प्रेमचंद – लेखक परिचय
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई सन् 1880 में बनारस जिले के लमही ग्राम में हुआ था। उनका वास्तविक नाम धनपत राय था। प्रेमचंद की कहानियाँ मानसरोवर के 8 भागों में संकलित हैं। सेवासदन, प्रेमाश्रम, कर्मभूमि, गबन, निर्मला, रंगभूमि, कायाकल्प, गोदान इनके प्रमुख उपन्यास हैं। कथा-साहित्य के अतिरिक्त प्रेमचंद ने निबंध एवं अन्य प्रकार के गद्य लेखन के साथ ही हंस, माधुरी, जागरण जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं का संपादन भी किया। प्रेमचंद, साहित्य को सामाजिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम मानते हैं। उनके कथा साहित्य में तत्कालीन समाज की जीती-जागती बहुरंगी तस्वीर है जिसमें किसानों और मजदूरों की दयनीय स्थिति, स्त्रियों की दुर्दशा तथा सामाजिक विषमताओं का यथार्थवादी चित्रण है। सन् 1936 में इस महान कथाकार का देहांत हो गया।
पाठ परिचय
बच्चों का हृदय बड़ा निश्छल होता है। उनमें किसी प्रकार के भेद-भाव नहीं होते। जैसे-जैसे वे बड़े होने लगते हैं, उनके भीतर भेदमूलक व्यवहार उनके व्यक्तित्व में झलकने लगते हैं। प्रेमचंद की कहानी गुल्ली-डंडा, खेल की पृष्ठभूमि में मनुष्य के इसी अंतर्द्वद्व को प्रस्तुत करती है।
गुल्ली-डंडा
हमारे अंगरेजी दोस्त मानें या न मानें, मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। अब भी कभी लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखता हूँ तो जी लोट-पोट हो जाता है कि इनके साथ जाकर खेलने लगूँ। न लॉन की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाएँ, तो खेल शुरू हो गया।
विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता। यहाँ गुल्ली-डंडा है कि बिना हर्र – फिटकरी के चोखा रंग देता है, पर हम अंगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरुचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रुपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाएँ, जो बिना दाम कौड़ी के खेले जाते हैं। अंगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो? ठीक है, गुल्ली से आँख फूट जाने का भय रहता है, तो क्या क्रिकेट से सिर फूट जाने, तिल्ली फट जाने, टाँग टूट जाने का भय नहीं रहता! अगर हमारे माथे में गुल्ली का दाग आज तक बना हुआ है, तो हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे। यह अपनी-अपनी रुचि है। मुझे गुल्ली ही सब खेलों से अच्छी लगती है और बचपन की मीठी स्मृतियों में गुल्ली ही सबसे मीठी है।
वह प्रातः काल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियाँ काटना और गुल्ली-डंडे बनाना, वह उत्साह, वह खिलाड़ियों के जमघट, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिससे छूत-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोंचलों की प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब जब …। घरवाले बिगड़ रहे हैं, पिताजी चौके पर बैठे वेग से रोटियों पर अपना क्रोध उतार रहे हैं, अम्माँ की दौड़ केवल द्वार तक है, लेकिन उनकी विचारधारा में मेरा अंधकारमय भविष्य टूटी हुई नौका की तरह डगमगा रहा है और मैं हूँ कि पदाने में मस्त हूँ, न नहाने की सुधि है, न खाने की। गुल्ली है तो जरा-सी, पर उसमें दुनिया भर की मिठाइयों की मिठास और तमाशों का आनंद भरा हुआ है।
मेरे हमजोलियों में एक लड़का गया नाम का था। मुझसे दो-तीन साल बड़ा होगा। दुबला, बंदरों की-सी लंबी-लंबी, पतली-पतली उँगलियाँ, बंदरों की-सी चपलता, वही झल्लाहट। गुल्ली कैसी ही हो, पर इस तरह लपकता था, जैसे छिपकली कीड़ों पर लपकती है। मालूम नहीं, उसके माँ-बाप थे या नहीं, कहाँ रहता था, क्या खाता था; पर था हमारे गुल्ली – क्लब का चैंपियन जिसकी तरफ वह आ जाए, उसकी जीत निश्चित थी। हम सब उसे दूर से आते देख उसका दौड़कर स्वागत करते थे और अपना गोइयाँ बना लेते थे।
एक दिन मैं और गया दो ही खेल रहे थे। वह पदा रहा था। मैं पद रहा था, मगर कुछ विचित्र बात है कि पदाने में हम दिन-भर मस्त रह सकते है; पदना एक मिनट का भी अखरता है। मैंने गला छुड़ाने के लिए सब चालें चलीं, जो ऐसे अवसर पर शास्त्र – विहित न होने पर भी क्षम्य हैं, लेकिन गया अपना दाँव लिए बगैर मेरा पिंड न छोड़ता था।
मैं घर की ओर भागा। अनुनय-विनय का कोई असर न हुआ था।
गया ने मुझे दौड़कर पकड़ लिया और डंडा तानकर बोला- मेरा दाँव देकर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते हो।
“तुम दिन-भर पदाओ तो मैं दिन-भर पदता रहूँ?”
“हाँ, तुम्हें दिन-भर पदना पड़ेगा।”
“न खाने जाऊँ, न पीने जाऊँ?”
“हाँ! मेरा दाँव दिए बिना कहीं नहीं जा सकते।”
“मैं तुम्हारा गुलाम हूँ?”
“हाँ, मेरे गुलाम हो।”
“मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो!”
“घर कैसे जाओगे; कोई दिल्लगी है। दाँव दिया है, दाँव लेंगे।”
“अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।”
“वह तो पेट में चला गया।”
“निकालो पेट से तुमने क्यों खाया मेरा अमरूद? ”
“अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे माँगने न गया था।”
“जब तक मेरा अमरूद न दोगे, मैं दाँव न दूँगा।”
मैं समझता था, न्याय मेरी ओर है। आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। कौन निःस्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है। भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दाँव लेने का क्या अधिकार है? रिश्वत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं, यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जाएगा? अमरूद पैसे के पाँचवाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था।
गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा-मेरा दाँव देकर जाओ, अमरूद – समरूद मैं नहीं जानता।
मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था। मैं हाथ छुड़ाकर भागना चाहता था। वह मुझे जाने न देता! मैंने उसे गाली दी, उसने उससे कड़ी गाली दी, और गाली ही नहीं, एक चाँटा जमा दिया। मैंने उसे दाँत काट लिया। उसने मेरी पीठ पर डंडा जमा दिया। मैं रोने लगा। गया मेरे इस अस्त्र का मुकाबला न कर सका। मैंने तुरंत आँसू पोंछ डाले, डंडे की चोट भूल गया और हँसता हुआ घर जा पहुँचा।
उन्हीं दिनों पिताजी का वहाँ से तबादला हो गया। नई दुनिया देखने की खुशी में ऐसा फूला कि अपने हमजोलियों से बिछुड़ जाने का बिलकुल दुःख न हुआ। पिताजी दुःखी थे। वह बड़ी आमदनी की जगह थी। अम्माजी भी दुःखी थीं। यहाँ सब चीज सस्ती थीं, और मुहल्ले की स्त्रियों से घराँव-सा हो गया था, लेकिन मैं मारे खुशी के फूला न समाता था। लड़कों में जीट उड़ा रहा था, वहाँ ऐसे घर थोड़े ही होते हैं। ऐसे-ऐसे ऊँचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहाँ के अंगरेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेहल हो जाए। मेरे मित्रों की फैली हुई आँखें और चकित मुद्रा बतला रही थीं कि मुझसे उनकी निगाह में कितनी स्पर्द्धा हो रही थी ! मानो कह रहे थे- तू भाग्यवान है भाई, जाओ। हमें तो इसी ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी।
बीस साल गुजर गए। मैंने इंजीनियरी पास की और उसी जिले का दौरा करता हुआ उसी कस्बे में पहुँचा और डाकबँगले में ठहरा। उस स्थान को देखते ही इतनी मधुर बाल-स्मृतियाँ हृदय में जाग उठीं कि मैंने छड़ी उठाई और कस्बे की सैर करने निकला। आँखें किसी प्यासे पथिक की भाँति बचपन के उन क्रीड़ा स्थलों को देखने के लिए व्याकुल हो रही थीं, पर उस परिचित नाम के सिवा वहाँ और कुछ परिचित न था। जहाँ खँडहर था, वहाँ पक्के मकान खड़े थे। जहाँ बरगद का पुराना पेड़ था, वहाँ अब एक सुन्दर बगीचा था। स्थान की काया पलट हो गई थी। अगर उसके नाम और स्थिति का ज्ञान न होता, तो मैं उसे पहचान भी न सकता। बचपन की संचित और अमर स्मृतियाँ बाँहें खोले अपने उन पुराने मित्रों से गले मिलने को अधीर हो रही थीं मगर वह दुनिया बदल गई थी। ऐसा जी होता था कि उस धरती से लिपटकर रोऊँ और कहूँ, तुम मुझे भूल गई! मैं तो अब भी तुम्हारा वही रूप देखना चाहता हूँ।
सहसा एक खुली जगह में मैंने दो-तीन लड़कों को गुल्ली-डंडा खेलते देखा। एक क्षण के लिए मैं अपने को बिल्कुल भूल गया। भूल गया कि मैं एक ऊँचा अफसर हूँ, साहबी ठाठ में, रौब और अधिकार के आवरण में।
जाकर एक लड़के से पूछा- क्यों बेटे, यहाँ कोई गया नाम का आदमी रहता है?
‘हाँ, है तो।’
‘जरा उसे बुला सकते हो?”
लड़का दौड़ता हुआ गया और एक क्षण में एक पाँच हाथ के काले देव को साथ लिए आता दिखाई दिया। मैं दूर से ही पहचान गया। उसकी ओर लपकना चाहता था कि उसके गले लिपट जाऊँ, पर कुछ सोचकर रह गया। बोला- कहो गया, मुझे पहचानते हो?
गया ने झुककर सलाम किया- हाँ मालिक, भला पहचानूँगा क्यों नहीं! आप मजे में हो?
“बहुत मजे में। तुम अपनी कहो।”
“डिप्टी साहब का साईस हूँ।”
“मतई, मोहन, दुर्गा सब कहाँ हैं? कुछ खबर है?”
“मतई तो मर गया, दुर्गा और मोहन दोनों डाकिया हो गए हैं। आप?”
“मैं तो जिले का इंजीनियर हूँ।”
“सरकार तो पहले ही बड़े जहीन थे?”
“अब कभी गुल्ली-डंडा खेलते हो?”
गया ने मेरी ओर प्रश्न-भरी आँखों से देखा- अब गुल्ली-डंडा क्या खेलूँगा सरकार, अब तो धंधे से छुट्टी नहीं मिलती।
“आओ, आज हम-तुम खेलें। तुम पदाना, हम पदेंगे। तुम्हारा एक दाँव हमारे ऊपर है। वह आज ले लो।”
गया बड़ी मुश्किल से राजी हुआ। वह ठहरा टके का मजदूर मैं एक बड़ा अफसर। हमारा और उसका क्या जोड़? बेचारा झेंप रहा था। लेकिन मुझे भी कुछ कम झेंप न थी; इसलिए नहीं कि मैं गया के साथ खेलने जा रहा था, बल्कि इसलिए कि लोग इस खेल को अजूबा समझकर इसका तमाशा बना लेंगे और अच्छी-खासी भीड़ लग जाएगी। उस भीड़ में वह आनंद कहाँ रहेगा, पर खेले बगैर तो रहा नहीं जाता। आखिर निश्चय हुआ कि दोनों जने बस्ती से बहुत दूर खेलेंगे और बचपन की उस मिठाई को खूब रस ले-लेकर खाएँगे। मैं गया को लेकर डाकबंगले पर आया और मोटर में बैठकर दोनों मैदान की ओर चले। साथ में एक कुल्हाड़ी ले ली। मैं गंभीर भाव धारण किए हुए था, लेकिन गया इसे अभी तक मजाक ही समझ रहा था। फिर भी उसके मुख पर उत्सुकता या आनंद का कोई चिह्न न था। शायद वह हम दोनों में जो अंतर हो गया था, यही सोचने में मगन था।
मैंने पूछा- तुम्हें कभी हमारी याद आती थी गया? सच कहना।
गया झेंपता हुआ बोला- मैं आपको याद करता हजूर, किस लायक हूँ। भाग में आपके साथ कुछ दिन खेलना बदा था; नहीं तो मेरी क्या गिनती?
मैंने कुछ उदास होकर कहा- लेकिन मुझे तो बराबर, तुम्हारी याद आती थी। तुम्हारा वह डंडा, जो तुमने तानकर जमाया था, याद है न?
गया ने पछताते हुए कहा- वह लड़कपन था सरकार, उसकी याद न दिलाओ।
‘वाह! वह मेरे बाल – जीवन की सबसे रसीली याद है। तुम्हारे उस डंडे में जो रस था, वह तो अब न आदर-सम्मान में पाता हूँ न धन में।’
इतनी देर में हम बस्ती से कोई तीन मील निकल आए। चारों तरफ सन्नाटा है। पश्चिम ओर कोसों तक भीमताल फैला हुआ है, जहाँ आकर हम किसी समय कमल पुष्प तोड़ ले जाते थे और उसके झूमक बनाकर कानों में डाल लेते थे। जेठ की संध्या केसर में डूबी चली आ रही है। मैं लपककर एक पेड़ पर चढ़ गया और एक टहनी काट लाया। चटपट गुल्ली-डंडा बन गया।
खेल शुरू हो गया। मैंने गुच्ची में गुल्ली रखकर उछाली। गुल्ली गया के सामने से निकल गई। उसने हाथ लपकाया, जैसे मछली पकड़ रहा हो। गुल्ली उसके पीछे जाकर गिरी। यह वही गया है, जिसके हाथों में गुल्ली जैसे आप ही आकर बैठ जाती थी। वह दाहिने-बाएँ कहीं हो, गुल्ली उसकी हथेली में ही पहुँचती थी। जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो। नई गुल्ली, पुरानी गुल्ली, छोटी गुल्ली, बड़ी गुल्ली, नोकदार गुल्ली, सपाट गुल्ली सभी उससे मिल जाती थी। जैसे उसके हाथों में कोई चुंबक हो, गुल्लियों को खींच लेता हो; लेकिन आज गुल्ली को उससे वह प्रेम नहीं रहा। फिर तो मैंने पदाना शुरू किया। मैं तरह-तरह की धांधलियाँ कर रहा था। अभ्यास की कसर बेईमानी से पूरी कर रहा था। हुच जाने पर भी डंडा खेले जाता था। हालाँकि शास्त्र के अनुसार गया की बारी आनी चाहिए थी। गुल्ली पर ओछी चोट पड़ती और वह जरा दूर पर गिर पड़ती, तो मैं झपटकर उसे खुद उठा लेता और दोबारा टाँड़ लगाता गया यह सारी बे-कायदगियाँ देख रहा था; पर कुछ न बोलता था, जैसे उसे वह सब कायदे-कानून भूल गए। उसका निशाना कितना अचूक था। गुल्ली उसके हाथ से निकलकर टन से डंडे से आकर लगती थी। उसके हाथ से छूटकर उसका काम था डंडे से टकरा जाना, लेकिन आज वह गुल्ली डंडे में लगती ही नहीं! कभी दाहिने जाती है, कभी बाएँ, कभी आगे, कभी पीछे।
आध घंटे पदाने के बाद एक गुल्ली डंडे में आ लगी। मैंने धाँधली की गुल्ली डंडे में नहीं लगी। बिल्कुल पास से गई, लेकिन लगी नहीं।
गया ने किसी प्रकार का असंतोष प्रकट नहीं किया।
“न लगी होगी।”
“डंडे में लगती तो क्या मैं बेईमानी करता?”
“नहीं भैया, तुम भला बेईमानी करोगे?”
बचपन में मजाल था कि मैं ऐसा घपला करके जीता बचता ! यही गया गर्दन पर चढ़ बैठता, लेकिन आज मैं उसे कितनी आसानी से धोखा दिए चला जाता था। गधा है! सारी बातें भूल गया।
सहसा गुल्ली फिर डंडे से लगी और इतनी जोर से लगी, जैसे बंदूक छूटी हो। इस प्रमाण के सामने अब किसी तरह की धाँधली करने का साहस मुझे इस वक्त भी न हो सका, लेकिन क्यों न एक बार सबको झूठ बताने की चेष्टा करूँ? मेरा हरज ही क्या है। मान गया तो वाह-वाह, नहीं दो-चार हाथ पदना ही तो पड़ेगा। अँधेरे का बहाना करके जल्दी से छुड़ा लूँगा। फिर कौन दाँव देने आता है।
गया ने विजय के उल्लास में कहा- लग गई, लग गई। टन से बोली।
मैंने अनजान बनने की चेष्टा करके कहा- तुमने लगते देखा? मैंने तो नहीं देखा।
“टन से बोली है सरकार !”
“और जो किसी ईंट से टकरा गई हो?”
मेरे मुख से यह वाक्य उस समय कैसे निकला, इसका मुझे खुद आश्चर्य है। इस सत्य को झुठलाना वैसा ही था, जैसे दिन को रात बताना। हम दोनों ने गुल्ली को डंडे में जोर से लगते देखा था; लेकिन गया ने मेरा कथन स्वीकार कर लिया।
‘हाँ, किसी ईंट में ही लगी होगी। डंडे में लगती तो इतनी आवाज न आती।
मैंने फिर पदाना शुरू कर दिया; लेकिन इतनी प्रत्यक्ष धाँधली कर लेने के बाद गया की सरलता पर मुझे दया आने लगी; इसीलिए जब तीसरी बार गुल्ली डंडे में लगी, तो मैंने बड़ी उदारता से दाँव देना तय कर लिया।
गया ने कहा- अब तो अँधेरा हो गया है भैया, कल पर रखो।
मैंने सोचा, कल बहुत-सा समय होगा, यह न जाने कितनी देर पदाए, इसलिए इसी वक्त मुआमला साफ कर लेना अच्छा होगा।
“नहीं, नहीं। अभी बहुत उजाला है। तुम अपना दाँव ले लो।”
“गुल्ली सूझेगी नहीं।”
“कुछ परवाह नहीं।”
गया ने पदाना शुरू किया; पर उसे अब बिलकुल अभ्यास न था। उसने दो बार टाँड़ लगाने का इरादा किया; पर दोनों ही बार हुच गया। एक मिनिट से कम में वह दाँव खो बैठा। मैंने अपनी हृदय की विशालता का परिचय दिया।
“एक दाँव और खेल लो। तुम तो पहले ही हाथ में हुच गए।”
“नहीं भैया, अब अँधेरा हो गया।
“तुम्हारा अभ्यास छूट गया। कभी खेलते नहीं?”
“खेलने का समय कहाँ मिलता है भैया!”
हम दोनों मोटर पर जा बैठे और चिराग जलते-जलते पड़ाव पर पहुँच गए। गया चलते-चलते बोला- कल यहाँ गुल्ली-डंडा होगा। सभी पुराने खिलाड़ी खेलेंगे। तुम भी आओगे? जब तुम्हें फुरसत हो, तभी खिलाड़ियों को बुलाऊँ।
मैंने शाम का समय दिया और दूसरे दिन मैच देखने गया। कोई दस-दस आदमियों की मंडली थी। कई मेरे लड़कपन के साथी निकले! अधिकांश युवक थे, जिन्हें मैं पहचान न सका। खेल शुरू हुआ। मैं मोटर पर बैठा-बैठा तमाशा देखने लगा। आज गया का खेल, उसका नैपुण्य देखकर मैं चकित हो गया। टाँड़ लगाता, तो गुल्ली आसमान से बातें करती। कल की-सी वह झिझक, वह हिचकिचाहट, वह बेदिली आज न थी। लड़कपन में जो बात थी, आज उसने प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। कहीं कल इसने मुझे इस तरह पदाया होता, तो मैं जरूर रोने लगता। उसके डंडे की चोट खाकर गुल्ली दो सौ गज की खबर लाती थी।
पदने वालों में एक युवक ने कुछ धाँधली की। उसने अपने विचार में गुल्ली लपक ली थी। गया का कहना था – गुल्ली जमीन में लगकर उछली थी। इस पर दोनों में ताल ठोकने की नौबत आई है। युवक दब गया। गया का तमतमाया हुआ चेहरा देखकर डर गया। अगर वह दब न जाता, तो जरूर मार-पीट हो जाती।
मैं खेल में न था; पर दूसरों के इस खेल में मुझे वही लड़कपन का आनंद आ रहा था, जब हम सब कुछ भूलकर खेल में मस्त हो जाते थे। अब मुझे मालूम हुआ कि कल गया ने मेरे साथ खेला नहीं, केवल खेलने का बहाना किया। उसने मुझे दया का पात्र समझा। मैंने धाँधली की, बेईमानी की, पर उसे जरा भी क्रोध न आया। इसलिए कि वह खेल न रहा था, मुझे खेला रहा था, मेरा मन रख रहा था। वह मुझे पदाकर मेरा कचूमर नहीं निकालना चाहता था। मैं अब अफसर हूँ। यह अफसरी मेरे और उसके बीच में दीवार बन गई है। मैं अब उसका लिहाज पा सकता हूँ, अदब पा सकता हूँ, साहचर्य नहीं पा सकता। लड़कपन था, तब मैं उसका समकक्ष था। यह पद पाकर अब मैं केवल उसकी दया योग्य हूँ। वह मुझे अपना जोड़ नहीं समझता। वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ।
गुल्ली डंडा पाठ का सार
‘गुल्ली-डंडा’ प्रेमचंद द्वारा लिखित एक आत्मकथात्मक कहानी है, जो गुल्ली-डंडा खेल के माध्यम से बचपन की मधुर स्मृतियों, सामाजिक समानता, और परिवर्तन को दर्शाती है। लेखक गुल्ली-डंडा को सस्ता, सरल, और आनंददायक भारतीय खेल बताते हैं, जो अंग्रेजी खेलों से बेहतर है। बचपन में गया नामक मित्र के साथ खेल की यादें और उसकी चपलता का वर्णन है। वर्षों बाद, इंजीनियर बनकर उसी कस्बे में लौटने पर लेखक को बदलाव दिखता है। गया अब साईस है, और सामाजिक दूरी के कारण पुराना साहचर्य नहीं रहा। खेल में गया की उदारता और लेखक की धांधली यह दर्शाती है कि अफसरी ने उनके बीच दीवार खड़ी कर दी। कहानी बचपन की मासूमियत, सामाजिक बदलाव, और खेल की शक्ति को उजागर करती है।
शब्दार्थ
व्यसन – बुरी आदत
थापी – कुटेला, लकड़ी से बना बैट जैसा दिखने वाला
गोइयाँ – साथी, दोस्त
जमघट – लोगों की भीड़
वशीकरण – वश में करना
घराँव – घनिष्ठता, परस्पर मेलजोल का भाव, घर का सा संबंध;
सुधि – याद, स्मृति
शास्त्र-विहित – शास्त्र के अनुसार
शास्त्र सम्मत – शास्त्र द्वारा समर्थित
बेर – समय
बे-कायदगियाँ – जो नियम या कायदे के विरूद्ध हो
गुच्ची – गुल्ली डंडा खेलने के लिए बनाया जाने वाला छोटा गड्ढा
टाँड़ – गुल्ली पर किया गया आघात
सलूक – व्यवहार
साईस – ताँगा हाँकने वाला
जहीन – जिसका ज़ेहन तेज हो
मेधावी – प्रतिभावान, समझदार, बुद्धिमान
जीट – मौज
पदना – दाँव देना
पदाना – दाँव लेना
|
शब्द |
हिंदी अर्थ |
अंग्रेजी अर्थ |
|
लोट-पोट |
बहुत उत्साहित होना |
Overwhelmed with excitement |
|
थापी |
क्रिकेट का बल्ला |
Cricket bat |
|
हर्र-फिटकरी |
रासायनिक सामग्री, यहाँ मुफ्त का प्रतीक |
Alum and potash, here symbolizing free |
|
चोखा |
शानदार, उत्तम |
Excellent, splendid |
|
अरुचि |
रुचि न होना |
Disinterest |
|
व्यसन |
बुरी आदत |
Addiction |
|
चोंचले |
दिखावा, नखरे |
Pretensions, airs |
|
छूत-अछूत |
जातिगत भेदभाव |
Caste-based discrimination |
|
गोइयाँ |
खेल में साथी |
Teammate in game |
|
अनुनय-विनय |
विनम्र प्रार्थना |
Pleading, entreaty |
|
शास्त्र-विहित |
शास्त्रों द्वारा अनुमोदित |
Sanctioned by scriptures |
|
क्षम्य |
क्षमा योग्य |
Forgivable |
|
पिंड |
पीछा |
Pursuit, bothering |
|
जहीन |
बुद्धिमान |
Intelligent |
|
साहबी ठाठ |
अधिकारियों जैसी शान |
Official grandeur |
|
रौब |
प्रभाव, दबदबा |
Authority, influence |
|
झेंप |
शर्मिंदगी |
Embarrassment |
|
बेदिली |
अनिच्छा |
Reluctance |
|
नैपुण्य |
कुशलता |
Skill, expertise |
|
धांधली |
बेईमानी, छल |
Cheating, deceit |
|
ताल ठोकना |
झगड़ा शुरू करना |
Picking a fight |
|
साहचर्य |
मित्रता, साथ |
Companionship |
अभ्यास
पाठ से
- लेखक ने ऐसा क्यों कहा है कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है?
उत्तर – लेखक ने गुल्ली-डंडा को सब खेलों का राजा इसलिए कहा है क्योंकि यह एक ऐसा खेल है जिसमें किसी भी तरह के खर्चे की आवश्यकता नहीं होती। इसे खेलने के लिए न लॉन, न कोर्ट और न ही नेट या थापी की जरूरत पड़ती है। किसी भी पेड़ की एक टहनी काटकर गुल्ली और डंडा बनाया जा सकता है और सिर्फ दो लोग मिलकर भी इस खेल को शुरू कर सकते हैं। यह खेल महँगे विलायती खेलों के विपरीत बिना किसी खर्च के भरपूर आनंद देता है।
- “मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुआ था” लेखक खेल में पराजित होने के बाद भी अपनी ओर ‘न्याय का बल’ क्यों मानता है और ‘वह’ (गया) को ‘अन्याय पर डटा’ क्यों कहता है?
उत्तर – लेखक अपनी ओर ‘न्याय का बल’ इसलिए मानता है क्योंकि उसने दाँव देने से पहले गया को एक अमरूद खिलाया था। लेखक के बाल-मन के अनुसार, जब उसने गया को अमरूद की रिश्वत दे दी है तो गया को उससे दाँव लेने का कोई अधिकार नहीं है। इसी तर्क के आधार पर वह गया द्वारा अपना दाँव माँगे जाने को ‘अन्याय पर डटा होना’ कहता है, जबकि वास्तव में खेल के नियमों के अनुसार गया का दाँव माँगना पूरी तरह से न्यायसंगत था।
- पिताजी अपने तबादले से दुःखी थे, जबकि लेखक खुश था। क्यों?
उत्तर – पिताजी अपने तबादले से इसलिए दुःखी थे क्योंकि वह जगह अच्छी आमदनी वाली थी, जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे। वहीं, लेखक (जो उस समय बच्चा था) नई दुनिया देखने, ऊँची इमारतों और अंग्रेजी स्कूल के बारे में सोचकर बहुत खुश था, जहाँ उसे लगता था कि मास्टरों द्वारा लड़कों को पीटा नहीं जाता होगा। उसे अपने दोस्तों से बिछड़ने का भी कोई दुःख नहीं था।
- बीस साल बाद जब लेखक फिर से उस कस्बे में पहुँचा, तो उस कस्बे और लेखक दोनों में क्या-क्या बदलाव हो चुके थे?
उत्तर – बीस साल बाद कस्बे और लेखक दोनों में बहुत बदलाव आ चुके थे:
कस्बे में बदलाव – कस्बे का पूरा नक्शा ही बदल गया था। जहाँ पहले खँडहर थे, वहाँ अब पक्के मकान बन गए थे और जहाँ बरगद का पुराना पेड़ था, वहाँ एक सुंदर बगीचा लग गया था। कस्बे की पूरी कायापलट हो चुकी थी।
लेखक में बदलाव – लेखक अब एक बच्चा नहीं, बल्कि एक बड़ा अफसर (इंजीनियर) बन चुका था। उसके और उसके बचपन के साथियों के बीच पद और सामाजिक स्थिति का एक बड़ा अंतर आ गया था।
- लेखक के साथ खेलते हुए गया के मन में गुल्ली-डंडा के प्रति वही जोश और उत्साह देखने को नहीं मिला, जो बचपन में हुआ करता था। गया के व्यवहार में इस परिवर्तन के पीछे कौन से कारण रहे होंगे?
उत्तर – गया के व्यवहार में इस परिवर्तन के पीछे मुख्य कारण समय के साथ लेखक और उसके बीच उत्पन्न हुआ सामाजिक और आर्थिक अंतर था। अब लेखक एक बड़ा अफसर था और गया एक गरीब साईस। गया लेखक के साथ खेल नहीं रहा था, बल्कि एक अफसर का मन रख रहा था। उसके मन में संकोच, झिझक और अपने पद की हीनता का भाव था। वह लेखक को अपना पुराना दोस्त ‘गोइयाँ’ नहीं, बल्कि ‘सरकार’ या ‘मालिक’ समझ रहा था, इसलिए उसके खेल में वह पुराना जोश और उत्साह नहीं था।
- निम्नांकित कथनों के क्या अभिप्राय हैं
(क) “वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ।”
उत्तर – इस कथन का अभिप्राय पद या उम्र से नहीं, बल्कि चरित्र और व्यवहार से है। गया अब भी वही सरल, स्वाभिमानी और निश्छल व्यक्ति था, लेकिन उसने लेखक के अफसर पद का मान रखा और उसकी बेईमानियों को भी अनदेखा कर दिया। इस तरह उसने अपने व्यवहार की महानता दिखाई। इसके विपरीत, लेखक अफसर बनकर अपने बचपन के दोस्त के साथ धाँधली और बेईमानी कर रहा था, जिससे उसने स्वयं को चरित्र में छोटा साबित कर दिया।
(ख) “हमारे कई दोस्त ऐसे भी हैं, जो थापी को बैसाखी से बदल बैठे।”
उत्तर – इस कथन का अभिप्राय है कि लोग गुल्ली-डंडा को खतरनाक मानते हैं, लेकिन क्रिकेट जैसे खेल उससे भी ज्यादा खतरनाक हो सकते हैं। ‘थापी’ (क्रिकेट का बैट) से खेलते हुए कई दोस्तों को ऐसी गंभीर चोटें लगीं कि उन्हें ‘बैसाखी’ (crutches) का सहारा लेना पड़ा। यह एक व्यंग्यात्मक तुलना है।
पाठ से आगे
- गुल्ली-डंडा एक ऐसा भारतीय खेल है जिसके लिए पैसे खर्चने की जरूरत नहीं पड़ती। अपने आसपास / परिवेश में प्रचलित ऐसे खेलों की सूची बनाइए। वर्तमान समाज में इन खेलों के प्रति घटते आकर्षण के क्या कारण हो सकते हैं?
उत्तर – बिना पैसों के खेले जाने वाले कुछ अन्य खेल हैं –
कबड्डी
खो-खो
पिट्ठू (सतोलिया)
छिपा-छिपी (लुका-छिपी)
लंगड़ी-टाँग
कंचे खेलना
इन खेलों के प्रति घटते आकर्षण के कारण –
शहरीकरण – शहरों में खेलने के लिए खुली जगहों की कमी हो गई है।
डिजिटल युग – बच्चे अब अपना ज्यादातर समय मोबाइल, वीडियो गेम और कंप्यूटर पर बिताते हैं।
पढ़ाई का दबाव – बच्चों पर पढ़ाई और अच्छे अंक लाने का दबाव इतना अधिक है कि उन्हें खेलने का समय ही नहीं मिलता।
पश्चिमी खेलों का प्रभाव – क्रिकेट, फुटबॉल जैसे खेलों को अधिक महत्त्व दिया जाता है, जिससे पारंपरिक खेल पीछे छूट रहे हैं।
- गुल्ली-डंडा कहानी में इस खेल से जुड़े कुछ शब्द आए हैं; जैसे- दाँव, पदना / पदाना, हुच, गुल्ली आदि।
अपने आसपास प्रचलित खेलों से जुड़ी शब्दावलियों की एक सूची बनाइए-
उत्तर –
|
खेल के नाम |
खेल से जुड़े शब्द |
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कबड्डी |
रेडर, पाला, कैचर, लोना, बोनस पॉइंट |
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खो-खो |
खो देना, चेज़र, रनर, पोल, डाइव |
|
पिट्ठू/सतोलिया |
पिट्ठू, गेंद, आउट होना, थ्रो |
|
क्रिकेट |
बैट, बॉल, विकेट, रन, चौका, छक्का, आउट |
|
कैरम |
स्ट्राइकर, गोटी, क्वीन, पॉकेट, फाइन |
भाषा के बारे में
- सामान्य अर्थ को छोड़कर विशेष अर्थ को प्रकट करने वाले वाक्यांश मुहावरे तथा वाक्य लोकोक्ति कहे जाते हैं। लोकोक्ति लम्बे लोक अनुभव को व्यक्त करने वाला सूत्र वाक्य होता है। कहानी में कई मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग हुआ है; जैसे- लोट-पोट हो जाना, हर्रे लगे न फिटकरी रंग चोखा आए, पिंड न छोड़ना आदि। इन मुहावरों के अलावा कहानी से अन्य मुहावरे भी ढूँढ़िए और उनका वाक्य में प्रयोग करते हुए अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – कहानी में आए कुछ अन्य मुहावरे –
फूला न समाना (अर्थ – बहुत अधिक खुश होना) –
वाक्य प्रयोग – परीक्षा में प्रथम आने पर रमेश फूला नहीं समा रहा था।
काया पलट हो जाना (अर्थ – पूरी तरह बदल जाना) –
वाक्य प्रयोग – दस वर्षों बाद जब मैं अपने गाँव गया तो वहाँ की तो काया पलट हो गई थी।
गर्दन पर चढ़ बैठना (अर्थ – किसी पर हावी होना या ज़बरदस्ती करना) –
वाक्य प्रयोग – तुम हमेशा मेरी शराफत का फायदा उठाकर मेरी गर्दन पर चढ़ बैठते हो।
आसमान से बातें करना (अर्थ – बहुत ऊँचा होना) –
वाक्य प्रयोग – आजकल शहरों में इमारतें आसमान से बातें करती हैं।
- कहानी में ‘बचपन’, ‘लड़कपन’ जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। ‘बच्चा’ और ‘लड़का’ में ‘पन’ प्रत्यय जोड़ने से यह नया शब्द बना है। ‘बच्चा’ और ‘लड़का’ जातिवाचक संज्ञा शब्द हैं, जबकि ‘बचपन’ और ‘लड़कपन भाववाचक संज्ञा शब्द हैं। कहानी से जातिवाचक संज्ञा शब्दों को छाँटकर उसका भाववाचक रूप बनाइए-
उदाहरण
जातिवाचक संज्ञा शब्द भाववाचक संज्ञा शब्द
आदमी आदमियत
मास्टर मास्टरी
उत्तर –
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जातिवाचक संज्ञा शब्द |
भाववाचक संज्ञा शब्द |
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बच्चा |
बचपन |
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लड़का |
लड़कपन |
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दोस्त |
दोस्ती |
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गुलाम |
गुलामी |
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इंसान |
इंसानियत |
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स्त्री |
स्त्रीत्व |
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मित्र |
मित्रता |
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मजदूर |
मजदूरी |
- ‘सोहन बस्तर में रहता है और वह रोज स्कूल जाता है।’
इस वाक्य में वह निश्चयवाचक सर्वनाम है, जिसका प्रयोग सोहन के लिए हुआ है। जबकि कहानी से ली गई अग्रलिखित वाक्यों में वह का प्रयोग सर्वनाम के रूप में किसी व्यक्ति को सूचित नहीं करता है। हिंदी भाषा में वह सर्वनाम शब्द का प्रयोग कई बार दूर या अनुपस्थित व्यक्ति को सूचित करने के अतिरिक्त भाव या विचार के लिए भी होता है। जैसे-
वह प्रातःकाल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियाँ काटना और गुल्ली-डंडे बनाना, वह उत्साह, वह खिलाड़ियों के जमघट, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिससे छूत-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोंचलों की प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब
जब …
- उपर्युक्त वाक्यों की तरह वह का प्रयोग करते हुए पाँच वाक्य बनाइए।
उत्तर – वह गर्मी की छुट्टियों में नानी के घर जाना।
वह दोस्तों के साथ मिलकर पेड़ों से आम तोड़ना।
वह बारिश में कागज की नाव चलाना।
वह परीक्षा के दिनों में देर रात तक जागना।
वह स्कूल का पहला दिन और मन में अजीब सा डर।
- उसी वक्त भूलेगा जब … जब … .. वाक्य को पूरा कीजिए।
उत्तर – यह उसी वक्त भूलेगा जब जीवन की साँसें थम जाएँगी।
योग्यता विस्तार
- छत्तीसगढ़ के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त खिलाड़ियों से जुड़ी जानकारियों को पत्र-पत्रिकाओं से इकट्ठा कीजिए और उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं और प्रसंगों को कक्षा में साझा कीजिए।
उत्तर – छात्र स्वयं करें।
- “पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब खेलोगे कूदोगे होगे ख़राब” समाज में प्रचलित इस मान्यता से आप कहाँ तक सहमत हैं। इस पर कक्षा में वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन कीजिए।
उत्तर – यह मान्यता अब पुरानी हो चुकी है और मैं इससे पूरी तरह असहमत हूँ। आज के समय में पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ खेलकूद का भी बहुत महत्त्व है।
पक्ष में तर्क – पढ़ाई एक स्थिर भविष्य देती है, जबकि खेल में करियर अनिश्चित होता है।
विपक्ष में तर्क – खेल हमें शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखता है। यह अनुशासन, टीम-वर्क और हार-जीत को समान भाव से लेने की सीख देता है। आज सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली, नीरज चोपड़ा जैसे खिलाड़ियों ने साबित कर दिया है कि खेल में भी एक सफल और सम्मानजनक करियर बनाया जा सकता है।
- चन्द्रधर शर्मा गुलेरी द्वारा लिखित निबंध खेल भी शिक्षा ही है को पुस्तकालय / इंटरनेट / शिक्षक की सहायता से ढूँढ़कर पढ़िए और सहपाठियों से इस पर चर्चा कीजिए।
उत्तर – छात्र स्वयं करें।
- क्रिकेट खेलने के लिए किन-किन सामग्रियों की आवश्यकता होती है। इन सामग्रियों की बाजार में कीमत पता कीजिए तथा किसी भी देशी / स्थानीय खेल में आने वाले खर्च से इसकी तुलना कीजिए।
उत्तर – क्रिकेट की सामग्री और अनुमानित लागत –
बल्ला (Bat) – ₹500 – ₹5000
गेंद (Ball) – ₹150 – ₹1000
विकेट (Stumps) – ₹300 – ₹1500
पैड, ग्लव्स, हेलमेट आदि – ₹2000 – ₹10000+
कुल खर्च – लगभग ₹3000 से ₹15000 या उससे भी अधिक।
देशी खेल (जैसे गुल्ली-डंडा) में आने वाला खर्च –
गुल्ली और डंडा – ₹0 (पेड़ की टहनी से बनाया जा सकता है)
कुल खर्च – शून्य
तुलना – इस तुलना से स्पष्ट है कि क्रिकेट जैसे विदेशी खेल बहुत महँगे हैं, जबकि गुल्ली-डंडा जैसे देशी खेल बिना किसी खर्च के खेले जा सकते हैं, जैसा कि लेखक ने कहानी में बताया है।
बहुविकल्पीय प्रश्न (MCQs)
- कहानी का मुख्य विषय क्या है?
a) अंग्रेजी खेलों की श्रेष्ठता
b) गुल्ली-डंडा और बचपन की स्मृतियाँ
c) सामाजिक भेदभाव का विरोध
d) इंजीनियरी की पढ़ाई
उत्तर – b) गुल्ली-डंडा और बचपन की स्मृतियाँ - लेखक गुल्ली-डंडा को क्यों सब खेलों का राजा मानते हैं?
a) यह महँगा है
b) यह सरल और सस्ता है
c) इसमें कोर्ट चाहिए
d) यह अंग्रेजी खेल है
उत्तर – b) यह सरल और सस्ता है - लेखक को अंग्रेजी खेलों में क्या कमी लगती है?
a) वे सरल हैं
b) उनके सामान महँगे हैं
c) वे गाँवों में खेले जाते हैं
d) वे बच्चों के लिए हैं
उत्तर – b) उनके सामान महँगे हैं - ‘हर्र-फिटकरी’ का अर्थ कहानी में क्या है?
a) खर्चीला सामान
b) मुफ्त में उपलब्ध
c) रासायनिक पदार्थ
d) खेल का सामान
उत्तर – b) मुफ्त में उपलब्ध - गया कौन था?
a) लेखक का शिक्षक
b) गुल्ली-डंडा का चैंपियन
c) लेखक का भाई
d) एक अमीर लड़का
उत्तर – b) गुल्ली-डंडा का चैंपियन - लेखक को गया की कौन-सी विशेषता याद थी?
a) उसकी पढ़ाई
b) उसकी चपलता और कुशलता
c) उसका धन
d) उसका व्यवहार
उत्तर – b) उसकी चपलता और कुशलता - लेखक ने गया को बचपन में क्या खिलाया था?
a) मिठाई
b) अमरूद
c) रोटी
d) फल
उत्तर – b) अमरूद - लेखक और गया के बीच बचपन में झगड़े का कारण क्या था?
a) दाँव देने की बात
b) अमरूद चुराने की बात
c) स्कूल न जाने की बात
d) खिलौने की बात
उत्तर – a) दाँव देने की बात - वर्षों बाद लेखक उसी कस्बे में किस रूप में लौटे?
a) शिक्षक
b) इंजीनियर
c) डाकिया
d) साईस
उत्तर – b) इंजीनियर - गया अब क्या काम करता था?
a) डाकिया
b) इंजीनियर
c) साईस
d) माली
उत्तर – c) साईस - लेखक को कस्बे में क्या बदलाव दिखा?
a) कोई बदलाव नहीं
b) खँडहर की जगह पक्के मकान
c) गुल्ली-डंडा बंद हो गया
d) स्कूल बंद हो गया
उत्तर – b) खँडहर की जगह पक्के मकान - लेखक को गया के साथ खेलने में क्यों झेंप हुई?
a) वह अब बड़ा अफसर था
b) गया उसका दुश्मन था
c) खेल में भीड़ थी
d) गुल्ली टूट गई थी
उत्तर – a) वह अब बड़ा अफसर था - गया ने लेखक के साथ खेल में क्यों धांधली स्वीकार की?
a) वह डर गया था
b) वह लेखक का लिहाज कर रहा था
c) उसे खेल का नियम भूल गया
d) वह बीमार था
उत्तर – b) वह लेखक का लिहाज कर रहा था - ‘झेंप’ शब्द का अर्थ क्या है?
a) खुशी
b) शर्मिंदगी
c) गुस्सा
d) उत्साह
उत्तर – b) शर्मिंदगी - कहानी में ‘साहचर्य’ का अर्थ है?
a) दुश्मनी
b) मित्रता
c) अधिकार
d) धन
उत्तर – b) मित्रता - लेखक ने गया को खेल के लिए कहाँ ले जाने का निश्चय किया?
a) कस्बे के बीच
b) बस्ती से दूर मैदान
c) डाकबंगले के पास
d) स्कूल के मैदान
उत्तर – b) बस्ती से दूर मैदान - गया की खेल में बेदिली का कारण क्या था?
a) वह बीमार था
b) सामाजिक दूरी
c) उसे खेलना नहीं आता था
d) गुल्ली खराब थी
उत्तर – b) सामाजिक दूरी - कहानी में गुल्ली-डंडा किसका प्रतीक है?
a) धन का
b) बचपन की मासूमियत का
c) अंग्रेजी संस्कृति का
d) सामाजिक भेद का
उत्तर – b) बचपन की मासूमियत का - लेखक को अंत में क्या अफसोस हुआ?
a) गया के साथ खेलने का
b) अफसरी ने साहचर्य खो दिया
c) कस्बे के बदलने का
d) गुल्ली टूटने का
उत्तर – b) अफसरी ने साहचर्य खो दिया - कहानी का अंतिम संदेश क्या है?
a) धन ही सब कुछ है।
b) बचपन की मासूमियत अनमोल है।
c) अंग्रेजी खेल बेहतर हैं।
d) सामाजिक दूरी स्वाभाविक है।
उत्तर – b) बचपन की मासूमियत अनमोल है।
अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. लेखक ने किस खेल को सब खेलों का राजा कहा है और क्यों?
उत्तर – लेखक ने गुल्ली-डंडा को सब खेलों का राजा कहा है क्योंकि इसे खेलने के लिए किसी महँगे सामान या विशेष जगह की ज़रूरत नहीं होती।
प्रश्न 2. लेखक के अनुसार विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब क्या है?
उत्तर – लेखक के अनुसार विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब यह है कि उनके सामान बहुत महँगे होते हैं।
प्रश्न 3. बचपन में गुल्ली-डंडा खेलते समय कैसा सामाजिक माहौल होता था?
उत्तर – बचपन में गुल्ली-डंडा खेलते समय छूत-अछूत और अमीर-गरीब का कोई भेद नहीं होता था और सभी बच्चे एक समान होकर खेलते थे।
प्रश्न 4. लेखक के बचपन के सबसे अच्छे गुल्ली-डंडा खिलाड़ी का क्या नाम था?
उत्तर – लेखक के बचपन के सबसे अच्छे गुल्ली-डंडा खिलाड़ी का नाम गया था।
प्रश्न 5. गया गुल्ली को कैसे लपकता था?
उत्तर – गया गुल्ली को उसी फुर्ती से लपकता था जैसे कोई छिपकली कीड़ों पर लपकती है।
प्रश्न 6. बचपन में लेखक और गया के बीच झगड़ा क्यों हुआ था?
उत्तर – बचपन में लेखक और गया के बीच झगड़ा खेल में दाँव देने की बात को लेकर हुआ था।
प्रश्न 7. लेखक अपना दाँव देने से बचने के लिए गया को क्या तर्क दे रहा था?
उत्तर – लेखक अपना दाँव देने से बचने के लिए यह तर्क दे रहा था कि उसने गया को अमरूद खिलाया था, इसलिए गया को उससे दाँव लेने का कोई अधिकार नहीं है।
प्रश्न 8. लेखक के पिताजी अपने तबादले से दुःखी क्यों थे?
उत्तर – लेखक के पिताजी अपने तबादले से इसलिए दुःखी थे क्योंकि वह जगह ज़्यादा आमदनी वाली थी।
प्रश्न 9. लेखक अपने तबादले की खबर से खुश क्यों था?
उत्तर – लेखक अपने तबादले की खबर से इसलिए खुश था क्योंकि उसे नई दुनिया देखने और बड़े शहर के अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने का उत्साह था।
प्रश्न 10. कितने साल बाद लेखक वापस उसी कस्बे में लौटा?
उत्तर – पूरे बीस साल गुजर जाने के बाद लेखक एक इंजीनियर बनकर वापस उसी कस्बे में लौटा।
प्रश्न 11. बीस साल बाद कस्बे में क्या-क्या बदलाव आ गए थे?
उत्तर – बीस साल बाद कस्बे की पूरी कायापलट हो गई थी, जहाँ पुराने खँडहरों की जगह पक्के मकान और बरगद के पेड़ की जगह सुंदर बगीचा बन गया था।
प्रश्न 12. बड़े होने पर गया क्या काम करता था?
उत्तर – बड़े होने पर गया डिप्टी साहब का साईस (घोड़े की देखभाल करने वाला) बन गया था।
प्रश्न 13. लेखक ने दोबारा खेलने के लिए गया को कैसे राजी किया?
उत्तर – लेखक ने गया को यह याद दिलाकर राजी किया कि बचपन का एक दाँव उस पर बाकी है, जिसे वह आज ले सकता है।
प्रश्न 14. दोबारा खेलते समय लेखक बेईमानी क्यों कर रहा था?
उत्तर – दोबारा खेलते समय लेखक अपने अभ्यास की कमी को छिपाने और खेल में बने रहने के लिए बेईमानी कर रहा था।
प्रश्न 15. लेखक की बेईमानी पर गया ने कोई आपत्ति क्यों नहीं जताई?
उत्तर – गया ने लेखक की बेईमानी पर कोई आपत्ति इसलिए नहीं जताई क्योंकि वह लेखक को एक बड़ा अफसर मानकर उसका लिहाज कर रहा था और खेल का आनंद लेने के बजाय सिर्फ उसका मन रख रहा था।
प्रश्न 16. लेखक को अपनी गलती का अहसास कब हुआ?
उत्तर – लेखक को अपनी गलती का अहसास तब हुआ जब उसने अगले दिन गया को दूसरे खिलाड़ियों के साथ पूरे नैपुण्य और जोश से खेलते हुए देखा।
प्रश्न 17. लेखक के अनुसार उसके और गया के बीच दीवार क्या बन गई थी?
उत्तर – लेखक के अनुसार उसके और गया के बीच उसकी “अफसरी” यानी उसका ऊँचा पद और सामाजिक स्तर दीवार बन गई थी।
प्रश्न 18. कहानी के अंत में लेखक ने क्यों कहा कि “वह बड़ा हो गया है, मैं छोटा हो गया हूँ”?
उत्तर – लेखक ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि गया ने पद में छोटे होने के बावजूद अपने व्यवहार में बड़प्पन और शालीनता दिखाई, जबकि लेखक ने अफसर होकर भी बेईमानी करके अपने चरित्र को छोटा साबित कर दिया।
प्रश्न 19. लेखक के अनुसार बचपन के खेल की सबसे मीठी बात क्या थी?
उत्तर – लेखक के अनुसार बचपन के खेल की सबसे मीठी बात वह समानता का भाव था जिसमें पद, अमीरी-गरीबी या जाति-पाति का कोई भेद नहीं होता था।
प्रश्न 20. इस कहानी का मुख्य संदेश क्या है?
उत्तर – इस कहानी का मुख्य संदेश यह है कि समय के साथ पद और सामाजिक स्थिति बचपन की निश्छल मित्रता और समानता के भाव को खत्म कर देती है।
लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
- लेखक गुल्ली-डंडा को अन्य खेलों से श्रेष्ठ क्यों मानते हैं?
उत्तर – लेखक गुल्ली-डंडा को श्रेष्ठ मानते हैं क्योंकि यह सरल, सस्ता, और बिना विशेष सामान के खेला जाता है। इसमें लॉन, कोर्ट, या महँगे उपकरणों की जरूरत नहीं। यह गरीब-अमीर सभी के लिए समान आनंद देता है। - कहानी में अंग्रेजी खेलों की क्या कमी बताई गई है?
उत्तर – अंग्रेजी खेलों की कमी यह है कि उनके सामान महँगे हैं, जिन्हें खरीदने के लिए बहुत खर्च करना पड़ता है। ये खेल गरीब बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं, जबकि गुल्ली-डंडा मुफ्त में आनंद देता है। - गया की कौन-सी विशेषताएँ लेखक को याद थीं?
उत्तर – लेखक को गया की चपलता, कुशलता, और गुल्ली-डंडा में निपुणता याद थी। वह गुल्ली को छिपकली की तरह लपकता था और खेल में चैंपियन था, जिसकी जीत निश्चित थी। - बचपन में लेखक और गया के बीच झगड़े का कारण क्या था?
उत्तर – बचपन में झगड़ा दाँव देने को लेकर हुआ। लेखक पदने से बचने के लिए भागा, लेकिन गया ने उसे पकड़कर दाँव माँगा। अमरूद की बात भी बहस में आई। - लेखक को कस्बे में क्या बदलाव दिखा?
उत्तर – लेखक को कस्बे में खँडहरों की जगह पक्के मकान, बरगद के पेड़ की जगह बगीचा, और पूरी काया पलट दिखी। पुराने क्रीड़ा स्थल पहचान में नहीं आए। - लेखक को गया के साथ खेलने में झेंप क्यों हुई?
उत्तर – लेखक को झेंप इसलिए हुई क्योंकि वह अब बड़ा अफसर था, और गया साईस। सामाजिक दूरी और लोगों के तमाशा बनाने का डर उन्हें शर्मिंदगी दे रहा था। - गया ने लेखक की धांधली क्यों स्वीकार की?
उत्तर – गया ने लेखक की धांधली इसलिए स्वीकारी क्योंकि वह उसका लिहाज कर रहा था। सामाजिक दूरी के कारण वह लेखक को दया का पात्र मानकर खेल में गंभीर नहीं था। - ‘साहचर्य’ का कहानी में क्या महत्त्व है?
उत्तर – ‘साहचर्य’ बचपन की मित्रता और समानता को दर्शाता है, जो अमीर-गरीब, छूत-अछूत के भेद के बिना थी। अफसरी ने लेखक और गया के बीच यह साहचर्य छीन लिया। - कहानी में गुल्ली-डंडा किसका प्रतीक है?
उत्तर – गुल्ली-डंडा बचपन की मासूमियत, समानता, और सरल आनंद का प्रतीक है। यह सामाजिक भेदभाव से मुक्त, सभी के लिए सुलभ खेल है। - कहानी का अंतिम संदेश क्या है?
उत्तर – कहानी का संदेश है कि बचपन की मासूमियत और साहचर्य अनमोल है। सामाजिक पद और अफसरी पुरानी मित्रता की जगह नहीं ले सकते। गुल्ली-डंडा इसकी याद दिलाता है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
- लेखक गुल्ली-डंडा को भारतीय खेलों का प्रतीक क्यों मानते हैं?
उत्तर – लेखक गुल्ली-डंडा को भारतीय खेलों का प्रतीक मानते हैं क्योंकि यह सरल, सस्ता, और सभी के लिए सुलभ है। बिना लॉन, कोर्ट, या महँगे सामान के यह आनंद देता है। यह गरीब-अमीर, छूत-अछूत के भेद को मिटाकर सामाजिक समानता को बढ़ावा देता है, जो अंग्रेजी खेलों में नहीं। - कहानी में गया और लेखक के बीच बचपन और वयस्कता में क्या अंतर आया?
उत्तर – बचपन में गया और लेखक समान थे, गुल्ली-डंडा में साहचर्य था। गया चैंपियन था, और लेखक उसका साथी। वयस्कता में लेखक इंजीनियर, गया साईस बन गया। सामाजिक दूरी ने साहचर्य छीन लिया; गया ने लेखक की धांधली स्वीकारी, क्योंकि वह अब उसे दया का पात्र मानता था। - कहानी में कस्बे के बदलाव का लेखक के मन पर क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर – कस्बे में खँडहरों की जगह पक्के मकान और बरगद के पेड़ की जगह बगीचा देखकर लेखक को बचपन की स्मृतियाँ जागीं, पर अपरिचितता ने उदासी दी। वह पुराने क्रीड़ा स्थलों से गले मिलना चाहता था, पर बदलाव ने उसे अकेला कर दिया। - गया की खेल में बेदिली का कारण क्या था, और यह क्या दर्शाता है?
उत्तर – गया की बेदिली का कारण सामाजिक दूरी थी। लेखक अब अफसर था, और गया साईस। वह लेखक का लिहाज कर रहा था, इसलिए धांधली स्वीकार की। यह दर्शाता है कि सामाजिक पद और आर्थिक अंतर बचपन की मित्रता और समानता को नष्ट कर देते हैं। - कहानी सामाजिक भेदभाव पर क्या टिप्पणी करती है?
उत्तर – कहानी सामाजिक भेदभाव पर टिप्पणी करती है कि बचपन में गुल्ली-डंडा अमीर-गरीब, छूत-अछूत के भेद मिटाता था। वयस्कता में लेखक की अफसरी और गया की साईसी ने साहचर्य छीन लिया। यह दर्शाता है कि सामाजिक पद और आर्थिक अंतर मासूम मित्रता को प्रभावित करते हैं।
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर

