मैं बहनों के सामने राम-राज्य की बात करता हूँ। राम-राज्य स्वराज्य से भ अधिक है। इसलिए वह कैसा होता है, मैं इसी के बारे में बताऊँगा, स्वराज्य के बारे में नहीं। राम-राज्य वहीं हो सकता है जहाँ सीता का होना संभव हो। हम हिंदू बहुतेरे श्लोकों का पाठ करते हैं। उनमें एक श्लोक स्त्रियों के विषय में है। इसमें प्रातःस्मरणीय स्त्रियों के नाम लिए गए हैं। कौन हैं ये स्त्रियाँ ? (तारा, कुंती, अहल्या, मंदोदरी, द्रौपदी) जिनके नाम लेने से पुरुष और स्त्रियाँ सभी पुनीत हो जाते हैं। सती स्त्रियों में सीता का नाम तो सदा ही लिया जाता है। हम ‘राम-सीता’ नहीं कहते, ‘सीता-राम’ कहते हैं और इसी प्रकार ‘कृष्ण-राधा’ न कहकर ‘राधा-कृष्ण’ कहते हैं। सुग्गे को भी यही पढ़ाया जाता है। हम सीता का नाम पहले लेते हैं, इसका कारण यह है कि पवित्र स्त्रियाँ न हों, तो पवित्र पुरुषों का होना असंभव है। बालक माता जैसे ही बनेंगे, पिता जैसे नहीं। माता के हाथ में बालक की बागडोर होती है। पिता का कार्यक्षेत्र बाहर है, इसीलिए मैं सदा कहता आया हूँ कि जब तक सार्वजनिक जीवन में भारत की स्त्रियाँ भाग नहीं लेतीं तब तक हिंदुस्तान का उद्धार नहीं हो सकता। सार्वजनिक जीवन में वही भाग ले सकेंगी जो तन और मन से पवित्र हैं। जिनके तन और मन एक ही दिशा में- पवित्र दिशा में चलते जा रहे हों, जब तक ऐसी स्त्रियाँ हिंदुस्तान के सार्वजनिक जीवन को पवित्र न करें, तब तक राम-राज्य अथवा स्वराज्य असंभव है। अथवा स्वराज्य संभव हो, तो वह ऐसा स्वराज्य होगा, जिसमें स्त्रियों का पूरा-पूरा भाग नहीं रहेगा। और जिस स्वराज्य में स्त्रियों का पूरा-पूरा भाग न हो, वह मेरे लिए निकम्मा स्वराज्य है। पवित्र मन और हृदय रखने वाली स्त्री सदा साष्टांग नमस्कार करने योग्य है। मैं चाहता हूँ कि ऐसी स्त्रियाँ सार्वजनिक जीवन में भाग लें।
हम किसे ऐसी स्त्री कहें ? कहा जाता है कि सीता का तेज चेहरे से प्रकट हो जाता है। कोई कह सकता है कि भारत में जितनी वेश्याएँ हैं, क्या उन सबको भी सती मानें, क्यों? वे तो चेहरे को तेजवंत रखने का व्यवसाय ही करती हैं। नहीं, बात ऐसी नहीं है। मुख्य बात तो हृदय की पवित्रता है। जिसका मन और हृदय पवित्र है वह सती सदैव पूज्य है। हम जैसे भीतर हैं, बाहर भी वैसे ही प्रकट होते हैं । यही प्रकृति का नियम है। यदि हम भीतर से मलिन हों तो बाहर भी वैसे ही दिखाई देंगे। दृष्टि और वाणी, ये बाह्य चिह्न हैं किंतु जानने वाला गुण-अवगुण की पहचान इन बाह्य चिह्नों से भी कर लेता है।
तब फिर पवित्रता का क्या अर्थ है ? इसका क्या लक्षण है? मैं खादी को पवित्रता की निशानी समझता हूँ, किंतु यदि मैं यह कहूँ कि जो खादी पहनता है, वह पवित्र हो जाता है, तो इसे मानना ठीक नहीं हो सकता।
मैं कहता हूँ कि सार्वजनिक जीवन में हाथ बँटाओ। इसका भी क्या अर्थ है ? सार्वजनिक जीवन में भाग लेने का अर्थ सभा-मंडलों में जाकर उपस्थित हो जाना नहीं है, बल्कि यह है कि लोग पवित्रता के चिह्नस्वरूप खादी पहनकर हिंदुस्तान के स्त्री- पुरुषों की सेवा करें। यदि हम राजा-महाराजाओं की सेवा करें, तो उससे क्या होगा ? यदि हम वहाँ जाएँ, तो संभव है कि दरबान ही महाराजा साहब के पास न जाने दे। किसी धनिक व्यक्ति की सेवा करने की इच्छा का भी ऐसा ही फल हो सकता है। हिंदुस्तान की सेवा का अर्थ है गरीबों की सेवा। ईश्वर अदृश्य है, इसलिए यदि हम दृश्य की सेवा करें तो पर्याप्त है। अदृश्य ईश्वर की सेवा का अर्थ है गरीबों की सेवा और यही हमारे सार्वजनिक जीवन का अर्थ है। यदि हमें जनता की सेवा करनी हो तो भगवान का नाम लेकर गरीबों के बीच में जाकर चरखा चलाना चाहिए।
सार्वजनिक जीवन में हाथ बँटाने का अर्थ गरीब बहनों की सेवा करना है। इन बहनों की हालत दयनीय है। गंगा के उस तीर पर जहाँ जनक राजा हुए और सीताजी हुईं, अपनी पत्नी के साथ मेरी इनसे मुलाकात हुई। बड़ी ही दयाजनक स्थिति मैंने इनकी देखी। शरीर पर पूरे कपड़े नहीं थे। किंतु उस समय मैं इन्हें कपड़े नहीं दे सका, क्योंकि तब तक चरखा मेरे हाथ नहीं लगा था। हिंदुस्तान की स्त्रियों को कपड़ा मिलता है, फिर भी वे नग्न हैं। क्योंकि जब तक देश में एक भी बहन को बिना कपड़े के रहना पड़ता हो तब तक यही माना जाएगा कि देश की सारी स्त्रियों के पास कपड़े नहीं हैं। इसी प्रकार अगर कोई स्त्री सोलह सिंगार किए हुए हो और उसका हृदय अपवित्र हो, तो उसे भी अपवित्र ही माना जाएगा। हमें विचार करना है कि कैसे इन सबसे चरखा चलवाएँ ताकि वस्त्रहीनता का यह अभिशाप दूर हो।
आज जब सेवा करने वाले लोग गाँव में जाते हैं तो वहाँ के लोगों को ऐसा लगता है कि कोई चौथ वसूल करने वाला आ गया। उन्हें ऐसा आभास क्यों होता है ? आप लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि आप गाँवों में देने के लिए जाते हैं, लेने के लिए नहीं ।
हमारी माताएँ सूत कातती थीं। क्या वे मूर्ख थीं? मैं जब आप लोगों को कातने को कहता हूँ तो मैं आपको मूर्ख लग सकता हूँ। किंतु पागल गांधी नहीं है, आप खुद पागल हैं। आपके मन में गरीबों के लिए दया नहीं है। और इसके बाद भी आप अपने मन को धीरज देना चहती हैं कि देश संपन्न हो गया है। और फिर आप लोग संपन्नता के गीत गाती हैं। यदि आप सार्वजनिक जीवन में पाँव रखना चाहती हैं तो जनता की सेवा कीजिए, चरखा कातिए, खादी पहनिए। यदि आपका तन और मन शुद्ध हो गया तो आप सच्ची देशभक्त बनेंगी। भगवान का नाम लेकर सूत कातिए। भगवान का नाम लेकर सूत कातने का अर्थ है, गरीब बहनों के लिए कातना । दरिद्र को दिया गया दान ईश्वर को पूजा चढ़ाने जैसा है। दान तो वही है जो दरिद्र को सुख पहुँचाए। आप चाहें जिसको पैसा लुटाएँ, तो उसका तो यही अर्थ होगा कि आप अपनी सनक पूरी करती हैं। जिसे ईश्वर ने दो हाथ, दो पाँव और स्वास्थ्य दिया है, यदि आप उसे दान देती हैं, तो कहना पड़ेगा, कि आप उसे कंगाल बनाने पर तुली हुई हैं। कोई ब्राह्मण है, केवल इसीलिए उसे भिक्षा न दी जाए। उससे चरखा चलवाइए और फिर एक मुट्ठी ज्वार या चावल दे दीजिए। गरीबों में जाकर खादी का प्रचार करना मन की पवित्रता का पहला लक्षण है।
दूसरा लक्षण है अंत्यज की सेवा करना। आजकल के ब्राह्मण और गुरुगण आदि अंत्यज को छूने में पाप मानते हैं। मैं कहता हूँ कि यह पाप नहीं है, धर्म है। मैं उनके साथ खाने-पीने की बात नहीं कहता। मैं तो उनकी सेवा के लिए, उनके बीच जाने के लिए कहता हूँ । अंत्यज के जो बच्चे बीमार हैं, उनकी सेवा करना धर्म है। अंत्यज खाते हैं, पीते हैं, खड़े होते हैं और बैठते हैं। हम सब भी यही करते हैं। इन सब क्रियाओं में न कोई धर्म है, न कोई पवित्रता । निश्चित अवधि में मेरी माता भी अस्पृश्य हो जाती थी और उस समय वह अपने को छूने नहीं देती थी। मेरी पत्नी भी इसी तरह अस्पृश्य हो जाती थी । कह सकते हैं कि उस समय वह अंत्यज हो जाती थी। जब हमारे भंगी मैला फेंकने का काम करते हैं, तब वे अस्पृश्य होते हैं। जब तक वे नहा-धो न लें, तब तक उनको न छूने की बात समझ में आ सकती है किंतु नहा-धोकर साफ सुथरे बन चुकने के बाद भी यदि हम उन्हें नहीं छूते तो फिर उनके नहाने-धोने का अर्थ ही क्या है। उनका तो कोई ईश्वर भी नहीं है। वे सोचते हैं कि दूसरों के भी मेरे जैसे आँख, नाक इत्यादि हैं, फिर भी ये लोग हमारा तिरस्कार करते हैं, ऐसी अवस्था में हम क्या करें? जरा इस परिस्थिति पर विचार कीजिए- क्या रामचंद्र ने अंत्यजों का तिरस्कार किया था? उन्होंने शबरी के जूठे बेर खाए थे, उन्होंने निषादराज को गले लगाया था । और शबरी तथा निषादराज दोनों ही अस्पृष्य थे। इस पर से आपको यह बात समझ लेनी चाहिए कि हिंदू धर्म के अंतर्गत अस्पृश्यता है ही नहीं । पवित्रता का तीसरा लक्षण है मुसलमानों के प्रति मित्रभाव का विकास। ‘यह तो मियाँ ठहरा’, ‘मियाँ और महादेव साथ-साथ कैसे बैठ सकते हैं’ यदि कोई ऐसा कहे तो उसे बताइए कि आप मुसलमानों के प्रति वैरभाव नहीं रख सकतीं।
यदि आप ये तीन बातें करें तो कहा जा सकता है कि आपने सार्वजनिक जीवन में पूरा भाग लिया है। इस तरह के आचरण से आप प्रातः स्मरणीय बन जाएँगी और ऐसा माना जाएगा कि आपने हिंदुस्तान को तारने का काम किया। मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप ऐसी बनें।