प्राचीन शास्त्रकारों ने हमारे जीवन को चार भागों में बाँटा है – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। ब्रह्मचर्य आश्रम विद्याध्ययन के लिए है। गृहस्थ आश्रम सांसारिक जीवन-यात्रा के लिए है और वानप्रस्थ या संन्यास समाज के कल्याण के लिए हैं। आज के युग में जब कि प्राचीन आश्रम व्यवस्था का वह रूप नष्ट हो गया है, मानव जीवन तीन भागों में अवश्य बँटा हुआ है। विद्यार्थी जीवन, सांसारिक जीवन और वृद्ध अवस्था का अवकाश प्राप्त (रिटायर्ड) जीवन। प्राचीन काल का ब्रह्मचर्य आश्रम ही आजकल का विद्यार्थी जीवन है। ब्रह्मचारी के लिए प्राचीन शास्त्रों में जो कर्त्तव्य बताए गए हैं, वह आज विद्यार्थी के लिए उतने ही लागू हैं, जितने उस समय में थे। समय और परिस्थिति के अनुसार थोड़े-बहुत अंतर हो सकते हैं, किंतु सामान्य कर्तव्य वही है, जो प्राचीन शास्त्रों में हैं। इसका कारण यह है कि विद्यार्थी को तो अपने जीवन में विद्या का अर्जन करना है। उसे कोई ऐसा कार्य नहीं करना, जिससे उसके इस मुख्य उद्देश्य में बाधा आती हो।
विद्यार्थी के कर्त्तव्य
प्राचीन शास्त्रों में विद्याध्ययन के समय जो उपदेश दिए हैं, उनका आशय निम्नलिखित है-
तुम आचार्य के पास रहकर विद्याध्ययन कैरो, तपोमय जीवन व्यतीत करो, शरीर के शृङ्गार की चिंता मत करो, नित्य कृत्यों के पश्चात् सन्ध्या – उपासना करो, संयम से जीवन व्यतीत करते हुए विद्योपार्जन में यत्नवान् हो। वस्तुतः विद्यार्थी को अपनी समस्त शक्ति अपने शरीर के निर्माण में, चरित्र के निर्माण में और विद्या के अध्ययन में लगा देनी है। यही कारण है कि प्राचीन काल में गुरुकुलों को, जहाँ विद्यार्थी पढ़ते थे, ग्रामों व नगरों से बहुत दूर रखा जाता था। वे संसार, राज्य अथवा समाज की सभी हलचलों से दूर रहते थे। आज से 100-110 वर्ष पूर्व भी भारत में विद्यार्थियों को सभी प्रकार के राजनैतिक व सामजिक आंदोलन से दूर रखा जाता था और यह कल्पना भी नहीं की जाती थी कि विद्यार्थी राजनैतिक या सार्वजनिक आंदोलनों में भाग लेंगे।
असहयोग और विद्यार्थी
जब महात्मा गांधी ने 1920 में असहयोग का बिगुल बजाया था, तब इस संग्राम में सम्मिलित होने के लिए उन्होंने सब विद्यार्थियों का आवाहन किया था और इसमें संदेह नहीं कि हजारों विद्यार्थियों ने अपने विद्यालय छोड़कर राजनैतिक आंदोलनों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया था। उस समय देश के अनेक विचारकों ने गांधीजी के द्वारा विद्यार्थियों के आवाहन के विरुद्ध विचार प्रकट किए थे। उसी समय से यह प्रश्न देश के विचारकों के सामने आया है कि विद्यार्थियों को राजनीति में भाग लेना चाहिए या नहीं। इसके पश्चात् भी देश के स्वातंत्र्य संग्राम में अथवा दूसरे आंदोलनों में सार्वजनिक नेता विद्यार्थियों को भाग लेने के लिए उत्साहित करते रहते हैं। सांप्रदायिक नेता अपने-अपने सांप्रदायिक प्रदर्शनों में विद्यार्थियों को सम्मिलित करते हैं, कम्यूनिस्ट अपने उम्र व हिंसात्मक आंदोलनों के लिए विद्यार्थियों को प्रयुक्त करते हैं और भाषा के आधार पर देश को खंड-खंड करने के लिए भी सुकुमार विद्यार्थियों की कोमल भावनाओं को भड़काया जाता है। राजनैतिक चुनावों में भी प्रत्येक दल अपनी-अपनी शक्ति के प्रदर्शन के लिए विद्यार्थियों को निमंत्रित करते हैं।
विद्या अध्ययन में हानि
इन सब बातों को देखते हुए यह प्रश्न और भी बहुत गंभीर हो जाता है कि विद्यार्थियों को राजनीति में भाग लेना चाहिए या नहीं। हम ऊपर कह चुके हैं कि विद्यार्थी का मुख्य कार्य विद्या उपार्जन है। इसलिए यह आवश्यक है कि उसे ऐसे किसी काम में न डाला जाए, जिससे उसके विद्या अध्ययन में बाधा पड़े। यदि वह एक बार अपने मुख्य उद्देश्य से अलग होकर दूसरे कार्यों में लग गया तो यह स्वाभाविक है कि उसे प्रपने मुख्य कार्य में हानि उठानी पड़े। विद्या अध्ययन के महान उद्देश्य के लिए अपनी महान शक्तियों को केंद्रित करना पड़ेगा। साधारणतः राजनैतिक आंदोलन उथली और हल्की नारेबाजी से चलते हैं। इनमें विवेक कम और जोश अधिक होता है।
विवेकहीन उत्साह
विद्यार्थी का हृदय स्वभावतः भावुक और मस्तिष्क अपरिपक्व होता है। वह नहीं समझ सकता कि कोई आन्दोलन यथार्थ है। वह केवल बाहरी तड़क- भड़क और जोशीली वार्ता से आकृष्ट होता है। यह संभव है कि कोई नेता किसी महान उद्देश्य से कोई आंदोलन संचालित करें और उसमें विद्यार्थियों का सहयोग भी सद्भावनापूर्वक प्राप्त करना चाहें। ऐसी अवस्था में भी हमारी नम्र सम्मति में विद्यार्थियों के सहयोग का प्रलोभन नहीं करना चाहिए। इन सार्वजनिक आंदोलनों में एक बहुत बड़ा दोष यह है कि यह आंदोलन
अनुशासन, शांति और नियंत्रण का वातावरण उपस्थित नहीं करते। इसलिए स्वभावतः इन आंदोलनों में भाग लेने वाले अनुशासन के महत्त्व को नहीं समझ पाते। विद्यार्थी जीवन में अनुशासन और नियंत्रण से दूर रहने का परिणाम यह होगा कि वह नागरिक होकर भी इन गुणों के महत्त्व को नहीं समझेगा, और अनुशासनहींन नागरिक किसी देश के गौरव की वस्तु नहीं होते।
अपवाद
प्रश्न यह है कि क्या विद्यार्थियों को किसी भी राजनैतिक आंदोलन में भाग नहीं लेना चाहिए? प्रत्येक नियम का कोई-न-कोई अपवाद होता है। जब देश की स्वतंत्रता खतरे में हो और कुछ भी विलंब करने से यह भय उत्पन्न हो कि देश पर शत्रुओं का अधिकार हो जाएगा, तब आबाल-वृद्ध प्रत्येक नर- नारी को देश के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ना चाहिए। प्राचीन शास्त्रों में क्षत्रिय का काम युद्ध करना बताया है। किंतु देश पर शत्रु के आक्रमण समय ब्राह्मण और वैश्य का भी कर्तव्य हो जाता है कि वह स्वातंत्र्य संग्राम में सहयोग दे। राजपूत काल में नारियों तथा अनेक बालकों ने भी स्वातंत्र्य- संग्राम में अपनी आहुति दी है। जापान के बालकों के संबंध में अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं कि वे देश के लिए हँसते-हँसते युद्ध में बलि हो गए। गुरु गोविंदसिंह के दो बालकों ने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। नेताजी श्री सुभाष की सेना में वानर सेना का कम महत्त्व नहीं था। इसलिए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि विद्यार्थी जीवन में बालकों को देश की राजनैतिक विचारधाराओं का अध्ययन करना चाहिए, उन पर चिंतन करना चाहिए, किंतु सार्वजनिक आंदोलनों में तब तक स्वयं कूदना नहीं चाहिए, जब तक देश पर शत्रुओं का आक्रमण ही न हो और देश की स्वतंत्रता खतरे में पड़ गई हो।