संकेत बिंदु – (1) संसार की स्थिति डाँवाडोल होती (2) गणित के विषय में विद्वानों के विचार (3) गणित के अलग-अलग रूप (4) सामान्य विद्यार्थियों को लाभ (5) एकाग्रता और चिंतन शक्ति की कमी।
यदि गणित न होता तो संख्या, परिमाण, मात्रा आदि निश्चित करने की विधि अस्तित्वहीन हो जाती। गणना का महत्त्व समाप्त हो जाता। गणना के अभाव में संसार की स्थिति ही गड़बड़ा जाती। गणितीय योग, भाग, गुणन और ऋण (घटा) के अभाव में सामान्य व्यावसायिक व्यवहार न होता और विज्ञान तथा वैज्ञानिक उन्नति भी धरी- धरा रह जाती। यदि गणित न होता विद्यार्थी एक क्लिष्ट और शुष्क विपय से तो बच जाते, पर भौतिक विज्ञान का क्षेत्र शून्य रह जाता।
महान् गणितज्ञ डेमोलिंस बोर्डास का कथन है, ‘गणित के बिना दर्शन – शास्त्र क गहराई नहीं नापी जा सकती। दर्शन शास्त्र के बिना गणित की गहराई नहीं नापी जा सकती दोनों के बिना किसी वस्तु की भी गहराई नहीं नापी जा सकती।’
गणित न होता तो वेदांगों और शास्त्रों का शीर्ष ही समाप्त हो जाता। क्योंकि वेदांग ज्योतिष के अनुसार-
यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद् वेदांग शास्त्राणां गणितं मूर्ध्नि संस्थितम्।
जैसे मयूरों की शिखा और नागों की मणियाँ सिर पर होती हैं, उसी प्रकार वेदांगों व शास्त्रों के शीर्ष पर गणित स्थित है।
जर्मन विद्वान् फ्रेबल के अनुसार, यदि गणित न होता तो मनुष्य और प्रकृति आंतरिक और बाह्य जगत् विचार और प्रत्यक्ष ज्ञान में मध्यस्थता नहीं हो पाती, क्योंकि गणित के सिवाय अन्य कोई विषय इस कार्य को कर नहीं सकता। ‘Mathematics Stands forth as that which unites, mediates between Man and Nature, inner and outer world thoughts perception as no other subject does.”
अंग्रेजी गणितज्ञ जे. एफ हरबर्ट की धारणा है कि यदि गणित न होता तो प्रत्ययों के द्वारा रूपों की धारणा की दिशा में हर युग के महत्तम मस्तिष्कों ने जो कुछ प्राप्त किया है, वह न कर पाता। कारण, गणित ही वह महान् विज्ञान है, जिसमें ये संगृहीत हैं। ‘Everything that the greatest mind of all times have accomplished towards the comprehension of forms by means of concepts gathered into one great Science, Mathematics.’ इतना ही नहीं हरबर्ट तो गणित को निश्चयात्मक और स्पष्टता की पुजारिन मानता है। ‘Mathematics, the priestess of definiteness and clearness.’
सरल शब्दों में कहें तो यदि गणित न होता तो परिमाण, मात्रा तथा संख्या का काम कैसे हो पाता? हिसाब-किताब कैसे रखा जाता? किसको क्या, कितना लेना-देना है कैसे जान पाते? व्यापार का आधार ही गणित है। आधार हटा तो व्यापार गया। अर्थ-तंत्र डूबा तो विश्व व्यापार की रीढ़ की हड्डी टूट गई। शेष क्या रहा? लुंज-पुंज विश्व।
गणित के तीन रूप हैं – अंक गणित, बीज गणित और रेखा गणित। इन तीनों का ज्ञान अन्य विषयों का अनिवार्य अवलंब है। जैसे- पाटी (अंक) गणित के बिना बुककीपिंग अधूरी है। रेखागणित के बिना इंजीनियरिंग अपंग है। बीज गणित के बिना विज्ञान की टैक्नोलोजी की कमर टूटती है। जब कोई उपग्रह अंतरिक्ष में जाता है तो आपने सुना होगा कि उल्टी गिनती जब शून्य पर पहुँचती है तो उपग्रह से अग्नि की लपटें निकलकर उसे अंतरिक्ष में धकेलती हैं। यह उल्टी गिनती क्या है – गणना अर्थात् गणित।
इतने महत्त्वपूर्ण, जीवन और जगत् के रहस्य प्रकट कर्ता गणित का स्वयं रहस्मय होना स्वाभाविक है। गणित विद्यार्थियों के लिए डरावना विषय है। पाटी (अंक) गणित में महाकाली दुर्गा के दर्शन होते हैं। छात्र ‘एलजबरा’ को ‘ ऑल झगड़ा ‘ समझता है।’ ज्योमैट्री’ को ऐसी ज्योतिर्मयी मानता है, जिसके तीव्र प्रकाश में उसके नेत्र ही नहीं हृदय भी चौंधिया जाता है। इसलिए विद्यार्थी ‘फेल’ होते हैं। गणित में येन-केन-प्रकारेण उत्तीर्णांक प्राप्त भी किए तो श्रेणी गिर ही जाती है। इसलिए यदि गणित न होता तो सामान्य विद्यार्थी अच्छे अंक लेकर अपने भावी जीवन से उन्नति का मार्ग तो प्रशस्त कर सकता था। हिंदी के उपन्यास – सम्राट् और महान् कथाकार प्रेमचंद जी को ही लीजिए। गणित के कारण बी.ए. में कई बार फेल हुए, गणित की अनिवार्यता हटी तो तभी बी. ए. कर सके।
दूसरी ओर, गणित विषय न होता तो विद्यार्थी का मस्तिष्क एकाग्र न हो पाता। क्योंकि गणित के सवाल मन की एकाग्रता से ही हल होते हैं। जरा ध्यान विचलित हुआ कि सोल्यूशन (समाधान या हल) डगमगा जाएगा, समाधान डगमगाते ही प्रश्न का निष्कर्ष अर्थात् उत्तर गलत हो जाएगा।
तीसरी ओर गणित न होता तो विद्यार्थी की चिंतन-शक्ति का ह्रास हो जाता। चिंतन- शक्ति की क्षीणता से जीवन की प्रगति ही अवरुद्ध हो जाती है। मनु का कहना है- ‘एकाकी चिंतमानो हि परं श्रेयोऽधिगच्छति’ अर्थात् अकेले में सोचने वाला ही परम श्रेय को प्राप्त करता है।
जर्मन कवि गेटे का कहना है कि यदि गणित न होता तो गणितज्ञ न होते। गणितज्ञ न होते तो उनकी फ्रांसीसियों से उपमा व्यर्थ हो जाती। कारण, ‘गणितज्ञ फ्रांसिसियों की तरह होते हैं। उनसे कुछ कहो, वे उसे अपनी भाषा में अनूदित कर लेते हैं और उसी क्षण बात बिल्कुल भिन्न हो जाती है।’