संकेत बिंदु – (1) बलवान और साहसी होने का भाव (2) यश की प्रेयसी (3) वीरता के अनेक क्षेत्र (4) वीरता के चार गुण (5) उपसंहार।
यथेष्ट बलवान और साहसी होने का धर्म या भाव वीरता है। विकट परिस्थिति में भी आगे बढ़कर धैर्य और साहसपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करना वीरता है। किसी काम में अन्य लोगों से बहुत बढ़कर होना वीरता है। जैसे- दानवीर या धर्मवीर। किसी काम में बहुत निष्णात होना भी वीरता है। जैसे- वाग्वीर।
एमियल के शब्दों में – ‘भय पर आत्मा की शानदार विजय ही वीरता है।’ सरदार पूर्णसिंह के शब्दों में, ‘अपने आपको हर घड़ी और हर पल महान से महान बनाने का नाम वीरता है।’ ‘प्राणों का मोह त्याग करना सच्ची वीरता का रहस्य है।’ – जयशंकर प्रसाद (चंद्रगुप्त द्वितीय अंक)।’ आत्म-विश्वास वीरता का सार है। ‘ – एमर्सन। मैं शक्ति केंद्र हूँ। मेरी पराजय नहीं हो सकती। यह संकल्प वीरता का संबल हैं।
धर कर चरण विजित शृंगों पर झंडा वही उड़ाते हैं।
अपनी ही उँगली पर जो खंजर की जंग छुड़ाते हैं।
‘वीरता उन्माद नहीं है, वह आँधी नहीं है, जो उचित-अनुचित का विचार न करती हो। केवल शस्त्र बल पर टिकी हुई वीरता बिना पैर की तेजी है। उसकी दृढ़ भीति हैं, न्याय।’- जयशंकर प्रसाद प्रकारांतर से लक्ष्मी नारायण मिश्र ने भी यही बात कही है, ‘बिना विवेक के वीरता महासमुद्र की लहरों में डोंगी सी डूब जाती है। दंभ करने का स्वभाव कायर का है और वीरता विनय में भी आगे रहती है। गाँधी जी के विचार में, ‘बहादुरी का अर्थ उदंडता नहीं। जो अपनी शक्ति से दूसरों को कुचलता है, वह बहादुर नहीं।’ श्यामनारामण पांडेय कहते हैं।
अरि को धोखा देना, शूरों की रीति नहीं है।
वीरता यश की प्रेयसी है। जीवन में महान कार्य करने की प्रेरक शक्ति हैं। वसुंधरा को भोगने की कामना है। काम, क्रोध, लोभ, मोह वृत्तियों की विनाशक है। सत्य, शक्ति और संकल्प की पवित्र त्रिवेणी के दर्शन वीरता में होते हैं।
केवल शक्ति प्रदर्शन वीरता नहीं। वीरता के अनेक क्षेत्र हैं। महाभारत कालीन कर्ण और इतिहास प्रसिद्ध भामाशाह दानवीर थे। महर्षि दधीचि और राजा शिवि के शरीर दान की वीरता भी इतिहास में चिरस्मरणीय है। राजपूतों में प्रचलित जौहर प्रथा वीरता के दिव्य रूप का प्रतीक है। धर्मवीर बाल हकीकत राय का बलिदान, गुरुपुत्रों के दीवार में चुने जाने की दृढ़ता, धर्म-वीरता के ओजस्वी उदाहरण हैं।
विधि-वेत्ता तथा कूटनीतिज्ञ वाग्वीरता के लिए प्रसिद्ध हैं। दीन-दुखी और रोगी सेवा के लिए नाइटेंगिल और मदर टेरेसा वीरता की अद्भुत प्रतिमा हैं। महात्मा गाँधी, ईसामसीह, सुकरात, मीरा सत्य-वीरता की जीवंत मूर्ति हैं, जो सत्य के लिए अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए।
आत्म-बल तथा मानसिक प्रेरणा से अनुप्राणित शक्ति का नाम वीरता है। वीरता का मुख्य आधार है उत्साह। उत्साह मनुष्य को कठिन कार्य करने की प्रेरणा देती है। उत्साह के सहारे ही मानव हिमालय की सबसे ऊँची चोटी एवरेस्ट को रौंद सका, अन्य अनेक गिरि-शृंगों को पददलित कर सका, चंद्रलोक पर झंडा गाड़ सका। वह वहाँ पर स्थायी निवास के लिए प्रयत्नशील है एवं मंगल-लोक की पूर्ण विजय को आतुर हो उठा है। वीरता जहाँ नहीं, वहाँ पग-पग पर मरण है, स्वार्थ का वर्चस्व हैं और है पुण्य का क्षय।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है।
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
वीरता का प्रथम गुण है, आत्म-विश्वास आत्म-विश्वास के आगे विघ्न बाधाएँ टिकती नहीं, रुकती नहीं। महाराज रणजीत सिंह ने उमड़ती हुई अटक नदी को पार करने के लिए अपना घोड़ा नदी में उतार दिया, तो कहते हैं कि नदी सूख गई थी। इसी प्रकार जब नेपोलियन को सेनाएँ एल्प्स पर्वत को पार करने में असमर्थ हो रही थीं, तभी वीर ने दृढ़ निश्चय के साथ कहा- ‘एल्प्स है ही नहीं।’ और देखते ही देखते उसकी सेना एल्प्म पर्वत को रौंदती हुई पार हो गई। सचमुच एल्प्स उनके सामने से हट गया था।
वीरता का दूसरा गुण हैं, साहस। संकट में साहस का होना आधी मंजिल तय कर लेना है क्योंकि वह अवसर के साथ-साथ बढ़ता है। फिर, भाग्य भी साहसी का साथ देता वीरता का तीसरा गुण है निर्भयता। शुचिता निर्भीक होती है और भलाई कभी नहीं डरती। फिर मनुष्य निर्मित संकटों से भय क्यों? भयाक्रांतता और वीरता में छत्तीस का संबंध है। भयाक्रांत को छोटा भय भी भूत लगता है और वीरता के सम्मुख भय आत्म-समर्पण करता है।
छीनता हो स्वत्व कोई, और तू / त्याग तप से काम ले यह पाप है।
पुण्य है विच्छिन्न कर देना उसे / बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है॥
वीरता का चौथा गुण है धैर्य। धैर्य वीरता का धन है, विपत्ति पार करने का हेतु हैं, कार्यसिद्धि की निश्चितता का सेतु है और है दृढ़ता का प्रतीक।
वीरता का पाँचवा गुण है ध्येय के प्रति निष्ठा। निप्ठाहीन वीरता ‘ बढ़ी बहादुरी से पीछे हटती सेना’ का पर्याय है। निष्ठा का संशय आत्मविश्वास का हिलना, साहस का विसर्जन, भय का प्रवेश और धैर्य का विचलन है।
विश्व-सभ्यता के बदलते प्रतिमानों में वीरता का रूप भी बदल गया। अब तक जहाँ शारीरिक शक्ति और अस्त्र-शस्त्र संपन्नता को ही वीरता माना जाता था, वहाँ अब त्याग, तप और नीति के क्षेत्रों में अलौकिक साहस दिखाने वालों की वीरता की दाद दी जाने लगी है। कमरे में बैठे-बैठे युद्ध-संचालन, सभाओं में धुआँधार लच्छेदार भाषण, सत्याग्रह और अनशन करने वालों के कार्य वीरता के अंतर्गत आने लगे हैं। लेखन वीरों की उत्पत्ति इसी बदलते युग की देन है। ऐसे लेखकों के लेखों और कविताओं में वीरता उमड़ी पड़ रही है, किंतु व्यक्तिगत रूप में वे बिल्ली की म्याऊँ से भी डरते हैं।
कायर व्यक्ति आत्मबल रहित होता है, स्वाभिमान शून्य होता है, पग-पग पर हानि उठाता, मृत्यु की छाया में जीता है। जबकि वीर पुरुष आत्मबल से तेजस्वी, स्वाभिमान और पौरुषयुक्त होता है। वह जीवन को वीरता से भोगता हैं। यही स्थिति राष्ट्रों पर घटित होती है। अतः मानव तथा राष्ट्र के जीवन में वीरता का वही स्थान है, जो मानव शरीर में रीढ़ की हड्डी का है।
लगा दे आग न दिल में तो आरजू क्या है?
न जोश खाए जो गैरत से वह लहू क्या है?