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जगद्गुरु भारत

Vishwaguru bharat par nibandh

वर्ष 1954 में भारत के प्रधानमंत्री और लोकनायक पंडित जवाहरलाल नेहरू ने विदेशों में जाकर पंचशील के उस महान और पवित्र संदेश का प्रचार किया, जिसका आधार प्राचीन भारत की आध्यात्मिक और नैतिक संस्कृति है। वे जहाँ जाते, वहीं की जनता उनका संदेश सुनने के लिए आतुर हो उठती। वे जहाँ जाते, वहाँ महात्मा गांधी का और महात्मा बुद्ध का अहिंसा और प्रेम का संदेश सुनाते। आज अणुबम की विभीषिका से डरा हुआ पश्चिम केवल भारत की ओर आशाभरी नजरों से देख रहा है। सर्वनाश की आशंका से भयभीत संसार को केवल भारतवर्ष की शिक्षा ही प्रकाश की किरण घने बादलों में आशा की चमकीली रेखा के रूप में दीखती है। विश्व को भस्म करने वाले महायुद्धों के प्रचंड दावानल को शांत करने की शक्ति भारत की अहिंसा और प्रेम की शीतल वाणी में ही है। यही कारण है कि सारा संसार भारतवर्ष की शिक्षा को सुनने को उत्सुक है।

भारतवर्ष आज इस 21वीं सदी में ही जगत् को नई शिक्षा नहीं देने लगा है, अत्यंत प्राचीन काल से हमारा देश जगद्गुरु रहा है। आज से हजारों वर्ष पूर्व भारत के प्रथम स्मृतिकार भगवान् मनु ने लिखा था कि-

“एतद्देशप्रसूतस्य  सकाशादग्रजन्मनः।

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरत्पृथिव्यां सर्वमानवाः॥”

इसका सीधा-सादा अर्थ यह है कि संसार के लोग भिन्न-भिन्न कोनों से भारतवर्ष में आते थे और यहाँ शिक्षा प्राप्त करते थे। यदि प्राचीन धर्मों का इतिहास देखा जाए तो यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि पारसी धर्म पर वैदिक मान्यताओं का प्रभाव पड़ा था। ईसाई धर्म पर बुद्ध की शिक्षाओं की छाप स्पष्ट रूप से दीखती है। पारसियों की अग्नि पूजा भारतीयों के यज्ञों का ही एक रूप है।

हमारे राम और सीता के उत्सव प्राचीन अमेरिका में भी मनाए जाते थे, मैक्सिको में प्राचीन मूत्तियाँ आज भी देखी जा सकती हैं। इण्डोनेशिया, जावा, सुमात्रा, कम्बोडिया आदि देशों में हमारे देश के प्राचार्य और व्यापारी जाकर उन्हें धर्म, दर्शन, संस्कृति और सभ्यता का पाठ पढ़ाते थे। अशोक के समय चीनी, तुर्किस्तान में भारतीय उपनिवेश की नींव पड़ी थी। वहाँ चीनियों के आने से पूर्व ही वर्तमान यारकंद नदी को सीता नाम दिया गया था। इस प्रदेश में भारतीय सभ्यता के इतने अधिक अवशेष मिले हैं कि इसे ‘उपरला हिंद’ कहा जाता है। सातवाह्नों के उत्कर्ष के समय (50 ई. पूर्व से 75 ई.) में भारतीयों ने दक्षिण के पूर्वी एशिया के विविध प्रदेशों में अपना राज्य और अपनी संस्कृति स्थापित करके ‘उपरले हिंद’ का निर्माण किया।

भारतीय व्यापारी इन प्रदेशों में छठी शती ई. पू. से ही आ रहे थे। ईस्वी सन् के शुरू में वर्तमान वीतनाम (फ्रांसीसी हिंद- चीन) में कौठार और पांडुरंग नाम के दो छोटे भारतीय राज्य थे। मेकांग नदी के तट पर एक तीसरा बड़ा भारतीय राज्य था, जिसकी स्थापना कौण्डिण्य नामक ब्राह्मण ने की थी। चीनी इस राज्य को फूनान कहते थे। जावा व सुमात्रा में भी प्रायः शैवों ने भारतीय बस्तियाँ बसाई। 192 ई. में चम्पा (अनाम) में भारतीयों ने एक राज्य स्थापित किया जो उस समय से 12 सौ वर्ष तक किसी प्रकार चलता ही रहा। ईसा की पहली शती में पश्चिम में मैडागास्कर द्वीप में भारतीय बस्तियाँ बसीं। वस्तुतः प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति भारत की सीमाओं को पार कर साइबेरिया से श्रीलंका और ईरान तथा अफगानिस्तान से प्रशांत महासागर के बोरनियों और बाली टापू तक फैल गई थी।  

धर्म व संस्कृति का प्रचार

संभव है कि किसी समय महत्त्वाकांक्षी भारतीय राजाओं ने अपनी विशाल सेनाओं द्वारा विदेशों पर आक्रमण किया हो, किंतु यह कोई हमारे लिए विशेष गौरव की बात नहीं है। भारत का तो गौरव इस बात में है कि खून की बूँद बहाए बिना भारत ने अत्यंत विशाल प्रदेश में संस्कृति और धर्म का महान् राज्य स्थापित कर लिया था। भारत के साहसी भिक्षुकों, धर्मोपदेशकों और व्यापारियों ने हिमालय की उत्तुंग चोटियों को लाँघकर तथा विशाल सागरों के वक्षःस्थल को चीरकर दूर-दूर के प्रदेशों को भारतीय संस्कृति के रंग में रंग दिया। यह स्मरण रखना चाहिए कि प्राचीन काल से संस्कृति का मूल आधार धर्म था। उसी के साथ वर्णमाला, भाषा, साहित्य, कला, शिल्प आदि मनुष्य को सुसंस्कृत और सभ्य बनाने वाली कलाएँ भी वहाँ पहुँच जाती थीं। दक्षिणी-पूर्वी एशिया का यह भू-भाग भारत का ही अंग समझा जाता था। उस समय यूनानी इसे ‘गंगा पार का हिंद’ कहते थे। उत्तर दिशा में मध्य एशिया और अफगानिस्तान में भी, जो आजकल मुस्लिम राज्य है, बुद्ध की पूजा होती थी। मिस्री, यूनानी और अरबी संस्कृतियों पर भारत की संस्कृति व शिक्षा का अद्भुत प्रभाव पड़ा था। आज यह सत्य निर्विवाद कोटि तक पहुँच गया है कि अंकगणित के मौलिक सिद्धांत भारत से दूसरे देशों में गए थे भारतीयों की यह विदेश – विजय केवल साम्राज्य या आर्थिक लोभ के कारण नहीं हुई थी। जैसा कि हम ऊपर कह चुके हैं, इसका एक प्रेरक कारण लोककल्याण व धर्म प्रचार की भावना भी थी। उस समय के संभवतः सबसे विस्तृत राज्य के स्वामी अशोक के पुत्र व पुत्री धर्म प्रचार की पुनीत भावना से भिक्षु वेश धारण करके विदेशों में गए थे। व्यापारियों के साथ भारत का सांस्कृतिक प्रभाव भी पहुँचता था।

विदेशों में भारतीय उपनिवेश स्थायी रूप से बस जाते थे। यह कार्य दो तरह से होता था, भारतीय राजकुमार हिंदू राज्यों की नींव डालते थे अथवा कौण्डिण्य या अगस्त्य जैसे ऋषि-मुनि आश्रम व तपोवन स्थापित करते थे। चीन और मंगोलिया जैसे देशों में अनेक बौद्ध आचार्यों ने जाकर बौद्ध धर्म फैलाया था। पहली सदी में भारतीय संस्कृति चीन पहुँची और वहाँ से कोरिया तथा कोरिया से छठी सदी में जापान। 1200 वर्षों तक भारतीय विद्वान अपार कष्ट सहते हुए चीन जाकर संस्कृत ग्रंथों का चीनी भाषान्तर करते रहे। जापानी विद्वान् नानजियों के त्रिपिटिक की प्रसिद्ध सूची में चीनी में अनूदित 1662 संस्कृत- ग्रंथों का वर्णन है। अश्वघोष तथा नागार्जुन आदि प्रसिद्ध भारतीय विद्वानों का परिचय चीनी साहित्य से हुआ है। ह्वानसांग और फाहियान जैसे चीनी यात्री यहाँ आकर ज्ञान व संस्कृति का परिचय प्राप्त करते रहे। सातवीं सदी में इसने तिब्बत में प्रवेश किया और तिब्बत के धर्म- दूतों ने इसे मंगोलिया तक पहुँचाया। यह जानकारी शायद बहुत मनोरंजक होगी कि तिब्बत को वर्णमाला की आवश्यकता थी। वह थोन संभोर नामक तिब्बती विद्वान को कश्मीर भेजकर प्राप्त की गई। इसके बाद भारतीय ग्रंथों के अनुवाद हुए और भारतीय संस्कृति का तिब्बत में प्रसार हुआ। दक्षिण-पूर्वी एशिया में करीब एक हजार वर्ष तक हिंदू राज्य विद्यमान थे, 16वीं सदी में इस्लाम का वहाँ प्रवेश हुआ और हिंदू राज्य वहाँ समाप्त हो गए।

भारतीय साम्राज्य का गौरव

एक ऐतिहासिक विद्वान् ने जगद्गुरु भारत द्वारा देश-विदेशों में ज्ञान व संस्कृति के प्रचार को संक्षिप्त परंतु सुंदर शब्दों में इस तरह व्यक्त किया है-

“भारत ने उस समय आध्यात्मिक और सांस्कृतिक साम्राज्य स्थापित किए थे, जबकि सारा संसार बर्बरतापूर्ण कृत्यों में डूबा हुआ था। यद्यपि आज के साम्राज्य उनसे कहीं अधिक विस्तृत हैं, पर उच्चता की दृष्टि से वे इनसे कहीं बढ़-चढ़कर थे, क्योंकि वे वर्तमान साम्राज्यों की भाँति तोपों, वायुयानों और विषैली गैसों द्वारा स्थापित न होकर सत्य और श्रद्धा के आधार पर खड़े हुए थे।”

परंतु समय एक-सा नहीं रहता। देश के अंदर अनेक सामाजिक दोष उत्पन्न हो गए। भारत में कर्मण्यता, महत्त्वाकांक्षा, धर्म-भावना और उत्साह शिथिल होने लगे। इस्लाम के आने के साथ ही मुस्लिम जातियों ने भारत पर आक्रमण किया। राजनैतिक पराधीनता के साथ-साथ भारतीय ज्ञान व संस्कृति का प्रचार भी विदेशों में समाप्तप्रायः हो गया तथापि उसने इस्लाम पर प्रभाव अवश्य डाला। मुस्लिम विदेशी शासक यहाँ की कला से प्रभावित हुए। अल- बेरूनी, जो महमूद गजनी के साथ भारत आया था, भारतीय ज्ञान व संस्कृति के कोष का संग्रह करता रहा। दाराशिकोह ने उपनिषदों का अनुवाद फारसी में किया। पंचतंत्र आदि ग्रंथों का अनुवाद मुस्लिम देशों में किया गया और वे बहुत लोकप्रिय हुए।

समय का प्रवाह चलता रहा। देश में मुस्लिम शासन भी न रहा और अंग्रेज शासक बन गए। स्वयं परतंत्र देश किसी को क्या संदेश देता, परंतु भारत की रत्नप्रसविनी भूमि ने विवेकानंद, रामतीर्थ आदि विद्वान उत्पन्न किए, जो यूरोप, अमेरिका आदि में प्रचार करते रहे। ऋषि दयानंद के वेद भाष्य से मैक्समूलर प्रभावित हुए। अनेक जर्मन व अमेरिकन विद्वानों ने उपनिषदों, गीता व अन्य धर्म-ग्रंथों का अध्ययन किया और ज्ञान प्राप्त किया। श्री जगदीशचंद्र वसु ने संसार को यह बताया कि वृक्षों में जीवन है और वे भी जीवित प्राणियों की भाँति सुख-दुख अनुभव करते हैं। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के अमर काव्य ने यूरोप की आत्मा को प्रभावित किया। गांधी के सत्य व अहिंसा का संदेश पंडित जवाहरलाल के द्वारा आज भी विश्व को प्रभावित कर रहा है। सचमुच भारत जगद्गुरु है।

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