पृष्ठ भरूँ या ध्येय नहीं
इस रचना कर्म का यही विधान
ज्योति धूमिल पड़ी धरा की
इसका कराऊँ तुझे ध्यान।
पुण्य भूमि थी,
विश्व गुरु था,
अतुलित धन था,
अतुलित ज्ञान।
यवनों हूणों और
आंग्ल शकों ने
इसको किया मलिन म्लान।
कुछ हम भी थे मंद पड़े,
थे हम भी कर्तव्यविमूढ़ खड़े,
पर अब तो हो इसका निदान.
उठो धरा के वीर सपूतों
अब उद्यम को अपनाना है,
इस मातृभूमि के
इस जन्मभूमि के
ऋण से उऋण हो जाना है।
है खोई हुई अस्मिता इसकी,
है लुप्त हुआ कुछ इसका गौरव,
बनकर पांडव अब हम सबको
कौरवों को धूल चटाना है।
पुनः पुनः प्रतिज्ञा लो ये,
इस पुण्य धरा को
सबसे श्रेष्ठ बनाना है।
अविनाश रंजन गुप्ता