एक तमन्ना थी
एक आरज़ू थी
एक ही चाहत थी
की तेरी कुर्बत में
मेरी सारी ज़िंदगी गुजरे
अब एक
दूसरी तमन्ना है
दूसरी आरज़ू है
दूसरी चाहत है
कि तू क्या
तेरा साया भी
मेरे पास से न गुजरे
इसकी वजह जान लीजिए साहब
मेरी पहली तमन्ना ने
मुझे निकम्मा बना दिया।
इसी जिंदगी में
दोज़ख दिखा दिया
मेरी कमजोरी को
ताकत बनाकर
और भी कमजोर बना दिया
और अपने अंतिम लफ्जों में
ये कहकर – कि तुम बदल गए
मुझसे दामन छुड़ा लिया।
अविनाश रंजन गुप्ता