संकेत बिंदु – (1) कर्म ही पूजा का अर्थ (2) कर्म का संबंध सभी प्राणियों से (3) कर्म सिद्धि और अमरतत्त्व का द्वार (4) मानव जीवन का लक्ष्य-मोक्ष प्राप्ति (5) कर्म ईश्वर का रूप।
जल, अक्षत, फल, गंध, पुष्प, धूप, दीप तथा नैवैद्य से देवताओं का अर्चन करना पूजा कहलाता है। इसी प्रकार देवी-देवताओं के प्रति विनय, श्रद्धा और समर्पण भाव प्रकट करने वाला कार्य भी पूजा है। संत महात्माओं का और गुरुजनों का अत्यधिक या यथेष्ट आदर-सत्कार पूजा है। यों तो पूजा के विविध अर्थ हैं, किंतु लोक में किसी अधिकारी या कर्मचारी को प्रसन्न और संतुष्ट करने के लिए दिया जाने वाला कोई उपहार भी ‘पूजा’ कहा जाता है। किसी को मारने-पीटने या दंडित करने की क्रिया को भी व्यंग्य में ‘पूजा’ कहते हैं।
सूक्तिकार इन सबको नकारता हुआ कहता है, पूजा तो ‘कर्म’ करना ही है। ‘ही’ निपात जोड़कर वह अपने कथन की दृढ़ता और निश्चितता सूचित करता है। ‘कर्म ही’ अर्थात् निश्चित रूप से ‘कर्म’ करना ही ईश्वर का अर्चन, पूजन है। सत्य साईं बाबा इसका समर्थन करते हुए कहते हैं, ‘कर्म ही पूजा है और कर्तव्य पालन भक्ति है।’ अपनी ‘प्रियतम’ कविता में निराला जी पूजा अर्थात् ईश-स्मरण से अधिक कर्म को महत्त्व देते हैं। ‘पुजारी, मन, पूजन और साधन’ कविता में विश्वकवि रवींद्रनाथ ठाकुर कहते हैं-
“ध्यान पूजा को किनारे रख दे,
उनके साथ काम करते हुए पसीना बहने दे।”
अर्थात्, हे मानव! तू कर्ममय जीवन स्वीकार कर, उसमें ही तेरी मुक्ति है।
कर्म क्या है? जीवन की साधारण क्रिया या शरीर की चेष्टा कर्म है। प्राणियों के द्वारा पूर्व जन्मों में किए हुए ऐसे कार्य जिनका फल इस समय भोग रहा है और आगे चलकर भोगेगा, कर्म हैं। वे कार्य जिन्हें पूरा करना धार्मिक दृष्टि से कर्तव्य समझा जाता है, कर्म हैं। धार्मिक क्षेत्र में ऐसे कार्य जिन्हें करने का शास्त्रीय विधान हो, कर्म हैं। ऐसे सब कार्य जो किसी को स्वतः तथा स्वाभाविक रूप से सदा करने पड़ते हैं, कर्म हैं।
जैसे धूप और छाया नित्य-निरंतर परस्पर संबद्ध हैं, वैसे ही कर्म सभी प्राणियों से संबद्ध है। यह पंच भौतिक शरीर कर्म के वश में है। कर्म शक्ति से संसार परिचालित होता है। कर्म के नियम के अनुसार सृष्टि की रचना होती है। कर्म के वशीभूत होकर जीव नाना योनियों में भ्रमण करता है। अतः बिना कर्म के मनुष्य जीवित ही नहीं रहता।
कर्म तप है। साक्षात् गुरु और परमेश्वर है। सिद्धि और अमृतत्व का द्वार है। विष्णु के सालोक्यादि चारों लोकों की प्राप्ति का साधन है। देवत्व, मनुष्यत्व, राजेंद्रत्व, शिवत्व तथा गणेशत्व आदि कर्म के फलस्वरूप ही प्राप्त होते हैं। मुनीन्द्रता, तपस्विता, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व, म्लेच्छत्व, जंगमत्व, शैलत्व, राक्षसत्व, किन्नरत्व, वृक्षत्व, पशुत्व, क्षुद्रजंतुत्व, कृमित्व, दैत्यत्व, दानत्व तथा असुरत्व की प्राप्ति में भी कर्म ही प्रधान है। इसलिए भर्तृहरि कहते हैं- ‘नमस्तेभ्यः कर्मेभ्यो विधिरपि न येम्य: प्रभवति।’ अर्थात् हम उन कर्मों को नमस्कार करते हैं, जिन पर विधाता का भी वश नहीं चलता।
महाभारत के शांतिपर्व में वेदव्यास जी कहते हैं ‘अभिमानकृतं कर्मनैतत् फलवदुच्यते।’ अर्थात् अभिमानपूर्वक किया गया कर्म सफल नहीं होता। पंडित दीनानाथ ‘दिनेश’ जी के मतानुसार कर्म का तप तभी सिद्धि प्राप्त करेगा ‘जब कर्मपन का अभिमान न आए, कर्म का बोझ मन और बुद्धि को न झुकाए, उमंग और उत्साह के हाथ-पैर न टूटें, प्रसन्नता न कुम्हलाए, आत्मा सदा हँसता-खेलता रहे और सर्वत्र आनंदमय ब्रह्म का दर्शन हो।’ विनोबा जी की धारणा तो यहाँ तक है, ‘कोई भी कर्म जब इस भावना से किया जाता है कि वह परमेश्वर का है तो मामूली होने पर भी पवित्र बन जाता है।
महाकवि जयशंकर प्रसाद कर्म के लौकिक महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं-
“कर्म का भोग, भोग का कर्म।
यही जड़ का चेतन आनंद॥”
मानव जीवन का लक्ष्य है मोक्ष प्राप्ति। सांसारिक आवागमन से मुक्ति। जीवन में सत्, चित् और आनंद की प्राप्ति। इन सबके लिए मनुष्य ईश्वर की पूजा करता है, देवार्चन करता है। व्रत, तप और साधना से ईश्वर से एकात्मता स्थापित करता है। मंदिर, मठ, तीर्थ तथा पूज्य प्रतीकों के दर्शन कर कृतार्थता अनुभव करता है। यह तभी संभव है, जब उसमें ‘कर्म’ निहित हो। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के शब्दों में-
“कर्महीनता मरण कर्म कौशल है जीवन।
सौरभ रहित सुमन समान है कर्महीन जन॥”
स्व कर्तव्य या स्वधर्म रहित पूजन व्यर्थ है, निष्फल है। घायल, दुख-दर्द, कष्ट-पीड़ा में पड़े या बूढ़े माता-पिता की सेवा कर्म को त्याग, मंदिर मठ पूजन से परमेश्वर भी प्रसन्न होने वाले नहीं। बिना अध्ययन रूपी कर्म के केवल परमेश्वर पूजा से परीक्षार्थी उत्तीर्ण होने वाला नहीं। नौकरी के समय में ‘भजन’ में समय बिताने से सेवा-निवृत्ति ही पल्ले पड़ेगी, पदोन्नति नहीं।
कर्म स्वतः ईश्वर रूप है। छोटे-से-छोटा कर्म भी परमात्मा को अर्पित पुष्प है। विनय, श्रद्धा, समर्पण आदि सद्गुणों का उद्गम है। जड़ जीवन में चेतनता का गुर है और है कर्म स्वतः परमेश्वर की उपासना, ईश की अर्चना और जगत्-नियंता की पूजा। इसीलिए अथर्ववेद का ऋषि कामना करता है, ‘मेरी बुद्धि कर्मों की ओर अग्रसर हो।’ यजुर्वेद का ऋषि, ‘इस लीक में कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीवित रहने की कामना करता है।’ (कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः)
वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति तथा भौतिक समृद्धि का आधार कर्म रूप में प्रकृति की पूजा है। पूजा से प्रसन्न प्रकृति ने अपने गुप्त भंडार और सुख-समृद्धि के द्वार प्राणी मात्र के लिए खोल दिए। अतः कर्म रूपी ईश्वर की पूजा करके अपने जीवन में सत्, चित् और आनंद की अजस्त्र स्रोतस्विनी प्रवाहित करनी चाहिए। इसी में जीवन का मंगलमय वरदान निहित है।