जिन दिनों भगवान श्रीकृष्ण वृंदावन में निवास करते थे, उन्हीं दिनों देवर्षि नारद कंस की सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने कंस से कहा, “मथुराधिपति, नंद का पुत्र श्रीकृष्ण ही देवकी के गर्भ का आठवाँ पुत्र है। आकाशवाणी से आपके जिस काल की घोषणा हुई थी, वह काल नंद के पुत्र श्रीकृष्ण हैं। वसुदेव और नंद में मित्रता है। देवकी के गर्भ से जब आठवाँ पुत्र उत्पन्न हुआ, तो वसुदेव ने अपने इस पुत्र को नंद के घर पहुँचा दिया था और नंद की पत्नी यशोदा के गर्भ से उत्पन्न लड़की को लाकर अपनी पत्नी देवकी को दे दिया था। आपने उसी लड़की के पैर पकड़कर उसे शिला पर पटकने का प्रयत्न किया था। किंतु वह आपके हाथ से छूटकर आकाश में चली गई थी और उसने अष्ट-भुजा का रूप धारण करके घोषणा की थी – कंस तुम्हारा काल उत्पन्न हो चुका है ।
“मथुरा नरेश, आजकल कृष्ण वृंदावन में निवास करते हैं। मैंने आपको सावधान कर दिया है, जो कुछ करना है शीघ्र ही कर डालिए।”
यद्यपि कंस इस बात को मन ही मन समझ गया था कि नंदराय का पुत्र ही देवकी के गर्भ का आठवाँ पुत्र है, किंतु जब उसने यही बात देवर्षि नारद के मुख से सुनी, तो उसके मन का रहा-सहा संदेह भी दूर हो गया। अब उसे निश्चित रूप से ज्ञात हो गया कि नंद का पुत्र श्रीकृष्ण ही उसका काल है।
कंस कुपित हो उठा। उसने वसुदेव और देवकी को बंदी बनाकर पुनः कारागार में डाल दिया। उसके पिता उग्रसेन ने जब वसुदेव और देवकी के प्रति सहानुभूति प्रकट की तो कंस ने अपने पिता को भी बंदी बनाकर कारागृह में डाल दिया।
एक ओर कंस ने जहाँ यह किया, वहीं दूसरी ओर उसने केशी को बुलाकर उसे आज्ञा दी, “केशी, तुम शीघ्र ही वृंदावन जाओ और जिस प्रकार हो, कृष्ण को मृत्यु के मुख में पहुँचाने का प्रयत्न करो। “
किंतु केशी का भी वही हाल हुआ, जो कंस के दूसरे दैत्यों का हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण ने दूसरे दैत्यों की भांति ही केशी को भी मृत्यु के मुख में पहुँचा दिया।
केशी की मृत्यु के पश्चात कंस ने अपने मंत्रियों से सलाह करके श्रीकृष्ण को मारने के लिए एक बहुत बड़े षड्यंत्र की रचना की। उसने मथुरा में मल्ल-उत्सव का आयोजन किया। उसने मल्लोत्सव में शामिल होने के लिए जहाँ और लोगों को निमंत्रित किया, वहीं उसने नंद और उनके दोनों पुत्रों को भी निमंत्रित किया । उसका विचार था कि जब उसके निमंत्रण पर कृष्ण और बलराम मथुरा आएँगे और मल्लोत्सव में सम्मिलित होंगे, तो वह बड़ी सुगमता के साथ अपनी अभिलाषा पूर्ण कर सकेगा। उसे क्या पता था कि वह कृष्ण और बलराम को नहीं, अपने काल को बुला रहा है।
कंस ने जहाँ मल्लोत्सव का आयोजन किया, वहाँ उसने कृष्ण को मार डालने का प्रबंध भी किया। उसने अपने चाणूर और मुष्टिक आदि पहलवानों से कहा, “कृष्ण और बलराम जब कुश्ती लड़ने लगें, तो ऐसे दांव का प्रयोग करना जिससे उनकी मृत्यु हो जाए।” उसने कुबलयापीड़ हाथी के पीलवान से कहा, “जब कृष्ण और बलराम रंगशाला में प्रवेश करने लगें, तो उन पर कुबलयापीड़ को मद पिलाकर छोड़ देना। कुबलयापीड़ अपने आप ही उन्हें मृत्यु के मुख में पहुँचा देगा।”
मल्लोत्सव की आयोजना करने के पश्चात कंस सोचने लगा-नंद के पास निमंत्रण भेजा जाए, तो किसके द्वारा भेजा जाए? वह किसी ऐसे व्यक्ति की खोज में था, जो नंद का विश्वासी हो, क्योंकि उसके मन में डर था कि यदि नंद के मन में संदेह पैदा हो गया, तो वे कृष्ण और बलराम को मथुरा नहीं आने देंगे।
आखिर कंस को एक ऐसा व्यक्ति मिल गया, जो नंद का अधिक विश्वासी था। वह व्यक्ति थे अक्रूर। अक्रूर अपनी सज्जनता के लिए मथुरा में प्रसिद्ध थे। वे साधु प्रकृति के व्यक्ति थे, यदुवंशी थे और भगवान के बड़े भक्त थे।
कंस ने अक्रूर को बुलाकर उनसे कहा, “अक्रूर जी, मथुरा में मल्लोत्सव हो रहा है। मैंने सबको निमंत्रित किया है। आप नंद जी के पास जाकर उन्हें मेरा निमंत्रण दें और नंद तथा उनके दोनों पुत्रों को मथुरा ले आएँ। “
कंस का कथन सुनकर अक्रूर यह पूरी तरह समझ गए कि कंस नंद के दोनों पुत्रों को मथुरा क्यों बुला रहा है, किंतु फिर भी उनके मन में बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सोचा, चलो इसी बहाने भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का दर्शन करने का सुयोग तो प्राप्त हो जाएगा।
अक्रूर ने निमंत्रण-पत्र लेकर नंद जी के पास जाना स्वीकार कर लिया। वे कंस की आज्ञा से रथ पर बैठकर वृंदावन की ओर चल पड़े। मार्ग में वे यह सोच-सोचकर अधिक प्रसन्न हो रहे थे कि कृष्ण पूतना, बकासुर, अघासुर और केशी इत्यादि राक्षसों को मृत्यु के मुख में पहुँचा दिया तथा जो कृष्ण सात दिनों तक गोवर्धन पर्वत को अपनी उंगली पर उठाए रहे, आज उनके दर्शन का मुझे सुयोग मिलेगा। मनुष्य को सबकुछ तो सरलता से मिल जाता है, पर भगवान का दर्शन तो उसी समय प्राप्त होता है, जब महान पुण्यों का उदय होता है।
कंस का निमंत्रण प्राप्त कर कृष्ण और बलराम मथुरा पहुँचे जरूर, पर वहाँ उन्होंने कंस के सारे दुष्प्रयास निष्फल कर दिए। कुबलयापीड़ को मार डाला, चाणूर और मुष्टिक का हनन कर दिया और अंत में दुराचारी कंस का भी वध कर डाला। इस प्रकार दुष्ट कंस के कुसाशन से ब्रजवासियों को मुक्ति दे दी।