हम मिल आए जगत नियंता से
बिना किसी अपोइंटमेंट के
कुर्सी पर बैठे चंद लोग
खुदको ही बड़ा मानने लगे हैं खुदा से
उनके ओहदे का गुरूर
उनके रुतबे का सुरूर
उन्हें बनाता है मगरूर
लेकिन एक दिन
ये सूरत बदलेगी ज़रूर
क्योंकि ….
दुआ लगे न लगे
बद्दुआ ज़रूर लगती है
ये तो रूह की आह से निकलती है
इन ज़हीन जाहिलों को
क्यूँ नहीं समझ आती
ये मामूली-सी बात
अभी चार दिन की चाँदनी है
फिर अँधेरी रात।
अविनाश रंजन गुप्ता