ग्राम्य जीवन पचास साल पहले
(1) प्रस्तावना – कवि की उक्ति
(2) ग्राम्य जीवन के गुण
(क) प्रकृति की खुली गोद
(ख) स्वच्छ जल – वायु
(ग) थोड़े में निर्वाह
(घ) सरल एवं कृत्रिम जीवन
(3) ग्राम्य जीवन के दोष-
(क) गन्दगी
(ख) शिक्षा
(ग) चिकित्सा की अवस्था
(घ) नगर की सुविधाओं का अभाव
(4) उपसंहार – सारांश

“अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है !
क्यों न इसे सबका मन चाहे?”
सचमुच ग्राम्य जीवन बहुत अच्छा होता है। गाँव प्रकृति की खुली गोद है, जिसमें धनी निर्धन, बालक-वृद्ध, नर-नारी सभी को समान रूप से विहार करने का सौभाग्य प्राप्त है। गाँव प्रकृति का दर्पण है, जिसमें प्रत्येक ऋतु की रंग-बिरंगी छटा झलकती है और दर्शकों का मन लुभाती है। जहाँ देखिए वहीं अनुपम सौन्दर्य दिखाई देता है। कहीं हरी-भरी घास है, तो कहीं लहलहाते हुए खेत। कहीं पक्षी दुम लताओं के साथ अठखेलियाँ कर रहे हैं, तो कहीं रंग-बिरंगे महकते हुए फूलों पर तितलियाँ क्रीड़ा कर रही हैं। कहीं वनस्थली में हरिण हरिणियों के साथ विचर रहे हैं, तो कहीं मयूर मयूरियों के साथ नाच रहे हैं। जलाशयों में लहराते हुए जल पर हरी सेवार छाई हुई है। सरोवरों में कमल खिले हुए हैं, उन पर काले-काले भ्रमर उड़ रहे हैं। बौरों से लदी हुई अमराइयों में कोयल की ‘कुहू’ ‘कुहू’ कानों में अमृत उँडेलती है। कुंजों में पक्षियों का कलरव हृदय में आनंद का संचार कर देता है। ऐसा आनंद और कहाँ मिल सकता है?
गाँव में स्वच्छ जल वायु को सुविधा भी है। प्रातःकाल पर्यटन को बाहर निकल जाइए। शीतल, मंद तथा सुगंधित वायु से आपका मन बाग-बाग हो जायगा। शुद्ध वायु आपको अपूर्व स्फूर्ति, अपूर्व शक्ति प्रदान करेगी। कल-कल नाद करते हुए झरने, वक्र गति से प्रवाहित होती हुई नदी, अथवा कुएँ के निर्मल शीतल एवं मधुर जल में से दो चुल्लू पानी पी लीजिए, देखिए चित्त को कैसी शांति मिलती है!
गाँव में थोड़े में निर्वाह हो जाता है। वहाँ के निवासियों की आवश्यकताएँ कम होती हैं। और उनमें से अधिकांश की पूर्ति उनके खेतों में से हो जाती है। न उन्हें शहरों का मुँह ताकना पड़ता है और न कस्त्रों का। घी-दूध की वहाँ कमी नहीं। खाने-पीने के पदार्थों का वहाँ बाहुल्य है। अतः निर्वाह के लिए उन्हें अधिक धन व्यय नहीं करना पड़ता।

ग्राम्य जीवन सरल तथा अकृत्रिम होता है। गाँव के निवासी सीधे और भोले होते हैं। नगर-निवासियों की भाँति छल छिद्र और दाँव-पेंच उनमें नहीं होता। घर पर आने वाले का सत्कार करना वे अपना कर्त्तव्य समझते हैं। Plain living (सादा- जीवन) उनका लक्ष्य है। भोजन, वस्त्र तथा रहन-सहन में सादगी उन्हें प्रिय है। दिखावटीपन से उन्हें घृणा है। कृत्रिमता से उन्हें अरुचि है बाहरी तड़क-भड़क, टीमटाम में वे अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा व्यय करना अनुचित समझते हैं।
ग्राम्य जीवन में जहाँ इतने आनंद हैं; ग्राम्य जीवन में जहाँ इतने गुण हैं, वहाँ कुछ दोष भी हैं। गाँव में स्वच्छता का नितान्त अभाव पाया जाता है। गाँव को गन्दगी की मूर्ति कहना अत्युक्ति नहीं होगी। जहाँ देखिए वहीं घूरे लगे हैं, मोरियों का गन्दा पानी बह रहा है। जिधर निकल जाइए उधर ही कूड़ा-करकट फैला है। गाँव में घर के द्वार पर कूड़ा फेंकने का बुरा रिवाज हुआ है। उसे बटोर कर दूर फेंकने का कष्ट कोई नहीं करता। स्थान- स्थान पर गड्ढों में भरा हुआ जल सड़ा करता है। गाँव वाले चाहे जहाँ मल-मूत्र विसर्जन के लिए बैठ जाते हैं। पशुओं का पेशाब तथा गोबर भी सड़ता रहता है। उस पर मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं। दुर्गन्ध के मारे आपको प्राणायाम साधना पड़ेगा। वर्षा के दिनों में तो गाँव साक्षात् नरक हो जाता है। गन्दगी के कारण गाँव में सदैव कोई न कोई रोग डेरा डाले रहता है। रोग-कीटाणु और मच्छर मोरियों, घूरों तथा गन्दे पानी के गड्ढों में पलते रहते हैं। कमी मलेरिया का प्रकोप होता है, तो कभी हैजा का। कभी चेचक का दौरदौरा होता है, तो कभी मोतीझरा का।
गाँव में शिक्षा का अखंड साम्राज्य है। ग्रामीण जन निरक्षर भट्टाचार्य होते हैं। उनके लिए काला अक्षर भैंस बराबर होता है। बड़े-बड़े गाँवों में भले ही पाठशालाएँ मिल जाएँ, पर यदि कहीं पाठशाला है भी तो वहाँ पुस्तकालय अथवा वाचनालय नहीं है जिसकी सहायता से गाँव वाले देश-विदेश के समाचारों से अवगत रह सकें और ज्ञान को बढ़ा सकें। फलतः उनमें कूप-मण्डूकता पाई जाती है। मानसिक विकास के कारण उनमें लड़ाई-झगड़े और मुकदमेबाजी होती रहती है। उनकी अशिक्षा का लाभ पटवारी, सिपाही आदि सरकारी कर्मचारी उठाते हैं, जो उन्हें लूटते रहते हैं।
ग्रामों में चिकित्सा को सुव्यवस्था नहीं है। न वहाँ चिकित्सालय हैं, न वहाँ अच्छे डाक्टर वैद्य हैं। वहाँ वाले कुत्ते की मौत मरते हैं। चिकित्सा के अभाव में ग्राम्य जीवन दुखदायी हो जाता है।
हमारे गाँव नगर की सुविधाओं से भी वंचित हैं। न वहाँ पक्की सड़कें हैं, न वहाँ रेल की सुविधा है, न वहाँ बिजली का दम- माता हुआ प्रकाश है, न वहाँ बिजली के पंखे हैं, न वहाँ मनोरंजन के आधुनिक साधन हैं, न वहाँ टेलीफून हैं, न वहाँ तारघर हैं, धन-जन की रक्षा का भी हमारे गाँवों में सुप्रबंध नहीं है। श्राए दिन लूट-मार की घटनाएँ घटित होती हैं।
सारांश यह है कि यद्यपि ग्राम्य जीवन में उपर्युक्त दोष विद्यमान हैं, तथापि जो आनंद ग्राम्य जीवन को प्राप्त हैं वे नागरिक जीवन को नहीं। घी, दूध, मक्खन ताजी साग-सब्जी, कंद-मूल-फल, स्वास्थ्यवर्धक जल वायु और प्राकृतिक सौंदर्य गाँव की अच्छाइयाँ हैं। पंचायत – राज-योजना के श्रीगणेश से अब हमारे गाँव शनैः शनैः दोष-मुक्त होते जा रहे हैं। गंदगी, अशिक्षा, चिकित्सा का अभाव, पक्की सड़कों की कमी, धन-जन की रक्षा आदि के निराकरण के हेतु उचित प्रयत्न किए जा रहे हैं। आशा है निकट भविष्य में हमारे ग्राम्य स्वर्ग-तुल्य हो जाएँगे और प्राम्य जीवन – वरदान स्वरूप।
परंतु आज स्थिति बदल रही है।