परशुराम उन दिनों शिवजी से शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। अपने शिष्यों की
मनोभूमि परखने के लिए शिवजी समय-समय पर उनकी परीक्षा लिया करते थे।
एक दिन गुरु ने कुछ अनैतिक काम करके छात्रों की प्रतिक्रिया जाननी चाही।
अन्य छात्र तो संकोच में दब गए पर परशुराम से न रहा गया। वे गुरु के
विरुद्ध लड़ने को खड़े हो गए और साधारण समझाने-बुझाने से काम न चला
तो फरसे का प्रहार कर डाला। चोट गहरी लगी। शिवजी का सिर फट गया। पर
उन्होंने बुरा न माना। वरन् संतोष व्यक्त करते हुए गुरुकुल के समस्त छात्रों को
संबोधित करते हुए कहा- अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करना प्रत्येक धर्मशील
व्यक्ति का मनुष्योचित कर्त्तव्य है। फिर अन्याय करने वाला चाहे कितनी ही
ऊँची स्थिति का क्यों न हो। संसार से अधर्म इसी प्रकार मिट सकता है। यदि
उसे सहन करते रहा जाएगा तो इससे अनीति बढ़ेगी और इस सुंदर संसार में
अशांति उत्पन्न होगी। परशुराम ने धर्म रक्षा के लिए जो दर्प प्रदर्शित किया उस
से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। शंकर जी ने अपने इस प्रिय शिष्य को उठाकर छाती से
लगा लिया। उन्हें अव्यर्थ शस्त्र ‘परशु’ उपहार में दिया और आशा प्रकट की कि
उनके द्वारा संसार में फैले हुए अधर्म का उन्मूलन करने की एक भारी लोक-
सेवा बन पड़ेगी। शिवजी ने अपने शिष्यों को और भी कहा– बालको ! केवल
दान, धर्म, जप, तप, व्रत, उपवास ही धर्म के लक्षण नहीं हैं, अनीति से
लड़ने का कठोर व्रत लेना भी धर्म साधना का एक अंग है। अधर्म का उन्मूलन
और धर्म का संस्थापन एक ही रथ के दो पहिये होते हैं। दोनों का क्रमचक्र
ठीक चलते रहने से सृष्टि का संतुलन ठीक रहता है इसलिए धर्म की रक्षा के
लिए एक उपाय पर निर्भर न रहकर दोनों का ही अवलंबन करना चाहिए।
परशुराम की धर्म-संघर्ष-वृत्ति अनुचित तनिक भी नहीं। उसमें आदि से अंत तक
औचित्य ही भरा पड़ा है परीक्षा के लिए ही मैंने अनुचित आचरण किया था और
तुम सब पर उसकी प्रतिक्रिया देखनी चाही थी। परशुराम सफल हुआ। इसका
मुझे गर्व है। इस गर्व को प्रख्यात करने के लिए परशु प्रहार के चिह्न को
शिवजी ने सदा दीखते रहने वाला ही बनाए रखा। उनके सहस्र नामों में एक
नाम ‘खंड परशु’ अर्थात् ‘फरसे से जिसका सिर फट गया हो’- भी विख्यात
है। विष्णु ने भी भृगु की लात छाती पर खाई थी और औचित्य का अनुमोदन
करने के रूप में उस चिह्न को सदा छाती पर बनाए रखा था। उन दिनों हैहय
वंशीय क्षत्रिय राजमद से मदांध हो रहे थे। रावण, कंस, हिरण्यकश्यप की तरह
उन्होंने स्वेच्छाचारिता अपना रखी थी। स्वार्थवश चाहे जिसके साथ जघन्य
व्यवहार करने पर उतारू हो जाते। भृगुवंशी पुरोहितों ने ऐसा न करने के लिए
उन्हें समझाया तो कुपित होकर उलटे आक्रमणकारी बन गए। घर खोदकर फेंक
दिए, स्त्रियों के गर्भ फाड़ डाले और जिन्होंने उन्हें समझाया था उनके सिर
काट लिए। जो बच गए वह महिष्मती छोड़कर सरस्वती तट पर जा बसे। इन्हीं
विस्थापित पुरोहितों में एक बालक था- परशुराम। वह शिवजी से शिक्षा तो प्राप्त
करता, पर साथ ही अत्याचारी के विरुद्ध उसके मन में निरंतर आग जलती
रहती। वह सोचता गुरु के द्वारा जो शक्ति उसे मिलेगी उसे अनाचार के
विरुद्ध संघर्ष करने में प्रयुक्त करेगा। बालक की निष्ठा परखने को शिवजी ने
वैसा प्रसंग उत्पन्न किया था। जब बालक ने गुरु का ही सिर फोड़ दिया तो
उन्हें विश्वास हो गया कि बालक में लौह पुरुष के गुण मौजूद हैं और वह अधर्म
के उन्मूलन की जन-आकांक्षा को पूरा करके रहेगा। शिवजी का आशीर्वाद पाकर
उनकी शिक्षा और विभूतियों से सुसज्जित होकर परशुराम अनाचार विरोधी एक
महान् अभियान की तैयारी करने लगे। परशुराम के इरादों का उस समय के
शासक कार्तवीर्य सहस्रार्जुन को पता लगा तो वह आग-बबूला हो गया और उन्हें
पकड़ने आश्रम में सैन्य समेत जा पहुँचा। वे न मिले तो उनके पिता जमदग्नि
का भाँति-भाति से अपमान किया और उनके आश्रम तथा पुस्तकालय को नष्ट-
भ्रष्ट कर डाला। परशुराम जब घर आए और आश्रम की यह दुर्दशा देखी-तो उन
के क्षोभ का ठिकाना न रहा। वे अपना दुर्दान्त परशु लेकर अकेले ही महिष्मती
पहुँचे और सहस्रार्जुन को धर दबाया। उसकी भुजायें फरसे,से काट डालीं और
सेना को धनुष-बाण से विचलित कर दिया। प्रतिशोध की आग और बढ़ी
सहस्रार्जुन के वंशजों ने अन्य अनेक राजाओं को लेकर चढ़ाई कर दी और
परशुराम के पिता जमदग्नि को 21 स्थानों से घायल करके उन्हें मार डाला।
कहने वालों ने कहा- एक साधु या ब्राह्मण के लिए इस प्रकार हिंसात्मक कार्य
करना उचित नहीं। उन्होंने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया कि अनीति ही वस्तुतः हिंसा
है। उसका प्रतिकार करने के लिए जब अहिंसा समर्थ न हो तो हिंसा भी अपनाई
जा सकती है। शास्त्र ने वैदिकी हिंसा को हिंसा नहीं माना है। क्रोध वह वर्जित
है जो स्वार्थ या अहंकार की रक्षा के लिए किया जाए। अन्याय के विरुद्ध
क्रुद्ध होना तो मानवता का चिह्न है। मानवता की मूलभूत आस्था को खोकर
क्रोध-अक्रोध जैसे नीति-नियमों में उलझे रहना व्यर्थ है। मेरा क्रोध धर्मयुक्त है
और मेरी हिंसा भी अनीति के प्रतिकार में प्रयुक्त होने के कारण उचित है। धर्म
की स्थापना और अधर्म के विनाश के लिए सदा से यही क्रम अपनाया भी जाता
रहा है। ऐसे तर्कयुक्त वचनों को सुनकर कहने-सुनने वाले चुप हो जाते। वे
संघर्ष की आग सुलगाए हुए देश-देशांतरों में भ्रमण करने लगे। जन-सहयोग से
उन्होंने अत्याचारियों के विनाश में आशाजनक सफलता पाई। व्यक्तियों के पास
कितनी ही बड़ी शक्ति क्यों न हो, जनता की संगठित सामर्थ्य से वह कम ही
रहती है। परशुराम के नेतृत्व में भड़का हुआ विद्रोह एक नहीं इक्कीस बार नृशंस
लोगों के अनाचारों का उन्मूलन करने तक चलता रहा और जब अवांछनीय तत्त्व
समाप्त हो गए तभी वह शांत हुआ। अनाचार को समाप्त करने की उदात्त
भावनाओं से प्रेरित होकर यद्यपि परशुराम जी को हिंसात्मक नीति अपनानी
पड़ी, पर उन्होंने इसे कभी अनुचित न समझा। शांति की स्थापना के लिए
प्रयुक्त हुई अशांति सराहनीय है और अहिंसा की परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के
लिए की गई हिंसा में पाप नहीं माना जाता। स्वार्थ और अन्याय के लिए ही
आक्रमण वर्जित है पर यदि आत्म-रक्षा या अनाचार की रोकथाम के लिए
प्रतिरोधात्मक उपाय के समय में हिंसा अपनानी पड़े तो न अनुचित माना जाता
है और न हेय। परशुराम जी शास्त्र और धर्म के गूढ़ तत्त्वों को भली-भाँति
समझते थे इसलिए आवश्यकता पड़ने पर काँटे से काँटा निकालने, विष से विष
मारने की नीति के अनुसार ऋषि होते हुए भी उन्होंने धर्म रक्षा के लिए सशस्त्र
अभियान आरंभ करने में तनिक भी संकोच न किया। जब प्रयोजन पूर्ण हो गया
तो उन्होंने अनावश्यक रक्तपात को एक क्षण के लिए भी जारी रखना उचित न
समझा। फरसे को उन्होंने समुद्र में फेंक दिया– जो राज्य छीने थे वह सारी
भूमि महर्षि कश्यप `को दान कर दी ताकि वे उन प्रदेशों में सुराज्य स्थापना
की व्यवस्था कर सकें। पितरों ने प्रसन्न होकर उनके इस धर्म संघर्ष के लिए
प्रसन्नता प्रकट की तो उन्होंने यही कहा- यदि आप लोग प्रसन्न हैं तो पहले
की तरह मेरी तपस्या, स्वाध्याय और धर्म रक्षा के मार्ग में प्रीति उत्पन्न हो
जाए। जन-कल्याण के लिए परशुराम जी ज्ञान और विग्रह दोनों को ही
आवश्यक मानते थे। नम्रता और ज्ञान से सज्जनों को और प्रतिरोध तथा दंड से
दुष्टों को जीता जा सकता है, ऐसी उनकी निश्चित मान्यता थी। इसलिए वे
उभयपक्षीय संतुलित नीति लेकर चलने से ही धर्म रक्षा की संभावना स्वीकार
करते थे। उनकी मान्यता उनके शब्दों में –
अप्रतश्चतुरी तुरे वेदाः पृष्ठतः शसरंधनु। क्षात्रं शास्त्रदपि शरादपि॥
अर्थात् – “मुख से चारों वेदों का प्रवचन करके और पीठ पर धनुष-बाण लेकर
चला जाए। ब्रह्म-शक्ति और शस्त्र-शक्ति दोनों ही आवश्यक हैं। शास्त्र से भी
और शस्त्र से भी धर्म का प्रयोजन सिद्ध करना चाहिए। वैशाख सुदी 3 अक्षय
तृतीया को परशुराम जी की जन्म जयंती मनाई जाती है। इन्हें भगवान् का
अवतार माना जाता है और वे शरीर समेत अमर हैं ऐसा कहा जाता है। कोंकण
और केरल में उनकी पूजा अधिक होती है। समुद्र तट पर कितने ही उनके मंदिर
बने हैं और वहाँ कितने ही मेले भी इसी पर्व पर लगते हैं। सज्जनता और
दुष्टता की अति कहीं भी नहीं होनी चाहिए। दोनों का ही समुचित प्रयोग किया
जाना चाहिए। दुष्टों के साथ सज्जनता और सज्जनों के साथ दुष्टता को व्यर्थ
ही नहीं अनुपयुक्त समझने की मान्यता परशुराम जी के जीवन और आदर्श में
कूट-कूट कर भरी थी। अहिंसा के इसी स्वरूप का वे प्रतिपादन करते रहे। हिंसा
और अहिंसा का अद्भुत समन्वय करने वाले परशुराम अभी भी हमारे विचार
क्षेत्र में एक पहेली की तरह विद्यमान रहते हैं।