संकेत बिंदु – (1) एक-दूसरे के बिना अधूरे (2) प्राचीन काल में फैशन का स्वरूप (3) फैशन आधुनिकता का पर्याय (4) बालों और परिधानों का अलग- अलग रूप (5) फैशन का अतिचार नुकसानदायक।
युवा पीढ़ी और फैशन का संबंध परस्पर प्रेमी और प्रेमिका का-सा है। एक-दूसरे के बिना दोनों विकल हैं, विह्वल हैं। दोनों में शरीर और प्राणों का संबंध है। कारण, फैशन रूपी प्राणों के बिना युवा पीढ़ी का शरीर शव के समान है। युवा पीढ़ी का फैशन के पीछे अंधी दौड़ लगाना फैशन प्रेम का ही परिचायक तो है।
फैशन तो युवा पीढ़ी पर ही सजता है, फबता है। उसके सौंदर्य को द्विगुणित करता है, उनके बाह्य व्यक्तित्व की वृद्धि करता है। उन्हें आकर्षक और ईर्ष्या का केंद्र-बिंदु बनाता है। देखने वालों के हृदय की धड़कनों को तेज करता है। उन्हें आहें भरने को विवश करता है। इसके विपरीत बूढ़े-बूढ़ियों के फैशन पर तो फबती कसी जाती हैं। उनका मजाक उड़ाया जाता है। ‘बूढ़ा बैल रेशम की नाथ’, ‘बूढ़े हुए तो क्या हुआ, नखरा तिल्ला उतने ही’ तथा ‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम’ जैसी कहावतों से व्यंग्य किया जाता है।
फैशन क्या है? बनाव-शृंगार तथा परिधान की विशिष्टता फैशन है। समाज के सम्मुख नए डिजाइन के वस्त्रों, गहनों, केश विन्यास आदि से आत्म-प्रदर्शन फैशन है। रहन-सहन, बनाव-शृंगार तथा परिधान की नवीन रीति फैशन है। आलिवर बेंडेल होल्म्स के अनुसार, ‘फैशन तो कला के सजीव रूपों में तथा सामाजिक व्यवहार में देखने का प्रयत्न मात्र है।‘ हैनरी फील्डिंग के मत से, ‘यह न केवल वेश-भूषा और मनोरंजन का स्वामी है, अपितु राजनीति, कानून, धर्म, औषध तथा गंभीर प्रकार की अन्य बातें भी इसके अंतर्गत आती हैं।’
अपने को सुंदर रूप में प्रदर्शित करने की प्रवृत्ति युवा पीढ़ी में आदिकाल से चली आई है। अंतर इतना ही है कि प्राचीनकाल में युवा वर्ग को अपने विद्यार्थी जीवन पर्यन्त अर्थात् 25 वर्ष की आयु तक शृंगार-मोह त्यागना पड़ता था। दूसरी ओर प्राचीन युवतियाँ विवाह के समय से ही सोलह शृंगारों से अपने को सज्जित करके गर्व अनुभव करती थीं। रम्भा, मेनका, उर्वशी आदि अप्सराएँ ही नहीं, शकुंतला, सीता, पांचाली जैसी भगवतियों की विविध शृंगार-प्रियता से संस्कृत और हिंदी साहित्य भरा पड़ा है। अजन्ता, एलोरा की गुफाएँ, खजुराहों के मंदिर तथा प्राचीन स्थापत्य कलाओं के नमूने प्राचीन शृंगार-शैली के जीवंत प्रमाण हैं। दूसरा अंतर शृंगारविधि का है। प्राचीन काल में तथा विभिन्न स्वर्णालंकारों द्वारा शृंगार होता था, जबकि आज फैशन की अनेकानेक नवीन विधियाँ उपलब्ध हैं।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है, उसी में सृष्टि का सौंदर्य निहित है। फैशन का परिवर्तन भी प्रकृति का क्रम है, जिसमें नयी पीढ़ी की सौंदर्य पिपासा झलकती है और आधुनिकता विरोधियों के लिए आश्चर्य। इटली के कवि दाँते का मत है, ‘मनुष्य के रीति-रिवाज और फैशन शाखाओं पर लगी पत्तियों के समान बदलते रहते हैं। कुछ चले जाते हैं और दूसरे आ जाते हैं।’ आस्कर वाइल्ड इस परिवर्तन में विवशता देखते हैं। उनका कहना है, ‘फैशन कुरूपता का एक प्रकार है, जो इतना असाध्य है कि हमें उसे छह महीने में बदल देना होता है।’
आज की युवा पीढ़ी आधुनिक सभ्यता की पुजारी है। फैशन आधुनिक सभ्यता का पर्याय है। कारण, ‘सौंदर्य’ के प्रति सोच और चाह ही तो आधुनिक सभ्यता है। फैशन की सोच और चाह तेजी से बदलाव का श्रेय पाश्चात्य सभ्यता, सिनेमा, दूरदर्शन तथा राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले व्यापार को है। जहाँ फैशन के नित नए शोध किए जाते हैं और नित नए प्रयोग होते हैं।
‘फैशन’ अब एक शहर, प्रांत या देश तक ही सीमित नहीं रह गया है। विश्व स्तर पर उसका मूल्यांकन होने लगा है। इसलिए खुले मंच पर ‘फैशन परेड’ पेशा बन गया है। दूरदर्शन पर नियमित रूप से इसका प्रदर्शन विश्व में प्रस्तुत डिजाइन का स्थापन ही तो है।
दूसरी ओर, नगर, सुंदरी, प्रांत-सुंदरी, राष्ट्र-सुंदरी तथा विश्व सुंदरी प्रतियोगिता क्या हैं? ‘फैशन’ का युवतियों के समर्पण का मूल्यांकन ही तो है। जिससे न केवल उन्हें यश ही मिलता है, अपितु उनके लिए समृद्धि का द्वार भी खुलते हैं।
परिधान का एक-सा रंग (मैचिंग) होना आज के युवा-फैशन का अंग है। आज के युवा वर्ग की पेंट-कमीज, कुर्ता पजामा से लेकर जूते चप्पल तक तथा युवती के साड़ी- ब्लाउज, पेटीकोट, स्कर्ट, चूड़ी, बिंदिया, बालियाँ तथा जूते एक रंग के होंगे। युवा माइकल जैक्सन जैसी पतलून पहनेंगे – यानी टखनों से कुछेक इंच ऊँची। कमीज ढीली-ढाली होगी। युवतियाँ स्कर्ट या जीन्स पर पत्ते भर की टॉप पहनना पसंद करती हैं ताकि थोड़ा भी हाथ उठे तो मैडोना की तरह जिस्म की एक झलक सामने वाले को मिल जाए। कानों की बालियाँ बड़ी और लटकती होंगी। जूते नाइक के मुकाबले रीबाँक के होंगे और होगा आँखों पर रेबेन का गोगल्स।
बालों को मेंडोना जैसी बनाने के लिए ब्लीज करवाना, आलू रखकर अथवा नकली बालों से उनको अलंकृत करना, आँखों में आई लाइनर और आई शैडो लगाना, नए-नए डिजाइन के वस्त्र जिनमें वक्ष और उदर स्पष्ट चमकते हों, ‘सौंदर्य-गृह’ (ब्यूटी पार्लर) से चेहरे का ‘मेकअप’ करवाना, सौंदर्य-प्रसाधनों की सहायता से मुख का शृंगार करना, आज की युवती का फैशन के प्रति पूर्णत: समर्पण है।
फैशन के अतिचार से मुक्ति असंभव है। इसलिए थोरो ने सही कहा है, ‘हर पीढ़ी पुराने फैशनों पर हँसती है, लेकिन नशों का अनुसरण धार्मिक जैसी कट्टरता से करती है।’ जार्ज बर्नार्डशॉ के शब्दों में, सच्चाई तो यह है, ‘अंततः फैशनें उत्पन्न की गई महामारियाँ हैं।’
युवा वर्ग का फैशन के प्रति मोह उनकी प्रकृति के अनुकूल व्यक्तित्व के प्रदर्शन और अहं की पूर्ति के लिए जरूरी है; कैरियर (भविष्य) और समृद्धि के लिए अनिवार्य है। जब इसमें ‘अति’ जुड़ती है तो वैभव का भस्मासुर बनकर उनसे तन-तन और चरित्र के ह्रास का ‘कर’ वसूलती है।