संकेत बिंदु – (1) पुलिस अधिकारी का अर्थ (2) शांति और कानून व्यवस्था (3) पुलिसकर्मियों को कर्त्तव्यपरायण का आदेश (4) सभी वर्गों को समान न्याय (5) ईमानदारी और पक्षपात रहित कार्य।
एक कहावत मशहूर है- बेटा पुलिस अफसर बनेगा तो क्या माँ को डंडे मारेगा? ऐसा कृतघ्न क्या कोई पुलिस अफसर होगा? पर साहब, मैं ऐसा जरूर करूँगा। कारण, मेरी माँ है – मेरा ‘पेपर सेटर’। वह पूछता है ‘यदि मैं पुलिस अधिकारी होता ‘ तो क्या करता? सच्चाई यह है कि सर्वप्रथम उस ‘पेपर सेटर’ को परीक्षा भवन में बुलाकर उससे स्पष्टीकरण माँगता, ‘पुलिस अफसर’ की व्याख्या पूछता। वह दसवीं के परीक्षार्थियों से किस पुलिस अफसर का शवच्छेदन (पोस्टमार्टम) करवा रहा है? ए. एस. आई, एस.आई., एस.एच.ओ., ए.सी.पी., डी.सी.पी., शहर अधिकारी या प्रांत अधिकारी; किसका? यदि वह ‘पुलिस अधिकारी’ पदों को समझता है तो इस भ्रामक शीर्षक के लिए उसे तीन वर्ष तक ‘पेपर सेटिंग’ से मुक्ति दिलवाता। यदि वह पुलिस अफसर पद को स्वयं समझता ही नहीं तो उसे लाखों विद्यार्थियों के जीवन से खिलवाड़ करने का क्या अधिकार है?
अस्तु, मैं अपने को एस.एच.ओ. मानकर चलता हूँ। जो एक पुलिस अधिकारी होता है – और अपने क्षेत्र की सुरक्षा का प्रहरी होता है। यदि मैं एस.एच.ओ. (थाना प्रभारी) होता तो अपने क्षेत्र में व्यवस्था और शांति रखना मेरा कर्तव्य होता और जनता के निर्भीकता से जीवन जीने की जिम्मेदारी को निभाता।
लोगों की जेबें काटना, गले से चेन खींचना, घड़ी या कीमती सामान छीनना, सामान चोरी होना, कार- स्कूटर, मोटर साईकिल या साईकिल का उठाना; प्रायः पुलिस की जानकारी में होता है। असामाजिक तत्त्व पुलिस की शह पर ही ऐसा दुस्साहस करते हैं। एक कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी के नाते मैं अपने क्षेत्र के ऐसे गुंडों का अपने क्षेत्र में जीना हराम कर देता। वे या तो सुधर जाते या मेरा क्षेत्र छोड़कर भाग जाते।
लड़कियों को छेड़ने, तंग करने, आवाजकसी करने, उन्हें उठाने, उनसे बलात्कार करने वाले गुंडों को खोज-खोज कर उन्हें ऐसा सबक सिखाता कि वे ज़िंदगी भर याद रखते। बाजार में सड़कों के किनारे पटरी पर स्थायी और अस्थायी दुकानदार कब्जा कर लेते हैं। खोमचे छावड़ी वाले अस्थायी दुकानदार हैं। उन्होंने सरकारी जमीन को बाप-दादा की जायदाद समझ कर उस पर जगह-जगह दुकानें बना रखी हैं। यह सब पुलिस के और नगर-निगम के कर्मचारियों की कृपा का फल है। मैं पुलिस अफसर होता तो अपने क्षेत्र में पटरी पर चलने वाले यात्रियों के अधिकार का हनन सहन नहीं करता। पटरियों पर अधिकार जमाने वालों को हटाकर यात्रियों को उनका अधिकार दिलवाता।
थाने का क्षेत्र बहुत बड़ा और पुलिस कर्मियों की संख्या कम होती है, फिर पुलिस कब और कहाँ तक चौकसी करे, इसलिए चोरी-डकैती करने वाले रात को ही साहस करते हैं। मैं इसका दायित्व उस उपक्षेत्र के ए.एस.आई. पर डालता। उसको मजबूर करता कि वह अपने ‘कर्तव्य’ को भलीभाँति समझे और उसे पूरा करे। नागरिकों के पसीने की कमाई से प्राप्त कर से ही तो सरकार उन्हें वेतन देती है। इसलिए उसको मुफ्त कमाई समझने की अनुमति किसी ए. एस. आई को नहीं देता।
क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक, सरकारी उच्च अधिकारी तथा अति विशिष्ट व्यक्ति रहते हैं। ये लोग अपने अधिकारों का प्रयोग कानून की सीमा में रहकर नहीं करते। इनके पुत्र-पुत्रियाँ, संगी-साथी तो अपने आपको ‘कानून से ऊपर’ समझते हैं।
प्रायः पुलिस का वरिष्ठ अधिकारी भी इन पर हाथ डालने से डरता है। मैं ऐसे लोगों को कानून की भाषा पुलिस के हथकंडों से समझा देता ताकि वे अपनी मर्यादा में रहें और दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण न कर सकें।
राजनैतिक दबाव, ऊपर की सिफारिश, अवनति या सेवानिवृत्त होने का भय मुझे कभी नहीं छूता। मैं गरीब के साथ अन्याय नहीं होने देता और अमीर या स्वामित्व प्राप्त को मेरा अनुचित संरक्षण नहीं मिलता।
दूरदर्शन और केबल वालों ने दो अपराधी वर्गों को जन्म दिया है – (1) दिन में डाके डालने वाले और हत्या करने वाले और (2) बम विस्फोट करने वाले। ये दोनों दुष्टतत्त्व इतने मनोवैज्ञानिक विधि से काम करते हैं कि साँप भी मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती। डाके मारना उनका धंधा है और बम विस्फोट कर आतंक फैलाना उनका स्वभाव। सच्चाई यह है कि हम पुलिस अधिकारी इस कार्य के लिए प्रशिक्षित नहीं हैं। अतः सिवाए दौड़-धूप के कुछ नहीं कर पाते। कभी-कभी बिल्ली के भागों छींका टूट जाता है और कोई डाकू गिरोह या आतंकवादी पकड़ा जाता है। वरना हम असहाय हैं, बेचारे हैं।
मैं थाना परिसर में आने वाले प्रत्येक शिकायती व्यक्ति की व्यथा सुनता, रिपोर्ट लिखाता, उसके साथ बिना पक्षपात के यथासंभव न्याय करता। मंदिर में देव-प्रतिमा अपने आराधक से कुछ माँगती नहीं। स्वयं आराधक ही अपनी ओर से देव चरणों में भेंट रखता है। इसी प्रकार जो लोग यह समझते हैं कि बिना भेंट चढ़ाए पुलिस काम नहीं करती या काम होने के बदले पुरस्कृत करना चाहते हैं तो मैं उसे पत्र – पुष्प समझकर स्वीकार करता। क्योंकि भक्ति से अर्पित पत्र-पुष्प तो भगवान को भी प्रिय लगते हैं।