्न और सफल समृद्ध करने तथा सत्, चित् और आनंद प्राप्ति कराने में शिक्षा का महत्त्व है।