वर्षा ऋतु के आरंभ के दिन थे। आकाश मंडल में इधर से उधर मेघ दौड़ने लगे थे। मंद-मंद ठंडी हवा चलने लगी थी। पृथ्वी श्यामल हो गई थी। ऐसा लगता था, मानो अब वर्षा होने वाली है।
उन्हीं दिनों एक दिन सवेरे जब श्रीकृष्ण सोकर उठे तो ब्रज में जो कुछ हो रहा था उसे देखकर चकित हो उठे। सभी गोप और गोपियाँ यज्ञानुष्ठान में लगे हुए थे। बड़े उत्साह और उमंग के साथ पूजा की तैयारियाँ हो रही थीं। कृष्ण मन-ही-मन सोचने लगे, अरे यह सब क्या है और क्यों हो रहा है? बहुत कुछ सोचने लगे और विचार करने के पश्चात् भी जब श्रीकृष्ण की समझ में कुछ नहीं आया, तो उन्होंने नंद बाबा के पास जाकर उनसे पूछा, “बाबा! आज यह सब क्या हो रहा है? जिसे देखता हूँ वही यज्ञ के आयोजन में संलग्न है, पूजा के प्रबंध में जुटा हुआ है। वह कौन देवता है, जिसकी प्रसन्नता के लिए यह सारा आयोजन हो रहा है?”
नंद बाबा ने उत्तर दिया, “बेटा, हमें बादलों से जल प्राप्त होता है। जल से ही खेती होती है, जल को ही पीकर हम जीवित रहते हैं। हमारे पशुओं को भी जल से ही जीवन प्राप्त होता है। इंद्र जल के देवता है। उन्हीं की कृपा से हमें प्रतिवर्ष उचित मात्रा में और उचित समय पर जल प्राप्त होता है। अतः, हम ब्रजवासी प्रतिवर्ष आजकल इंद्र की पूजा करते हैं जो आयोजन तुम देख रहे हो, वह इंद्र की पूजा का ही है।” नंद बाबा का कथन सुनकर श्रीकृष्ण विचारों में डूब गए। वे कुछ देर तक मन ही मन सोचते रहे, फिर बोले, “बाबा, संसार में मुनष्य को जो कुछ मिलता है, वह अपने कर्मों के ही कारण मिलता है। कर्मों के ही कारण मनुष्य को दुख मिलता है, कर्मों के ही कारण सुख भी मिलता है। कर्मों के अनुसार ही वर्षा होती है और कर्मों के फलानुसार ही अकाल भी पड़ता है। जल की वृष्टि होने या न होने से इंद्र का कोई संबंध नहीं है।”
श्रीकृष्ण अपना कथन समाप्त करके सोचने लगे। नंद बाबा उनके कथन को सुनकर बड़े ही आश्चर्य के साथ उनके मुख की और देखने लगे। कुछ देर के बाद श्रीकृष्ण ने पुनः सोचते हुए कहा, “बाबा! मेरे वचनानुसार आपको इंद्र की पूजा नहीं करनी चाहिए। यदि आपको पूजा करनी ही है, तो गोवर्धन पर्वत की करनी चाहिए, क्योंकि गोवर्धन पर्वत से हमें बहुत-सी उपयोगी वस्तुएँ प्राप्त होती हैं।”
थोड़ी ही देर में संपूर्ण बस्ती में यह बात जोरों से फैल गई कि नंद के पुत्र श्रीकृष्ण इंद्र की पूजा के लिए मना कर रहे हैं। उनका कहना है कि इंद्र के स्थान पर गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। पहले तो गोपों ने कृष्ण की इस बात का विरोध किया, किंतु जब उन्होंने गोपों को समझाया तो वे मान गए। इसका कारण यह भी था कि वे कृष्ण के चमत्कारों को बार-बार अपनी आँखों से देख चुके थे। फलतः कृष्ण की बात मानकर गोपों ने यज्ञानुष्ठान और पूजा की सारी सामग्री गोवर्धन पर्वत को भेंट के रूप में अर्पित कर दी।
उधर, इंद्र के कानों में जब यह समाचार पड़ा, तो वह कुपित हो उठा। उसने प्रलयकाल के मेघों को बुलाकर आदेश दिया कि सारे ब्रज के ऊपर छा जाओ और इतनी वृष्टि करो कि संपूर्ण ब्रज पानी में डूब जाए।
इंद्र की आज्ञानुसार प्रलयकाल के बादल ब्रज की ओर दौड़ पड़े। देखते ही देखते सारा ब्रज काले-काले बादलों से ढक गया। बिजली चमक-चमक कर कड़कने लगी। तेज हवा चलने लगी। ऐसा लगने लगा कि मानो प्रलयकाल आ गया हो।
संपूर्ण ब्रज में घबराहट फैल गई। गोप, गोपिकाएँ और ग्वाल-बाल रोने और चीखने लगे, कहने लगे, “हाय, हाय, अब हम क्या करें? हमने कन्हैया की बात मानकर इंद्र की पूजा बंद कर दी। अब इंद्र के कोप से हमारी कौन रक्षा करे?”
कृष्ण ने ब्रजवासियों को समझाते हुए कहा, “ब्रजवासियो, घबराओ नहीं। अपने-अपने बाल- बच्चों और गोधन को लेकर गोवर्धन चलो। गोवर्धन ही हमारी रक्षा करेंगे।” कृष्ण के आदेशानुसार समस्त ब्रजवासी अपने-अपने बाल-बच्चों और गोधन के साथ गोवर्धन की ओर चल पड़े। श्रीकृष्ण पहले ही गोवर्धन के पास पहुँच गए थे। उन्होंने काँछनी काल कर गोवर्धन पर्वत को उठा लिया और उसे अपनी एक उँगली पर धारण कर लिया। उन्होंने ब्रजवासियों को पुकारते हुए कहा, “ब्रजवासियो, अपने-अपने बाल-बच्चों और गोधन को लेकर गोवर्धन पर्वत के नीचे आ जाओ।”
नंद बाबा, यशोदा और ब्रजवासियों ने जब श्रीकृष्ण को अपनी एक उँगली पर गोवर्धन पर्वत को धारण किए हुए देखा, तो उन्हें महान आश्चर्य हुआ। वे सभी लोग श्रीकृष्ण की जय बोलते हुए अपने- अपने गोधन के साथ गोवर्धन पर्वत के नीचे चले गए। इंद्र के प्रलयंकारी बादल लगातार सात दिनों तक गरज-गरज कर भयंकर वृष्टि करते रहे, तीव्र हवाएँ चलती रहीं और वज्रपात भी होता रहा, किंतु किसी भी ब्रजवासी का बाल तक बाँका नहीं हुआ। भगवान श्रीकृष्ण सात दिन और सात रातों तक गोवर्धन पर्वत को अपनी उँगली पर धारण किए रहे।
इंद्र सिर पटक-पटक कर थक गया, पर भगवान श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत को उठाए रहे। आखिर इंद्र का घमण्ड चूर हो गया। वह भगवान श्रीकृष्ण के सामने उपस्थित हुआ और हाथ जोड़कर बोला, “प्रभो! आपकी माया ने मेरी बुद्धि को ग्रसित कर लिया था। अतः मैं आपको समझकर भी नहीं समझ सका। मैं आपकी शरण में हूँ, मुझे क्षमा कर दीजिए।”
इंद्र भगवान श्रीकृष्ण की प्रार्थना करके चला गया। आकाश साफ हो गया। जल वृष्टि बंद हो गई। भगवान श्रीकृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को पुनः उसके स्थान पर रख दिया।
जब श्रीकृष्ण इतने दिनों के बाद अपने घर लौटे तो माता यशोदा ने उनके लिए 56 भोग बनाए क्योंकि एक सप्ताह में 56 पहर होते हैं और कृष्ण के लिए 56 पहरों का खाना एक साथ बनाया गया।