न भूत की सोच
न भविष्य की सोच
तू सोच उस दृश्य की
जिसकी कल्पना
लाती है आँखों में चमक
चेहरे पर खुशी
होंठों पर हँसी
जिससे दूर होती है गमी
वह दृश्य चाहे
लक्ष्य हो
उद्देश्य हो
ध्येय हो
या विधेय हो
पर अंतिम साँस तक
अपरिमेय हो
इसीलिए तू खुद की कर
अपनी इच्छा से जी
अपनी इच्छा से मर
और ये भी शपथ कर
छोड़ दे करनी चिंता उनकी
तू नहीं मानता अहमियत जिनकी
कि मरने के बाद भी
जो तारीख बन गए हैं लोग
उनकी शोहरत पर भी
तोहमत लगाते हैं लोग
नजाने ऐसा करने की
कैसे जहमत उठाते हैं लोग?
अविनाश रंजन गुप्ता