Lets see Essays

यदि मैं पूँजीपति होता

yadi main poonjipati hota hindi nibandh

संकेत बिंदु – (1) प्रकाशन उद्योग में पूँजी लगाता (2) हिंदी भाषा का प्रकाशक (3) नवोदित लेखकों को प्रोत्साहन (4) पुस्तक विक्रय के प्रकार (5) सूचीपत्र प्रेषण और कर्मचारियों को समय पर वेतन व बोनस।

उद्योग या व्यवसाय में पूँजी लगाना पूँजीपति होने की अनिवार्य शर्त है। अतः यदि मैं पूँजीपति हुआ तो उद्योग शुरू करूँगा या व्यवसाय में धन लगाऊँगा। उद्योग या व्यवसाय में पूँजी लगाने का मानवीय दृष्टि से महत् पुण्य यह होगा कि मैं कुछ लोगों को जीविका दे सकूँगा। देश की बढ़ती बेरोजगारी का एक अंश ही सही, कम करने में अपना योगदान दे सकूँगा। दूसरे, उद्योग या व्यवसाय से प्राप्त आर्थिक लाभ पर आयकर देकर राष्ट्र की आर्थिक सेवा करने का सौभाग्य भी प्राप्त करूँगा।

यदि मैं पूँजीपति होता तो प्रकाशन उद्योग में पूँजी लगाता और पुस्तक-व्यवसाय को स्वीकार कर माँ सरस्वती की सेवा में अपना जीवन भी कृतार्थ करता। अमरीका आदि में हरे कृष्ण आंदोलन के प्रणेता, चैतन्य महाप्रभु के अनुयायी, वैष्णव संत ए.सी. प्रभुपाद ने मृत्युपूर्व ये वचन कहे थे, मेरे गुरु महाराज कहा करते थे, ‘जो कुछ भी धन हो, उससे पुस्तकें प्रकाशित करो। छापो, और छापो मैंने अपनी पुस्तकें छापी हैं। अब तुम भी ऐसा ही करो।’

प्रकाशन का क्षेत्र व्यापक तथा विविधतापूर्ण है। ‘प्रत्येक का ज्ञान, किंतु विशेषता किसी की नहीं, इस उक्ति के विरुद्ध मैं रहूँगा। इसलिए मैं केवल ‘हिंदी’ का प्रकाशक बनूँगा। इससे मुझे तीन प्रकार का आंतरिक सुख प्राप्त होगा – (1) माँ भारती की सेवा का सुअवसर : शुद्ध और प्रामाणिक ग्रंथ छापकर (2) राष्ट्र की सेवा : हिंदी में विश्व स्तर के प्रकाशन करके हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर सिंहासनारूढ़ के प्रयत्न द्वारा। (3) हिंदी पर लांछन लगाकर, गालियाँ देकर माँ भारती पर कीचड़ उछालने वालों को अपने प्रकाशनों द्वारा मुँह तोड़ जवाब देकर।

मैं वर्ष में लगभग पचास पुस्तकों के प्रकाशन का कार्यक्रम रखूँगा। इसमें कविता और गद्य की प्राय: सभी विधाओं पर पुस्तकें छापूँगा। हिंदी का एक क्षेत्र ऐसा भी है, जिसमें बहुत कम प्रकाशन हुआ है। वह है, ‘शोध-प्रबंध।’ तीन वर्ष से लेकर पाँच-छह वर्ष तक खोज करके अपनी मान्यता प्रस्तुत करने वाले शोध-प्रबंध विश्वविद्यालय की अलमारियों में ही पांडुलिपि रूप में धूल चाटते रहें, इससे बड़ी लज्जाजनक बात क्या हो सकती है? इसलिए मैं कम-से-कम दस शोध-प्रबंध प्रतिवर्ष अवश्य छापूँगा। हिंदी का बाल- साहित्य तकनीकी दृष्टि से बहुत उच्च स्तर का है, इसलिए इस क्षेत्र को हाथ भी नहीं लगाऊँगा।

कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध या समीक्षा के क्षेत्र में नवोदित लेखकों को प्रोत्साहन देने में मेरी प्राथमिकता रहेगी। कारण, इनमें से ही जयशंकर प्रसाद, निराला और महादेवी जन्म लेंगे। प्रेमचंद, अज्ञेय और धर्मवीर’ भारती’ उभरेंगे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे महारथी प्रकट होंगे। यह सच है कि बिक्री की दृष्टि से इनका मूल्य नगण्य-सम है, किंतु साहित्य-निर्माताओं की दूसरी पंक्ति तैयार करने के लिए यह अनिवार्य है। कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। हाँ, एक ही लेखक को प्रतिवर्ष छापने से गुरेज करूँगा। क्योंकि इससे अन्य लेखकों को सुअवसर मिलने में व्यवधान पड़ता है।

पुस्तक की कम्पोजिंग कम्प्यूटर से होगी। प्रूफरीडिंग के लिए प्रफूरीडर रखूँगा। तीन बार प्रूफ की शुद्धि होने के बाद चौथा प्रूफ लेखक को भेजूँगा ताकि तकनीकी दृष्टि से कोई शब्द अशुद्ध जा रहा है तो वह शुद्ध हो सके और पुस्तक शुद्ध छप सके। जैसे घर में जितनी बार झाडू मारो, कुछ-न-कुछ कूड़ा निकल ही आएगा, उसी प्रकार कहीं-न-कहीं अशुद्धि छूट जाना स्वाभाविक है। इसके बाद पुस्तक की फिल्म बनेगी और छपेगी। मेरे प्रोडक्शन विभाग का यह कर्तव्य होगा कि पुस्तक की छपाई उच्च कोटि की हो।

पुस्तक-विक्रय के भी तीन प्रकार हैं –

(1) खुदरा व्यापारियों द्वारा

(2) सीधे स्कूल, कॉलिज तथा पब्लिक लायब्रेरियों से संपर्क करके।

(3) सरकारी खरीद।

साहित्यिक पुस्तकों का खुदरा विक्रेता आमतौर पर साल भर का उधार लेता है। अप्रैल में पेमेंट कर दे तो सबसे बढ़िया पेमेंट- कर्ता माना जाता है। मगर अप्रैल में पेमेंट करना इन पुस्तक-विक्रेताओं की प्रवृत्ति और प्रकृति के विरुद्ध है। आजकल – आजकल करते चार-पाँच मास में पेमेंट हो जाए तो द्वितीय श्रेणी का पुस्तक-विक्रेता है। अनेक पुस्तक विक्रेता तो प्रकाशक की रकम हजम करने में ही तन- मन का सुख मानते हैं। इसलिए विक्रय के क्षेत्र में खुदरा पुस्तक-विक्रेताओं को कम प्रश्रय दूँगा।

हाँ, कर्मचारियों की एक टीम बनाऊँगा जो समस्त भारत के बड़े नगरों के स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय तथा पब्लिक लायब्रेरियों को वर्ष में दो बार विजिट करेगी। उनको अपना सूचीपत्र देगी तथा आदेश लेने का प्रयत्न करेगी।

बिक्री की दृष्टि से एक कार्य निरपेक्ष भाव से प्रतिदिन होता रहेगा। वह है, सूची- पत्र प्रेषण। प्रति छमाई स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, पब्लिक लायब्रेरी तथा अन्य संस्थाओं में जिनके निजी पुस्तकालय हैं, उनको सूचीपत्र भेजा जाएगा ताकि अपने प्रकाशनों का प्रचार-प्रसार हो सके। इनके अतिरिक्त हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यिकारों तथा क्रय- समितियों के अध्यक्षों को भी अपने प्रकाशनों से अवगत कराने के लिए सूचीपत्र भेजता रहूँगा। देर या सवेर से, न्यून या अधिक सूचीपत्र प्रेषण का लाभ होगा ही। कारण, विज्ञापन कभी व्यर्थ नहीं जाता। उसका प्रभाव पड़ेगा ही।

उचित वेतन, समय पर वेतन, वर्ष में एक मास का बोनस, होली दीवाली मीठा- नमकीन और आर्थिक उपहार तथा प्रतिदिन की दो चाय, अपराह्न चाय के साथ एक पीस मीठा या नमकीन देकर कर्मचारियों को खुश रखूँगा। उनके दुख-सुख में भागीदार बनने की चेष्टा करूँगा। हाँ, अनियमित, कामचोर, प्रमादी कर्मचारी को ‘लेबर लॉ’ के अनुसार छुट्टी देकर काम की क्षति को रोकूँगा।

इस प्रकार यदि मैं पूँजीपति होता तो प्रकाशन उद्योग को अपनाता। विश्व में ज्ञान का प्रचार-प्रसार करता। माँ भारती के माध्यम से भगवती सरस्वती की पूजा-आराधना करता। आय की वृद्धि के लिए उचित-अनुचित सब हथकंडे अपनाता। लेखकों को प्रसन्न रखता तथा अधीनस्थों को खुश।

Leave a Comment

You cannot copy content of this page