कवि परिचय – केदारनाथ अग्रवाल
केदारनाथ अग्रवाल का जन्म उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले के कमासिन गाँव में सन् 1911 में हुआ। पेशे से वकील रहे केदारनाथ का तत्कालीन साहित्यिक आंदोलनों से गहरा जुड़ाव रहा। ये प्रगतिवादी धारा के प्रमुख कवि माने जाते हैं। जनसामान्य का संघर्ष और प्रकृति सौंदर्य उनकी कविताओं का मुख्य विषय रहा है। नींद के बादल, युग की गंगा, फूल नहीं रंग बोलते हैं, पंख और पतवार तथा कहे केदार खरी-खरी आदि उनकी प्रमुख काव्य-कृतियाँ है । उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
कविता का परिचय
चंद्रगहना से लौटती बेर कविता में कवि ने चंद्रगहना नामक स्थान से लौटते समय खेतों में चना, सरसों व अलसी की लहलहाती फसल व आस-पास की प्राकृतिक सुंदरता पर मुग्ध होकर उसका वर्णन किया है। इस वर्णन की खासियत यह है कि इसमें प्राकृतिक दृश्य का मानवीकरण हुआ है। जन साधारण के जीवन की गहरी और व्यापक संवेदना उनकी कविताओं में मुखरित हुआ है। मिट्टी की सुगंध व मिट्टी के प्रति अस्था के स्वर कविता में यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं।
कविता का कथ्य –
यह कविता ग्रामीण जीवन, प्रकृति और प्रेम का सुंदर चित्रण करती है। कवि खेतों, फसलों और पक्षियों के माध्यम से प्रेम, समर्पण और स्वतंत्रता के विचारों को व्यक्त करते हैं। वे प्रकृति में सौंदर्य और जीवन की सहजता को महसूस करते हैं और प्रेम की सच्ची कहानी सुनने की इच्छा रखते हैं। यह कविता प्राकृतिक चित्रों और कोमल भावनाओं का अनूठा संगम प्रस्तुत करती है, जिससे पाठक भी प्रकृति के साथ आत्मीयता महसूस करता है।
कविता के मुख्य बिंदु –
कवि चंद्रगहना नामक स्थान से लौट रहे हैं और एक खेत की मेंड़ (किनारे) पर बैठकर प्रकृति के विभिन्न रूपों का अवलोकन कर रहे हैं। वे छोटे-छोटे पौधों, फूलों, जलाशय और पक्षियों का सुंदर वर्णन करते हैं।
चना का पौधा – छोटा-सा पौधा है जो अपने गुलाबी फूल के साथ मानो सज-धज कर खड़ा है।
अलसी का पौधा – पतली, लचीली डंठल वाली अलसी नील फूलों के साथ किसी के प्रेम स्पर्श के लिए तैयार प्रतीत होती है।
सरसों का पौधा – सबसे परिपक्व (सयानी) हो चुका है और पीले फूलों के कारण दुल्हन की तरह तैयार लग रहा है।
फागुन का महीना – रंगों और उल्लास का महीना आ गया है, जिससे खेत-खलिहान में एक विवाह जैसा माहौल प्रतीत हो रहा है।
इसके बाद कवि पोखर (तालाब) के पास की प्राकृतिक हलचल को देखते हैं –
बगुला – ध्यान लगाकर पानी में देखता है और जैसे ही कोई मछली दिखती है, उसे पकड़कर खा लेता है।
काले माथे वाली चिड़िया – सफेद पंखों को फैलाकर झपट्टा मारती है और मछली को पकड़कर उड़ जाती है।
कवि रेल की पटरी के पास पहुँचते हैं और महसूस करते हैं कि अभी ट्रेन आने का समय नहीं है, इसलिए वे स्वच्छंद हैं। वे चित्रकूट की पहाड़ियों, बाँझ भूमि, रींवा के पेड़ों, तोते और सारस के मधुर स्वर को सुनते हैं।
अंत में, कवि सारस के संग उड़ जाने और उसकी प्रेम कहानी सुनने की इच्छा व्यक्त करते हैं।
चंद्रगहना से लौटती बेर
देख आया चंद्रगहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेंड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिंगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा है।
पास ही मिलकर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नील फूले फूल को सिर पर चढ़ा कर
कह रही है, ‘जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको।’
और सरसों की न पूछो
हो गयी सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं,
ब्याह – मंडप में पधारीय
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।
देखता हूँ मैं – स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग – अंचल हिल रहा है
इस विजन में
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।
और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रहीं इसमें लहरियाँ,
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वह भी लहरियाँ।
एक चाँदी का बड़ा-सा गोल खंभा
आँख को है चकमकाता।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुपचाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी!
चुप खड़ा बगुला डुबाये टाँग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान निद्रा त्यागता है,
चट दबा कर चोंच में
नीचे गले के डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में!
औ’ यहीं से
भूमि ऊँची है जहाँ से
रेल की पटरी गयी है।
ट्रेन का टाइम नहीं है।
मैं यहाँ स्वच्छन्द हूँ,
जाना नहीं है।
चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं।
बाँझ भूमि पर
इधर-उधर रींवा के पेड़
काँटेदार कुरूप खड़े हैं।
सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टेंय
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता,
उठता-गिरता
सारस का स्वर
टिरटों टिरटोंय
मन होता है
उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाये सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में
सच्ची प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे चुप्पे।
चंद्रगहना से लौटती बेर – व्याख्या सहित
01
देख आया चंद्रगहना।
देखता हूँ दृश्य अब मैं
मेंड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।
एक बीते के बराबर
यह हरा ठिंगना चना,
बाँधे मुरैठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा है।
शब्दार्थ –
चंद्रगहना – चित्रकूट के एक गाँव का नाम
मेंड़ – खेत की किनारी
बीते के बराबर – लगभग एक हाथ के बराबर
ठिंगना – कम कद वाला
शीश – सिर
मुरैठा – सिर पर बाँधी जाने वाली पगड़ी
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
कवि चंद्रगहना गाँव को देख आए हैं। वह खेत की मेड़ पर बैठे हैं और आस-पास के दृश्यों को देख रहे हैं। कवि ने देखा कि खेत में चने की फसल लगी है। उसका हरा पौधा लगभग एक बित्ते के बराबर ऊँचा हो गया है, मगर व्यक्तित्व से ठिगना मालूम पड़ता है। उसमें निकला हुआ गुलाबी फूल सिर पर बँधी पगड़ी की तरह मालूम पड़ता है। सजा-धजा चना मानो किसी उत्सव की तैयारी कर रहा है, हो सकता है कि वह अपनी शादी की तैयारी कर रहा हो!
02
पास ही मिलकर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नील फूले फूल को सिर पर चढ़ा कर
कह रही है, ‘जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको।’
शब्दार्थ –
हठीली – जिद्दी, अक्खड़
कमर की लचीली – पतली और लचकदार
हृदय का दान – प्रेम और समर्पण का प्रतीक
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या
कवि कहते हैं कि वहीं पास में ही सट कर तीसी के पौंधे उगे हुए हैं। मगर वह तो चने से लंबी है, देह से दुबली भी है, उसकी कमर में बहुत लचक भी है। उसने अपने नीले फूल को माथे पर चढ़ाकर सजा रखा है और शर्त रख दी है कि जो इस फूल को छू देगा उसे मैं अपने हृदय का दान दे दूँगी। मतलब उससे शादी कर लूँगी। लगता है कि उसने चने को ध्यान में रखकर यह कठिन शर्त रख दी है! बेचारा एक बित्ते का ठिगना चना उस लंबी छरहरी अलसी के सिर पर सजे नीले फूल को कैसे छू पाएगा! अलसी ने चने को छेड़ने के लिए खूब शरारत रची है!
03
और सरसों की न पूछो
हो गयी सबसे सयानी,
हाथ पीले कर लिए हैं,
ब्याह – मंडप में पधारीय
फाग गाता मास फागुन
आ गया है आज जैसे।
शब्दार्थ –
सयानी – परिपक्व, समझदार
हाथ पीले करना – ब्याह करना
फाग – एक लोकगीत
फागुन – फाल्गुन महीना, जो होली और फसल कटाई का समय होता है
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
कवि इन पंक्तियों में कहते हैं कि खेतों में फैली सरसों की फसल क्या खूब लग रही है! ऐसा लगता है मानो सरसों अब ब्याह के लायक सयानी हो गई है। उसके पीले फूल यूँ लग रहे हैं जैसे, शादी की तैयारी के लिए हल्दी–उबटन से हाथ पीले हो गए हैं। वह ब्याह के लिए मानो मंडप में आ चुकी है। यूँ लगता है कि फाल्गुन का महीना अपनी फगुनाहट की हवा के जरिए ब्याह और होली के गीत गा रहा है!
04
देखता हूँ मैं – स्वयंवर हो रहा है,
प्रकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है
इस विजन में
दूर व्यापारिक नगर से
प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।
शब्दार्थ –
स्वयंवर – विवाह के लिए चयन की प्रक्रिया
अनुराग-अंचल – प्रेममय वातावरण
विजन – जहाँ लोग न हों
व्यापारिक नगर – शहर या कस्बा जहाँ व्यापारिक गतिविधियाँ अधिक होती हैं
प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है – प्रेमपूर्ण स्थान अधिक उर्वर और समृद्ध होता है
संदर्भ और प्रसंग –
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
कवि को लग रहा है कि प्रकृति में स्वयंवर का कार्यक्रम चल रहा है। इस खुशी में प्रकृति का आँचल मारे स्नेह के डोल रहा है। वैसे तो यह जगह निर्जन है, मगर धंधे-व्यापार वाले शहर से दूर रहने के कारण यहाँ प्रेम का उपजाऊ वातावरण मौजूद है। अर्थात् सरल जीवन से उत्पन्न प्रेम की सम्भावनाएँ यहाँ उपलब्ध हैं। यहाँ शहरी जीवन की कृत्रिमता नहीं है।
05
और पैरों के तले है एक पोखर,
उठ रहीं इसमें लहरियाँ,
नील तल में जो उगी है घास भूरी
ले रही वह भी लहरियाँ।
एक चाँदी का बड़ा-सा गोल खंभा
आँख को है चकमकाता।
हैं कई पत्थर किनारे
पी रहे चुपचाप पानी,
प्यास जाने कब बुझेगी!
शब्दार्थ –
पोखर – छोटा तालाब
चकमकाता – चमकता हुआ
प्यास जाने कब बुझेगी – लालसा और अतृप्ति की भावना
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
यहाँ पर कवि ने एक बड़े तालाब की चर्चा की है। कवि जहाँ बैठे हैं, वहाँ से उसके पैरों की तरफ एक बड़ा पोखर है। हवा के कारण उस पोखर में लहरें दिखाई पड़ रही हैं। पोखर इतना गहरा और साफ-सुथरा है कि उसकी तलहटी नीली मालूम पड़ रही है। उस तलहटी में भूरी घास है और वह भी लहराती हुई दिखाई पड़ रही है। सूरज अपनी चमक के साथ पोखर के पानी में चाँदी के एक बड़े गोल खम्भे की तरह प्रतिबिंबित हो रहा है। पोखर के किनारे कई पत्थर हैं। कवि कल्पना करता है कि ये पत्थर मानो चुपचाप पानी पी रहे हैं। मगर ये तो न जाने किस जमाने से पानी पी रहे हैं! न जाने इनकी प्यास कब बुझेगी?
06
चुप खड़ा बगुला डुबाये टाँग जल में,
देखते ही मीन चंचल
ध्यान निद्रा त्यागता है,
चट दबा कर चोंच में
नीचे गले के डालता है!
एक काले माथ वाली चतुर चिड़िया
श्वेत पंखों के झपाटे मार फौरन
टूट पड़ती है भरे जल के हृदय पर,
एक उजली चटुल मछली
चोंच पीली में दबा कर
दूर उड़ती है गगन में!
शब्दार्थ –
ध्यान निद्रा त्यागता है – जागरूक हो जाता है
मीन चंचल – चंचल मछली
श्वेत – सफ़ेद
चोंच – Beak
गगन – आकाश
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
कवि कहते हैं कि तालाब में एक बगुला चुपचाप खड़ा है, बिल्कुल ध्यान लगाए ‘वकोध्यानं’, तैरती हुई एक मछली को देखकर वह अपनी ध्यान-निद्रा के अभिनय को त्यागता है और चोंच में फुर्ती के साथ दबाकर गले में डाल लेता है। मछली बगुले के पेट में चली गई। एक दूसरी चतुर चिड़िया है जिसका माथा काला है। वह सफेद पंखोंवाली है। वह अचानक पानी पर झपट्टा मारती है और एक चंचल मछली को अपनी पीली चोंच में दबाकर दूर आकाश में उड़ जाती है। अर्थात् प्रकृति के द्वारा प्रदत्त कार्यों का सभी प्राणी सही तरीके से निष्पादन कर रहे हैं।
07
औ’ यहीं से
भूमि ऊँची है जहाँ से
रेल की पटरी गयी है।
ट्रेन का टाइम नहीं है।
मैं यहाँ स्वच्छन्द हूँ,
जाना नहीं है।
चित्रकूट की अनगढ़ चौड़ी
कम ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ
दूर दिशाओं तक फैली हैं।
बाँझ भूमि पर
इधर-उधर रींवा के पेड़
काँटेदार कुरूप खड़े हैं।
शब्दार्थ –
भूमि – ज़मीन
स्वच्छन्द – आज़ाद
अनगढ़ – अव्यवस्थित
बाँझ – अनुपजाऊ
संदर्भ और प्रसंग –
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या –
पोखर के इन दृश्यों को दिखाने के बाद कवि बताते हैं कि पोखर के पास से ही जमीन क्रमशः ऊँची होने लगी है। उस ऊँचाई से रेल की पटरी गुजरी है। मगर अभी किसी ट्रेन के जाने का समय नहीं है। कवि को महसूस हो रहा है कि इस माहौल में वह पूरी तरह आजाद हैं। उन्हें कहीं आने-जाने का भी तनाव नहीं है। वे चारों तरफ नजर उठाकर देखते हैं कि चित्रकूट की पहाड़ियाँ दूर-दूर तक फैली हुई हैं। ये पहाड़ियाँ ज्यादा ऊँची नहीं हैं। ये आकार-प्रकार में भी सुगढ़ नहीं हैं। वहाँ की भूमि भी बंजर है। इधर-उधर रींवा के काँटेदार और कुरूप पेड़ दिखाई पड़ रहे हैं।
08
सुन पड़ता है
मीठा-मीठा रस टपकाता
सुग्गे का स्वर
टें टें टेंय
सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता,
उठता-गिरता
सारस का स्वर
टिरटों टिरटोंय
मन होता है
उड़ जाऊँ मैं
पर फैलाये सारस के संग
जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है
हरे खेत में
सच्ची प्रेम कहानी सुन लूँ
चुप्पे चुप्पे।
शब्दार्थ –
टिरटों टिरटोंय – सारस का स्वर
वनस्थली – जंगल का क्षेत्र
जुगुल जोड़ी – प्रेमी जोड़ा
संदर्भ और प्रसंग
‘चंद्रगहना से लौटती बेर’ शीर्षक कविता ‘फूल नहीं रंग बोलते हैं’ (1965) काव्य संग्रह में संगृहीत है। यह केदारनाथ अग्रवाल की एक प्रसिद्ध कविता है। चित्रकूट क्षेत्र में चंद्रगहना एक गाँव है। इस गाँव के आस-पास की प्रकृति के बारे में इस कविता में बताया गया है। यह चित्रण ग्रामीण के साथ-साथ किसानी भी है। मैदान की किसानी-प्रकृति पर कविता लिखने में केदारनाथ अग्रवाल को पर्याप्त सफलता मिली है।
व्याख्या
कवि कविता की अंतिम पंक्तियों में कहते हैं कि इस पथरीली बंजर जमीन के वातावरण में भी तोते की आवाज सुनाई पड़ती है। सुग्गे जब टें टें बोलते हैं तो लगता है कि कानों में मीठा-मीठा रस टपक रहा हो ! इस वन भूमि के सन्नाटे को चीरता हुआ सारस पक्षी का स्वर टिरटों टिरटों सुनाई पड़ता है। कवि का मन होता है कि पंख फैलाए उस सारस पक्षी के साथ वह उड़ जाए और वहाँ पहुँच जाए जहाँ वह अपनी जोड़ी के साथ रहता है। उसकी इच्छा है कि हरे-भरे खेतों में रहनेवाली इस जोड़ी की सच्ची प्रेम कहानी वह चुपचाप सुन ले और आनंदित होता रहे।
अभ्यास
- अलसी के मनोभावों का वर्णन कीजिए?
उत्तर – अलसी के मनोभाव कविता में शरारती, हठीली और प्रेममयी के रूप में व्यक्त किए गए हैं। वह छरहरी और लचकदार है, अपने नीले फूल को माथे पर सजाकर सज-धजकर खड़ी है। उसका यह कहना कि “जो छुए यह दूँ हृदय का दान उसको” उसके प्रेममय और चुनौतीपूर्ण स्वभाव को दर्शाता है। वह चने को छेड़ने के लिए कठिन शर्त रखती है, जो उसकी चंचल और शरारती प्रकृति को उजागर करता है।
- विजन किसी व्यापारिक नगर से क्यों श्रेष्ठ है?
उत्तर – विजन अर्थात् निर्जन स्थान व्यापारिक नगर से श्रेष्ठ है क्योंकि यहाँ शहरी जीवन की कृत्रिमता और व्यस्तता नहीं है। यहाँ प्रकृति का प्रेममय और उपजाऊ वातावरण है, जो सरल जीवन और प्राकृतिक सौंदर्य से भरा हुआ है। व्यापारिक नगर में भौतिकता और व्यापार की भागदौड़ होती है, जबकि विजन में शांति और प्रेम की संभावनाएँ प्रचुर हैं, जो आत्मिक संतुष्टि प्रदान करती हैं।
- काले माथेवाली चिड़िया किस तरह से मछली पकड़ती है?
उत्तर – काले माथे वाली चिड़िया, जो सफेद पंखों वाली है, अचानक और फुर्ती से पानी के हृदय पर झपट्टा मारती है। वह अपनी पीली चोंच में एक चंचल मछली को दबाकर तुरंत आकाश में उड़ जाती है। यह उसकी चतुराई, फुर्ती और शिकारी स्वभाव को दर्शाता है।
- “बाँधे मुरैठा शीश पर” इस पंक्ति के माध्यम से कवि क्या कहना चाहता है?
उत्तर – इस पंक्ति में कवि चने के पौधे के गुलाबी फूल को सिर पर बँधी पगड़ी या मुरैठा के रूप में चित्रित करता है। यह मानवीकरण के माध्यम से दर्शाता है कि चना सजा-धजा, उत्सव के लिए तैयार और प्रेममय भाव से खड़ा है, जैसे कोई व्यक्ति शादी या उत्सव के लिए सजकर तैयार हो। यह प्रकृति की जीवंतता और सौंदर्य को व्यक्त करता है।
- “देखता हूँ मैं स्वयंवर हो रहा है, प्रकृति का अनुराग अंचल हिल रहा है।” इन पंक्तियों में प्रकृति के किस दृश्य की ओर संकेत किया गया है।
उत्तर – इन पंक्तियों में कवि प्रकृति में फैली जीवंतता और प्रेममय वातावरण की ओर संकेत करता है। चने, अलसी और सरसों के पौधे अपने रंग-बिरंगे फूलों के साथ सज-धजकर खड़े हैं, मानो स्वयंवर का आयोजन हो रहा हो। प्रकृति का अनुराग अंचल हिलना इस प्रेममय और उत्सवी माहौल को दर्शाता है, जहाँ हर पौधा और प्राणी अपने प्राकृतिक सौंदर्य और कार्य में व्यस्त है।
6.प्रेम की प्रिय भूमि को अधिक उपजाऊ क्यों बताया गया है?
उत्तर – प्रेम की प्रिय भूमि को अधिक उपजाऊ बताया गया है क्योंकि यहाँ शहरी जीवन की कृत्रिमता और भौतिकता से मुक्त, प्राकृतिक और सरल जीवन है। यहाँ प्रकृति और प्राणियों में प्रेम, सौंदर्य और जीवन की उर्वरता प्रचुर मात्रा में है। यह भूमि आत्मिक और भावनात्मक रूप से समृद्ध है, जो व्यापारिक नगरों की तुलना में अधिक संतुष्टिदायक और जीवंत है।
- निम्नांकित पंक्तियों के भावार्थ लिखिए-
(क) एक चाँदी का बड़ा-सा गोल खंभा
आँख को है चकमकाता।
उत्तर – भावार्थ – कवि यहाँ पोखर (तालाब) में सूरज के प्रतिबिंब को चाँदी के बड़े गोल खंभे के रूप में वर्णन करते हैं, जो चमक रहा है और आँखों को आकर्षित कर रहा है। यह प्रकृति की सुंदरता और जल में सूर्य के प्रकाश की चमक का जीवंत चित्रण है।
(ख) सुन पड़ता है
वनस्थली का हृदय चीरता
उठता-गिरता
सारस का स्वर।
उत्तर – भावार्थ – कवि कहते हैं कि जंगल के सन्नाटे को चीरता हुआ सारस पक्षी का स्वर सुनाई देता है, जो ऊँचा-नीचा होता रहता है। यह स्वर प्रकृति की जीवंतता और उसकी संगीतमय उपस्थिति को दर्शाता है, जो कवि के मन को आकर्षित करता है।
पाठ से आगे
- अपने आस-पास के किसी प्राकृतिक स्थल का वर्णन कीजिए, जिसके दृश्य आपको इस पाठ को पढ़ते समय याद आ जाते हैं।
उत्तर – मेरे गाँव के पास एक छोटा सा तालाब है, जिसके किनारे हरे-भरे खेत और बाँस के पेड़ हैं। तालाब में कमल के फूल खिले रहते हैं, और सुबह के समय सूरज की किरणें पानी पर चमकती हैं, जो कविता में वर्णित “चाँदी का गोल खंभा” की तरह दिखती हैं। खेतों में सरसों और गेहूँ की फसलें लहलहाती हैं, और कोयल की कूक सुनाई देती है। यह दृश्य मुझे कविता के प्रकृति-प्रेम और ग्रामीण सौंदर्य की याद दिलाता है।
- एक कोलाहल भरे, घनी आबादी वाले नगर तथा शांत ग्रामीण अंचल की तुलना कीजिए और बताइए कि दोनों में कौन-कौन सी बातें आपको पसंद हैं और कौन-कौन सी नापसंद अपनी पसंदगी और नापसंदगी का कारण भी लिखते हुए इसे एक तालिका के माध्यम से दर्शाइए।
उत्तर –
पहलू | नगर | पसंद/नापसंद (कारण) | ग्रामीण अंचल | पसंद/नापसंद (कारण) |
वातावरण | कोलाहल, भीड़भाड़ | नापसंद (शोर और तनाव बढ़ता है) | शांत, प्राकृतिक | पसंद (मन को शांति मिलती है) |
प्रकृति | कम हरियाली, प्रदूषण | नापसंद (स्वास्थ्य पर बुरा असर) | हरे-भरे खेत, तालाब | पसंद (प्राकृतिक सौंदर्य और ताजगी) |
सुविधाएँ | अस्पताल, स्कूल, मॉल | पसंद (आधुनिक सुविधाएँ उपलब्ध) | सीमित सुविधाएँ | नापसंद (आपात स्थिति में असुविधा) |
जीवनशैली | व्यस्त, भागदौड़ | नापसंद (तनाव और समय की कमी) | सरल, शांत | पसंद (संतुष्टि और सामुदायिक जीवन) |
सामाजिकता | व्यक्तिवादी | नापसंद (कम सामुदायिक जुड़ाव) | सामुदायिक मेलजोल | पसंद (आपसी सहयोग और प्रेम) |
- ‘बगुला’ समाज के किस वर्ग का प्रतीक है और उनकी किन विशेषताओं को रेखांकित करता है? आज के समाज में यह उदाहरण कितना प्रासंगिक है?
उत्तर – बगुला समाज के उन लोगों का प्रतीक है जो बाहरी रूप से शांत, संयमित और ध्यानमग्न दिखते हैं, लेकिन अवसर मिलते ही अपनी चतुराई और फुर्ती से अपने लक्ष्य को हासिल कर लेते हैं। कविता में बगुला ‘वकोध्यानं’ की तरह खड़ा रहता है, लेकिन मछली देखते ही तुरंत उसे पकड़ लेता है। यह अवसरवादी और कपटी स्वभाव को दर्शाता है।
आज के समाज में यह उदाहरण अत्यंत प्रासंगिक है। कई लोग बाहरी रूप से शांत और विश्वसनीय दिखते हैं, लेकिन स्वार्थी उद्देश्यों के लिए अवसर का लाभ उठाते हैं, जैसे कि कुछ राजनेता, व्यापारी या पेशेवर जो चालाकी से अपने हित साधते हैं।
भाषा के बारे में
- प्रकृति का अनुराग अंचल हिल रहा है, जो मानवीकरण का उदाहरण है। मानवीकरण अंलकार- जहाँ जड़ वस्तुओं या प्रकृति पर माननीय चेष्टाओं का आरोप किया जाता हैं वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है। पाठ से मानवीकरण अलंकार के ऐसे ही अन्य उदाहरण लिखिए।
उत्तर – “बाँधे मुरैठा शीश पर / छोटे गुलाबी फूल का” (यहाँ चने का फूल पगड़ी की तरह सजा हुआ है, जैसे मनुष्य सजता है।)
“कह रही है, ‘जो छुए यह / दूँ हृदय का दान उसको'” (यहाँ अलसी को मानव की तरह प्रेम की शर्त रखते हुए दिखाया गया है।)
“हाथ पीले कर लिए हैं / ब्याह-मंडप में पधारी” (यहाँ सरसों को शादी के लिए तैयार दुल्हन की तरह चित्रित किया गया है।)
“हैं कई पत्थर किनारे / पी रहे चुपचाप पानी” (यहाँ पत्थरों को मानव की तरह पानी पीते हुए दिखाया गया है।)
- पाठ में ‘हरा ठिगना चना’, ‘हठीली अलसी’, ‘चतुर चिड़िया’ आदि विशेषणयुक्त शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार आप अपने आस-पास के कुछ पौधों, पक्षियों, फलों या जीव-जन्तुओं को किस तरह के विशेषणों के साथ प्रस्तुत करना चाहेंगे। ऐसे दस उदाहरण दीजिए।
उत्तर – चमकीला गुलाब
शरारती गौरैया
हरा-भरा आम
लचकदार बाँस
कोमल कमल
चंचल तितली
गर्वीला मोर
सुगंधित चमेली
फुर्तीला खरगोश
शांत कबूतर
परियोजना कार्य
- प्रकृति के सुंदर चित्रण की अन्य कविताओं का संकलन कर पढ़िए और कक्षा में सुनाइए।
उत्तर – छात्र स्वयं करें।
- किसी प्राकृतिक स्थल के भ्रमण को याद करते हुए एक लेख तैयार कीजिए और उसे कक्षा में सुनाइए।
उत्तर – छात्र स्वयं करें।
- कवि शमशेर बहादुर सिंह द्वारा लिखित कविता को पढ़ें और सुबह के जो दृश्य आपके मन में आए, उनके चित्र बनाएँ।
उषा
प्रातः नभ था बहुत नीला शंख जैसे
भोर का नभ
राख से लीपा हुआ चौका
( अभी गीला पड़ा है)
बहुत काली सिल जरा-से लाल केसर से
कि जैसे धुल गयी हो
स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने
नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो।
और…..
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है।
उत्तर – छात्र स्वयं करें।

