चोरी सबने की थी,
लेकिन मेरी चोरी पकड़ी गई।
सबकी चोरी की सजा
इक मुझको ही दी गई।
चोरी क्या कलंक थी,
जो माथे से चिपक गई,
मेरे रोने-धोने-पछताने से भी
यह तनिक न कम हुई।
फिर एक दिन ……
निर्णय लिया खुद से कि
अपनी नई पहचान बनानी है,
हेय से ध्येय तक श्रेष्ठ,
अपनी छवि बनानी है।
इस हेतु में मैं लीन हो गया,
अबसे यही मेरा दीन हो गया।
पुस्तकें मैंने पढ़ लीं इतनी
धीरे-धीरे मैं प्रवीण हो गया।
सत्संगति की चढ़ी जो रंगत
बदली सोच और बदली पंगत
धीरे-धीरे ही सही मगर
ये जीवन बिलकुल नवीन हो गया।
अब मेरी चिंता धारा में
‘मैं’ के संग ‘हम’, ‘हम सब’ भी हैं,
इसमें निराकार निरूपम रब भी हैं
ये सब था उसका ही ताना-बाना
जिससे मैं जाहिल से ज़हीन हो गया।
अविनाश रंजन गुप्ता