क्या तुमने कभी सोचा है,
की तुम्हारा जीवन कैसा हो?
बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रश्न है यह,
इसी पर ही टिकी हुई है,
जीने की चाह,
और जीवन की राह।
यही प्रश्न बनाता है-
आदमी को संगीन
इसका उत्तर बनाता है-
जीवन को रंगीन
जो नहीं करता है इस पर विचार –
उसका जीवन बनता है ‘गमगीन’
तो चलिए विचार करते हैं-
इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर;
जो हमसे जुड़ा है,
केवल और केवल
हमसे ही जुड़ा है।
इसलिए मैं केवल
मेरे बारे में ही कहूँगा
और दूसरों तथा
दूसरों की सोच से दूर रहूँगा-
कि मूलभूत आवश्यकताओं के अतिरिक्त
हैं और भी कुछ मेरी चाह
कि मुझे चाहिए अच्छी शिक्षा
ताकि शिक्षित बन जाऊँ,
अपने उदर पोषण के लिए
एक शिक्षक बन पाऊँ।
अपनी शीतल वाणी से
लोगों की अंतर्ज्योति जला पाऊँ।
कि मेरी है यह भी चाह –
मिले हमसफर मुझको ऐसा
जिसको हो मेरी परवाह
बच्चों की किलकारी से
मेरा घर भी ध्वनित हो
मातृ-पितृ का पद पाकर
हम भी गौरवान्वित हों।
धन की केवल इतनी चाह
कि लक्ष्मी संग न आए अलक्ष्मी,
धन-धान्य से पूर्ण रहे हम,
कुटुंब सेवा में न हो कमी।
इसी क्रम में यह भी चाहूँ
जीवन में कुछ मित्र बने
पर जितने भी मित्र बने
इत्र के समान पवित्र बने।
देशाटन की इच्छा भी
इसी जीवन में पूरी हो
भगवत भक्ति में
नहीं कहीं कभी कोई दूरी हो।
ऐसा न हो कि मज़बूरी में
स्याह-सफ़ेद करना पड़े
और ऐसा भी न हो कि
ईर्ष्या में कभी जलना पड़े।
सत् चित् आनंद के साथ
वृद्धावस्था तक मैं आ पाऊँ,
भरे-पूरे परिवार के साथ
अपनी ज़िंदगी बिता पाऊँ।
शोहरत की है चाह नहीं
क्योंकि सभी हैं कलाकार,
आत्मचित्त प्रसन्नवदन मैं
मुझे नहीं चाहिए प्रचार।
अविनाश रंजन गुप्ता