Lets see Essays

 यदि मैं डॉक्टर होता

yadi main doctor hota hindi nibandh

संकेत बिंदु – (1) व्यक्तित्व और क्लिनिक को सँवारना (2) रोगियों का सही परीक्षण व निदान (3) रोगियों को उनकी बीमारी की सही जानकारी (4) उचित व्यवहार (5) उपसंहार।

भगवान और डॉक्टर की हम समान आराधना करते हैं, किंतु करते तभी हैं जब हम संकट में होते हैं, पहले नहीं। संकट समाप्त होने पर दोनों की समान उपेक्षा की जाती है। ईश्वर को भुला दिया जाता है और डॉक्टर को तुच्छ मान लिया जाता है।

– अमरीकी पादरी जान ओवेन (एपिग्राम्स)

यदि मैं डॉक्टर होता तो व्यक्तित्व को सजा – सँवार कर रखता। अपने ‘क्लिनिक’ (औषधालय) को स्वच्छ, सुंदर और आकर्षक बना कर रखता। क्लिनिक का फर्नीचर बहुकीमती रखता ताकि उस पर बैठने वाले रोगी को सुखानुभूति हो। रोगियों के स्वागत और उन्हें क्रम से भेजने के लिए विनम्रता और मधुरता की मूर्ति किसी सुंदरी को

‘रिसेप्सनिस्ट’ रखता ताकि उसके व्यवहार और सौंदर्य से प्रभावित ही आगन्तुक रोगी बिना दवा के ही कुछ क्षण ‘रिलेक्स’ महसूस करें।

मैं रोगी से यथासंभव प्रेम से बात करता। उसे अपने रोग को समझाने का अवसर देता। खुद भी ध्यान से उसकी बात सुनता। दवाई का परचा लिखने में जल्दी न करके, बीमारी के संबंध में उसके प्रश्नों का उत्तर देता और स्वयं उसके लिए जो ‘प्रीकोशन्स’ (सावधानियाँ) हैं, उनके बारे में सचेत करता। विशेषतः पथ्य के संबंध में हिदायतें जरूर देता, किंतु बातूनी मरीज को उसकी बीमारी समझाकर चलता करने की चेष्टा भी करता, क्योंकि समय बहुमूल्य है, जिसकी कीमत कोई चुका नहीं सकता। शेक्सपीयर के शब्दों में ‘More needs she the devine than the physicion’. उसे डॉक्टर की अपेक्षा ईश्वरीय कृपा की अधिक आवश्यकता है।

रोगी की परीक्षा करते हुए मैं अपने मित्र, बंधु या संबंधियों का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करता। केवल मेरे और मरीज के सिवा तीसरे की उपस्थिति मुझे असह्य होती। क्योंकि तीसरे व्यक्ति की उपस्थिति में रोगी अपने रोग की चर्चा खुलकर नहीं कर पाता। ‘एमरजेन्सी केस’ के सिवाय क्यू (पंक्ति) के बिना देखना शायद मुझे नागवार गुजरता।

यदि रोगी के घर जाकर उसे देखना पड़ता तो मैं उसको प्राथमिकता देता। इसलिए नहीं कि ‘ विजीटिंग फीस’ बनेगी, बल्कि यह सोचकर कि प्रायः आपत्काल और अपरिहार्य परिस्थिति में ही कोई रोगी डॉक्टर को घर पर बुलाता है। मरीज को देखने के बाद उसके सामने ही ‘विजीटिंग फीस’ की माँग नहीं करता, क्योंकि मरीज के सामने ‘विजीटिंग फीस’ माँगने या लेने से मरीज पर अच्छा असर नहीं पड़ता।

नारी रोगियों से, विशेषतः युवतियों से मनसा, वाचा, कर्मणा थोड़ा सचेत रहकर व्यवहार करता, क्योंकि चरित्र पर लगा लांछन, स्पष्टीकरण के साबुन से नहीं धुलता।

मैं देखता हूँ कि आज के डॉक्टर रोगी को रोग का नाम या सही-सही बीमारी स्वयं समझते हुए भी नहीं बताते, मैं ऐसा नहीं करता। अनेक डॉक्टर अपनी ‘जेब गर्म रखने’ और रोगी को सदा सहमा रखने के लिए बीमारी को बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं, उसी दृष्टि से वे इलाज भी करते हैं। मुझे याद है मेरे एक मित्र को बुखार नहीं टूट रहा था तो डॉक्टर ने टी.वी. घोषित कर दिया था। दूसरे मित्र को ‘हाई ब्लड प्रेशर’ और वक्ष में माँसल-पीड़ा होने पर ‘हार्ट अटेक’ घोषित कर अस्पताल में भर्ती करा दिया और वह साल भर तक ‘हार्ट अटेक’ की दवाइयाँ ‘सोरबीट्रेट’ तथा ‘डिपिन- 5’ खाता रहा। मैं ऐसा काम नहीं करता क्योंकि ऐसा करना रोगी के साथ ही नहीं अपनी आत्मा के साथ भी धोखा करना है

दूसरी ओर ‘ब्लड् – प्रेशर’ (रक्त चाप) आज का आम रोग है और आज का डॉक्टर ब्लड प्रेशर लेने के बाद कभी नहीं बताता कि ब्लड प्रेशर कितना है। वह ऊपर का जरा ज्यादा है या नीचे का कुछ कम है आदि भ्रमात्मक वाक्य बोलता है। मैंने एक बार एक विख्यात अस्पताल में एक मरीज को परिचारिका से इसी बात पर झगड़ते देखा।

परिचारिका (‘सिस्टर’) को सही ‘ब्लड प्रेशर’ बताकर अपनी जान छुड़ानी पड़ी। मैं इस प्रकार के व्यवहार को प्रवंचना समझता।

आज के डॉक्टरों का एक और सनकीपन है। बीमारी समझ में नहीं आए तो टेस्टों (परीक्षणों) पर उतर आते हैं – ई.सी.जी. करवाओ, ब्लड टेस्ट करवाओ, यूरीन और स्टूल टेस्ट करवाओ, एक्सरे करवाओ। अब तो अल्ट्रासाउंड और ऍजुएग्राफी भी करवाई जाने लगी है। फलतः रोगी का पैसा और समय नष्ट हो रहा है, मानसिक तनाव बढ़ रहा है। पर साहब डॉक्टरों को क्या चिंता? यह ठीक है कि टेस्ट जरूरी हैं, पर अपनी जगह। बीमारी समझने के लिए टेस्ट और रोग पकड़ने के लिए टेस्ट में अंतर है। मैं अनिवार्य स्थिति में ही ऐसे परीक्षण करवाता।

यदि मैं समझता कि रोगी का रोग मेरी समझ या पकड़ में नहीं है तो उसे किसी अन्य विशेषज्ञ डॉक्टर से इलाज करवाने की सलाह देता।

फीस लेना डॉक्टर का अधिकार है। प्रतिष्ठा के नाम, रोग विशेष के नाम पर अथवा बढ़ती महँगाई की दुहाई देकर ‘डेली रुटीन फीस’ को बढ़ाना मैं अन्याय समझता। एक मॉडरेट (सामान्य) फीस, मध्यवर्गीय व्यक्ति जिसका भार सहज उठा सकता हो, मेरे ‘डेली चार्जेस’ होते। रोगी के कपड़े उतरवाने की चेष्टा करना, मेरे डॉक्टरी-धर्म के विरुद्ध होता।

Leave a Comment

You cannot copy content of this page