Path 1.3: Baadal Ko Ghirté Dekha Hai (Kavita) — Nagarjun, Class X, Hindi Book, Chhattisgarh Board Solutions.

कविपरिचय – नागार्जुन

(सन् 1911-1998)

तरौनी गाँव, ज़िला मधुबनी, बिहार के निवासी, नागार्जुन का जन्म अपने ननिहाल सतलखा, ज़िला दरभंगा, बिहार में हुआ था। उनका मूल नाम वैद्यनाथ मिश्र था। नागार्जुन की प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय संस्कृत पाठशाला में हुई। बाद में इस निमित्त वाराणसी और कोलकाता भी गए। सन् 1936 में वे श्रीलंका गए और वहीं बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए। सन् 1938 में वे स्वदेश वापस आए। फक्कड़पन और घुमक्कड़ी उनके जीवन की प्रमुख विशेषता रही है। उन्होंने कई बार संपूर्ण भारत का भ्रमण किया।

राजनीतिक कार्यकलापों के कारण कई बार उन्हें जेल भी जाना पड़ा। सन् 1935 में उन्होंने दीपक (मासिक) तथा 1942-43 में विश्वबंधु (साप्ताहिक) पत्रिका का संपादन किया। अपनी मातृभाषा मैथिली में वे यात्री नाम से रचना करते थे। मैथिली में नवीन भावबोध की रचनाओं का प्रारंभ उनके महत्त्वपूर्ण कविता-संग्रह चित्रा से माना जाता है। नागार्जुन ने संस्कृत तथा बांग्ला में भी काव्य-रचना की है।

कविता का परिचय

नागार्जुन द्वारा रचित ‘बादल को घिरते देखा है’ – कविता में प्रकृति का चित्रण किया गया है। यह कविता नागार्जुन की कविता संग्रह ‘युगधारा’ से ली गई है। वर्षा ऋतु के आने पर संपूर्ण प्रकृति में जो परिवर्तन आता है उसका कवि ने छह दृश्य द्वारा वर्णन किया है। इसी प्रकृति से सबंधित मनोभावों को विविध बिंबों के माध्यम द्वारा अभिव्यक्त किया है। वे छह दृश्य कुछ इस प्रकार हैं-

पर्वत के शिखरों पर उमड़ने-घुमड़ने वाले मेघों की कई छवियों की प्राकृतिक सुषमा को दर्शाया है।

पावस (वर्षा) की उमस को शांत करते हुए मानसरोवर में तैरते हंस,

चकवा – चकवी का प्रणय मिलन,

हिमालय की गोद में सुवास खोजते हिरन,

हिमालय की चोटियों पर बादल का गरजना, तूफान,

कालिदास द्वारा रचित महाकाव्य ‘मेघदूत’ को कल्पित बताने का प्रयास

मनोरम अँगुलियों को वंशी पर फिरते किन्नर और किन्नरियाँ।  

ये सभी चित्र बहुत ही आकर्षक, मनोरम तथा हृदयस्पर्शी होने के साथ-साथ कविता को मनोरंजक और रोचक बनाते हैं यदि देखा जाए तो ऐसा लगता है कि कवि ने कालिदास की परंपरा को आगे बढ़ाया है।

कविता का मूलभाव

नागार्जुन की यह कविता  ‘बादल को घिरते देखा है’ उनकी कविता संग्रह ‘युगधारा’ से लिया गया है। कविता में प्रकृति चित्रण का सुंदर उदाहरण है। वर्षा ऋतु आने पर सारी प्रकृति जैसे अपनी विरहाग्नि शांत करती हुई नजर आती है। इसी भाव को कवि ने विविध बिंबों से व्यक्त किया है। कविता में हिमालय की पहाड़ियों, दुर्गम बर्फीली घाटियों, झीलों, झरनों तथा देवदारु के जंगलों के बीच दुर्लभ वनस्पतियों जीव-जंतुओं, गगनचुंबी कैलाश पर्वत पर मेघा किन्नर-किन्नरियों के विलास पूर्ण जीवन का अत्यंत आकर्षण वर्णन किया है।

कवि बताता है कि जब स्वच्छ और धवल चोटियों पर वर्षा कालीन बादल छा जाते हैं तो संपूर्ण प्रकृति उल्लास से भर जाती है। मानसरोवर के सुनहरे कमलों पर ओस-कण मोतियों के समान झलकते हैं पावस की उमस से व्याकुल समतल प्रदेशों से आकर हंस झीलों में तैरते हुए कमल डंडियों को खोजते हैं। रात की विरह पीड़ा से व्याकुल चकवा – चकवी सवेरा होते ही अपनी प्रणय – क्रीडा में मग्न हो जाते हैं। सैकड़ों हजारों फुट दुर्गम बर्फीली घाटी में अपनी ही नाभि से उठने वाली मादक सुगन्ध को न पाने पर युवा हिरन को खीझते हुए देखा है।

पर्वतों पर छाई घटा कालिदास की रचना मेघदूत की याद दिला देती है। कवि ने भीषण जाड़ों में मेघों को झंझावत (तेज हवायें) को आपसे भिड़ते हुए देखा है। पर्वतीय शोभा पर मुग्ध कवि को किन्नर – किन्नरियों का विलासपूर्ण जीवन याद आ जाता है। वे मस्ती के वातावरण में द्राक्षासव (मदिरा) तथा संगीत का आनंद उठाते दिखाई देते हैं।

कविता का उद्देश्य

प्रस्तुत कविता में कवि उन सारी वस्तुओं एवं घटनाओं का अस्तित्व स्वीकार करता है जो उसने अपनी आँखों से देखा है लेकिन उन चीजों का अस्तित्व नहीं स्वीकार करता है जो सिर्फ किताबों में दिखायी पड़ती है। या इसी आधर पर वह कालिदास की बताई गई सारी चीजों को भी खारिज कर देता है ।

कवि कहता है कि उसने पर्वत की चोटी पर बादल को घिरते हुए देखा है। हिमालय के कंधे पर जितनी झीलें है उसमें मैदानी भागों से आने वाले हंस तैरते रहते हैं। कवि उनका अस्तित्व स्वीकार करता है लेकिन कालिदास द्वारा वर्णित कुबेर अलका नगरी आदि का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। इसलिए वे उन्हें कल्पित कवि कह सकने का साहस रखते हैं।

बादल को घिरते देखा है

अमल धवल गिरि के शिखरों पर,

बादल को घिरते देखा है।

छोटेछोटे मोती जैसे

उसके शीतल तुहिन कणों को,

मानसरोवर के उन स्वर्णिम

कमलों पर गिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

तुंग हिमालय के कंधों पर

छोटीबड़ी कई झीलें हैं,

उनके श्यामल नील सलिल में

समतल देशों से आआकर

पावस की ऊमस से आकुल

तिक्तमधुर विसतंतु खोजते

हंसों को तिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

ऋतु वसंत का सुप्रभात था

मंदमंद था अनिल बह रहा

बालारुण की मृदु किरणें थीं

अगलबगल स्वर्णिम शिखर थे

एक दूसरे से विरहित हो

अलगअलग रहकर ही जिनको

सारी रात बितानी होती,

निशा काल से चिरअभिशापित

बेबस उस चकवाचकई का

बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें

उस महान सरवर के तीरे

शैवालों की हरी दरी पर

प्रणयकलह छिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

दुर्गम बरफ़ानी घाटी में

शतसहस्र फुट ऊँचाई पर

अलख नाभि से उठनेवाले

निज के ही उन्मादक परिमल

के पीछे धावित होहोकर

तरल तरुण कस्तूरी मृग को

अपने पर चिढ़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

 

पंक्तियाँ -1

अमल धवल गिरि के शिखरों पर,

बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे

उसके शीतल तुहिन कणों को,

मानसरोवर के उन स्वर्णिम

कमलों पर गिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

 

शब्दार्थ

अमल- निर्मल, स्वच्छ।, धवल – सफेद।, गिरि – पर्वत।, शिखर -चोटी।, तुहिन कण – ऑस कण।, स्वर्णिम – सुनहला।

संदर्भ

प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रगतिवादी कवि नागार्जुन की लंबी कविता “बादल को घिरते देखा है” से अवतरित है। प्रस्तुत कविता “युगधारा” काव्य संग्रह से उद्धृत है।

प्रसंग

प्रस्तुत पंक्तियों में नागार्जुन के व्यापक सरोकारों का आभास होता है। हिमालय की प्रकृति के बहाने मानो संस्कृत की संपूर्ण परंपरा साकार हो उठी है। इस कविता के माध्यम से नागार्जुन जी विराट प्रकृति के विविध रूपों का दर्शन कराते हैं। यहाँ कवि ने पर्वत के शिखरों पर उमड़ने-घुमड़ने वाले मेघों की कई छवियों की प्राकृतिक सुषमा को दर्शाया है।

व्याख्या

कवि कहते हैं कि मैंने बिन मैल वाले, स्वच्छ, सफेद पर्वत की चोटी पर बादलों को घिरते हुए देखा है। उन बादलों से टपकने वाले मोती के समान जो हिमकण हैं, वे शीतल हैं और जब ये शीतल हिमकण मानसरोवर के कमलों पर गिरते हैं तो उनकी आभा और भी बढ़ जाती है। कवि इन दृश्यों के साक्षी रहे हैं। वे इन बातों को स्वीकार करते हैं कि मैंने बादल को घिरते हुए देखा है।

विशेष

‘छोटे-छोटे’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

भाषा संस्कृतनिष्ठ हिंदी है।

मुक्तक छंद का प्रयोग है।

प्राकृतिक सुंदरता का अनूठा वर्णन है।

 

पंक्तियाँ – 2

तुंग हिमालय के कंधों पर

छोटी-बड़ी कई झीलें हैं,

उनके श्यामल नील सलिल में

समतल देशों से आ-आकर

पावस की ऊमस से आकुल

तिक्त-मधुर विसतंतु खोजते

हंसों को तिरते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

 

शब्दार्थ

तुंग – ऊँचा।, झीलें – ह्रद,Lakes, श्यामल – साँवला, काला।, सलिल -जल।, समतल – Plain।, पावस – वर्षा काल।, ऊमस – हवा न चलने से होने वाली भीषण गर्मी।, आकुल – परेशान।, तिक्त-मधुर – कड़वे और मीठे।, विसतंतु – कमल नाल के भीतर स्थित कोमल रेशे या तंतु।, तिरते – तैरते।

संदर्भ

प्रस्तुत सत्य से ओत-प्रोत पंक्तियाँ, प्रगतिवादी कवि नागार्जुन की लंबी कविता “बादल को घिरते देखा है” से अवतरित है। प्रस्तुत कविता “युगधारा” काव्य संग्रह से उद्धृत है।

प्रसंग

प्रस्तुत पंक्तियों में नागार्जुन के व्यापक सरोकारों का आभास होता है। हिमालय की प्रकृति के बहाने मानो संस्कृत की संपूर्ण परंपरा साकार हो उठी है। इस कविता के माध्यम से नागार्जुन जी विराट प्रकृति के विविध रूपों का दर्शन कराते हैं। इसमें पर्वत शिखरों पर उमड़ते-घुमड़ते काले मेघों की विविध छवियों की प्राकृतिक सुषमा तथा हिमालय के कंधे से निकल रहे नीले जल का वर्णन भी किया गया है।

व्याख्या

ऊँचे हिमालय के कंधे पर कवि ने छोटी-बड़ी कई झीलें देखी हैं। कवि एक-एक दृश्य को देखता-परखता चलता है जो उनके अनुभव पर खरा उतरता है। हिमालय के कंधे पर मिलने वाली छोटी-बड़ी झीलों का गवाह है कवि। जो पक्षी मैदानी भाग की गर्मी से परेशान हो जाते हैं वो हिमालय की गोद में आ जाते हैं। बरसात की ऋतु में मैदानी इलाके एक अजीब सी ऊष्मा से भर जाते हैं। बरसाती ऊमस से व्याकुल होकर ये पंछी हिमालय की झीलों में निवास करने आ जाते हैं। कवि इन पंछियों के आने-जाने को पहचानता है। ये पक्षी मीठे और कड़वे कमलनाल को खोजते रहते हैं। इन पदार्थों को खोजने वाले हंसों को कवि ने झीलों में तैरते हुए देखा है। कवि ने हिमालय पर बादल को घिरते हुए देखा है।

विशेष

‘आ-आकर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

‘श्यामल नील सलिल’ अनुप्रास अलंकार है।

भाषा संस्कृतनिष्ठ हिंदी है।

मुक्तक छंद का प्रयोग है।

प्राकृतिक सुंदरता का अनूठा वर्णन है।

 

 

पंक्तियाँ – 3

ऋतु वसंत का सुप्रभात था

मंद-मंद था अनिल बह रहा

बालारुण की मृदु किरणें थीं

अगल-बगल स्वर्णिम शिखर थे

एक दूसरे से विरहित हो

अलग-अलग रहकर ही जिनको

सारी रात बितानी होती,

निशा काल से चिर-अभिशापित

बेबस उस चकवा-चकई का

बंद हुआ क्रंदन, फिर उनमें

उस महान सरवर के तीरे

शैवालों की हरी दरी पर

प्रणय-कलह छिड़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

 

शब्दार्थ

सुप्रभात – सुंदर सवेरा।, अनिल – हवा।, मंद-मंद – धीमी-धीमी।, बालारुण – नवोदित सूर्य।, मृदु – कोमल।, स्वर्णिम – सोने की आभा/चमक वाला, सुनहला।, विरहित – वियुक्त, बिछुड़े हुए, परित्यक्त।, निशा काल – रात्रि का समय।,  चिर अभिशापित – सदा से ही शापग्रस्त, दुखी, अभागा।, बेबस – लाचार।, क्रंदन – चीख, विलाप।, सरवर के तीरे – नदी के किनारे।, शैवाल – काई जाति की एक घास।, हरी दरी – Green carpet  प्रणय कलह – प्यार भरी छेड़छाड़।

 

संदर्भ

प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रगतिवादी कवि नागार्जुन की लंबी कविता “बादल को घिरते देखा है” से अवतरित है। प्रस्तुत कविता “युगधारा” काव्य संग्रह से उद्धृत है।

प्रसंग

यहाँ कवि ने प्रेमी-युगल की प्यार भरी छेड़छाड़ का अत्यंत मनोरम दृश्य उपस्थित किया है।

व्याख्या

वसंत ऋतु का सुप्रभात था, धीमे-धीमे बहने वाली हवा अत्यंत सुखद लग रही थी। प्रातः काल के सूर्य की किरणें शरीर को सुख प्रदान कर रही हैं। वे किरणें हिमालय के ऊँचे-ऊँचे स्वर्णिम आभा वाले शिखरों पर पड़ रही थीं। वे हिमालय की चोटियाँ भी इसी प्रातःकालीन सूर्य की कोमल किरणों के कारण स्वर्णिम लग रही थीं।

हिमालय श्वेत बर्फ की आभा से भरा हुआ है। उस श्वेत वर्ण पर लाल सूर्य की किरणें पड़ रही हैं जो बर्फ को सुनहरा बना रही हैं। कवि के दोनों तरफ इन्हीं सुनहली चोटियाँ वाले पर्वत दिखाई पड़ रहे हैं। कवि इन चोटियों के बीच खड़ा है। इनके सौंदर्य को देख रहा है।

वहीं पास में कवि को चिर काल से शाप पाए हुए चकवा-चकवी का जोड़ा भी दिखाई पड़ता है। इस चकवा-चकवी के जोड़े को शाप मिला है कि वे रात में परस्पर बिछड़ जाएँगे। प्रातःकाल उनका यह अभिशाप दूर होता है और वे पुनः एक दूसरे से मिल जाते हैं। रात भर के विरह के पश्चात् जब वे मिलते हैं उनमें एक प्रेम भरी तकरार, होती है। विशाल मानसरोवर के तट पर हरे-हरे शैवाल की दरी-सी बिछी है। हरे रंग का शैवाल अपनी कोमलता और चिकनेपन के कारण मखमल का आभास देता है। ऐसा लगता है कि रात भर से बिछड़े चकवा दंपति ने मखमली कालीन को क्रीड़ा क्षेत्र बनाया है। रात में दूर हुए चकवा-चकवी काफी क्रंदन करते रहते हैं। अतः प्रातःकाल मिलने पर उनका रोना बंद हो जाता है। वे खेलने लगते हैं। कवि कहते हैं मैंने उन चकवा चकवी को देखा है। मैंने पर्वत की ऊँची चोटियों पर बादल को घिरते हुए देखा है।

विशेष

‘स्वर्णिम शिखर’, ‘चकवा चकई’ में अनुप्रास अलंकार है।

‘शैवालों की हरी दरी’ में रुपक अलंकार है।

भाषा संस्कृतनिष्ठ हिंदी है।

मुक्तक छंद का प्रयोग है।

प्राकृतिक सुंदरता का अनूठा वर्णन है।

 

पंक्तियाँ – 4

दुर्गम बरफ़ानी घाटी में

शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर

अलख नाभि से उठनेवाले

निज के ही उन्मादक परिमल-

के पीछे धावित हो-होकर

तरल तरुण कस्तूरी मृग को

अपने पर चिढ़ते देखा है।

बादल को घिरते देखा है।

 

शब्दार्थ

दुर्गम – जहाँ पहुँचना कठिन हो।, बरफ़ानी – बर्फ का गिरना।,  घाटी – Valley।, शत – सौ।,  सहस्त्र – हजार।, अलख – जिसे देखा न सके।, उन्मादक परिमल – नशीली सुगंध, धावित – दौड़ता हुआ। तरुण – यौवन।, कस्तूरी – Musk।, मृग – हिरन।

संदर्भ

प्रस्तुत पंक्तियाँ प्रगतिवादी कवि नागार्जुन की लंबी कविता “बादल को घिरते देखा है” से अवतरित है। प्रस्तुत कविता “युगधारा” काव्य संग्रह से उद्धृत है।

प्रसंग

इन पंक्तियों में कवि ने कस्तूरी मृग के व्याकुलता को दर्शाया है कि किस तरह वे सुगंध का संधान करने हेतु पहाड़ों पर चौकड़ी भरते फिर रहे हैं।

व्याख्या

कवि ने पर्वत प्रदेश में जहाँ जाना अत्यंत कठिन है। ऐसी बर्फीली घाटियों में तथा सहस्रों फुट, ऊँचाई वाले पर्वत पर नाभि से उठने वाले अपने मदहोश करने वाले सुगंध के पीछे भागते हुए हिरनों को देखा है।

कस्तूरी मृग की नाभि से उठने वाले सुगंध को अन्य लोग तो पसंद करते ही हैं। स्वयं कस्तूरी मृग भी बहुत पसंद करता है। कस्तूरी मृग अपनी ही सुगंध के पीछे भागता है तथा थकता रहता है। कवि कहता है कि अपनी गंध से व्याकुल होकर भागते हुए मृग को थक कर अपने पर चिढ़ते हुए देखा है। अर्थात् इन दृश्यों का कवि साक्षी रहा है। मृग की खीझ, उसका प्रयास, उसका दौड़ना-चिढ़ना कवि भली प्रकार देख पाता है। अतः इस बात पर वह विश्वास करता है कि उसने बादल को घिरते देखा है। बार-बार देखे हुए का जिक्र करना सिद्ध करता है कि कवि अपने अनुभव को कितना महत्त्व देता है।

विशेष

शत-सहस्त्र’, ‘परिमल के पीछे’ और ‘तरल तरूण’ में अनुप्रास अलंकार है।

‘हो-होकर’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

भाषा संस्कृतनिष्ठ हिंदी है।

मुक्तक छंद का प्रयोग है।

प्राकृतिक सुंदरता का अनूठा वर्णन है।

पाठ से

  1. मानसरोवर के कमल को स्वर्णिम कमल कहने का क्या आशय है?

उत्तर – कविता में मानसरोवर के कमलों को ‘स्वर्णिम’ कहने का आशय उनकी चमकदार और सुनहरी आभा से है, जो सूर्य की किरणों या बर्फ के शीतल कणों से उत्पन्न होती है। यह कमलों की पवित्रता, सुंदरता और दिव्यता को दर्शाता है, जो हिमालय की प्राकृतिक शोभा को बढ़ाता है।

  1. बादल को घिरते देखा हैकविता के प्रकृति चित्रण को अपने शब्दों में लिखिए।

उत्तर – यह कविता प्रकृति के अद्भुत और मनोहारी सौंदर्य का सजीव चित्रण करती है। कवि ने हिमालय की बर्फीली चोटियों, मानसरोवर की झीलों और बर्फीली घाटियों के दृश्य को बहुत बारीकी से दिखाया है। उन्होंने हंसों का मानसरोवर में आना, चकवा-चकई का प्रणय-कलह और कस्तूरी मृग का अपनी ही सुगंध के पीछे भागना जैसे दृश्यों के माध्यम से प्रकृति में विद्यमान प्रेम, विरह और उन्माद जैसे मानवीय भावों को भी चित्रित किया है।

  1. कवि चकवा – चकई द्वारा किन मनोभावों को कविता में बताना चाहते हैं?

उत्तर – कवि चकवा-चकई के माध्यम से विरह और पुनर्मिलन के मनोभावों को दर्शाना चाहते हैं। लोककथा के अनुसार, चकवा-चकई रात में एक-दूसरे से बिछड़ जाते हैं और सूर्योदय के साथ ही उनका पुनर्मिलन होता है। कविता में वे रात के अभिशाप से मुक्त होकर सुबह के प्रकाश में प्रणय-कलह करते दिखाई देते हैं, जो उनके प्रेम और मिलन के उल्लास को दर्शाता है।

  1. कवि ने कस्तूरी मृग का उल्लेख किस संदर्भ में किया है?

उत्तर – कवि ने कस्तूरी मृग का उल्लेख उस भटकाव और व्यर्थ खोज के संदर्भ में किया है जो व्यक्ति अपने अंदर की ही शक्ति या आनंद को बाहर खोजता रहता है। कस्तूरी मृग की नाभि में ही कस्तूरी की सुगंध होती है, लेकिन वह इस बात से अनजान होकर सुगंध के स्रोत को बाहर ढूँढता हुआ इधर-उधर भागता रहता है और अंत में स्वयं पर ही चिढ़ने लगता है।

  1. भाव स्पष्ट कीजिए-

(क) ऋतु बसंत का सुप्रभात था

मंद-मंद था अनिल बह रहा

बालारूण की मृदु किरणें थी

अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे

उत्तर – इन पंक्तियों का भाव यह है कि वसंत ऋतु की सुबह थी। हल्की-हल्की हवा बह रही थी और उगते हुए सूरज की कोमल किरणें चारों ओर फैली थीं। उन किरणों के प्रभाव से हिमालय के ऊँचे-ऊँचे शिखर सोने के समान चमक रहे थे, जिससे पूरा वातावरण स्वर्णिम और शांत लग रहा था।

(ख) दुर्गम बर्फानी घाटी में

शत- सहस्त्र फुट ऊँचाई पर

अलख नाभि से उठने वाले

निज के ही उन्मादक परिमल

उत्तर – इन पंक्तियों का भाव यह है कि हिमालय की दुर्गम और बर्फीली घाटी में हजारों फुट की ऊँचाई पर एक कस्तूरी मृग अपनी ही नाभि से उठने वाली मादक सुगंध से बेचैन होकर इधर-उधर भटक रहा था। वह अपनी ही सुगंध से उन्मादित होकर उसे बाहर कहीं और खोज रहा था। यह आंतरिक गुणों से अनभिज्ञ व्यक्ति की स्थिति को दर्शाता है।

 

पाठ से आगे

  1. बादल को घिरते देखा हैकविता में ऊगते हुए सूर्य और उस समय के प्राकृतिक दृश्य का चित्रण हुआ है। उसी प्रकार अस्त होते सूर्य के संध्याकालीन दृश्य पर समूह में बैठकर चार-छः पंक्तियों की कविता रचना कीजिए।

उत्तर – छात्र स्वयं करें।

  1. यहाँ सूर्यकांत त्रिपाठी निरालाजी की कविता सखि वसंत आयाका कुछ अंश दिया जा रहा है। बसंत ऋतु में प्रकृति किस प्रकार का रूप धारण करती है? पंक्तियों के आधार पर उसके सौंदर्य का वर्णन कीजिए।

सखि वसंत आया

भरा हर्ष वन के मन

नवोत्कर्ष छाया।

किसलय – वसना नववय- लतिका

मिली मधुर प्रिय-उर तरू-पतिका

मधुप – वृन्द बन्दी

पिक स्वर नभ सरसाया।

लता – मुकुल – हार- गन्ध – भार भर

वही पवन बंद मन्द मन्दतर

जागी नयनों में वन-

यौवन की माया।

उत्तर – बसंत में प्रकृति एक नवयौवना के समान सजती है, जहाँ कोमल पत्तियाँ, सुगंधित फूल, मधुर कोयल का स्वर, भँवरों की गूँज और मंद पवन का प्रवाह मिलकर एक रमणीय और उत्साहपूर्ण दृश्य प्रस्तुत करते हैं। यह सौंदर्य प्रकृति के प्रेम, ताजगी और जीवन के उत्सव का प्रतीक है, जो हर प्राणी के मन को हर्ष और प्रेरणा से भर देता है।

 

  1. कविता में प्रवासी पक्षियों का उल्लेख किया गया है। पता कीजिए मौसम के किस बदलाव के कारण प्रतिवर्ष प्रवासी पक्षी अनुकूल जलवायु के लिए दूर देश से आते हैं? साथ ही यह ज्ञात कीजिए कि भारत में प्रवासी पक्षी कहाँ-कहाँ से आते हैं, कितने समय तक ठहरते हैं और कब लौटते हैं?

उत्तर – प्रवासी पक्षी आमतौर पर मौसम के अत्यधिक बदलाव, जैसे कि अत्यधिक ठंड या गर्मी, और भोजन की कमी के कारण अपने मूल स्थान से दूर, अनुकूल जलवायु वाले स्थानों पर जाते हैं। वे अक्सर शीत ऋतु में प्रवास करते हैं, जब उनके मूल स्थानों पर झीलें और नदियाँ जम जाती हैं, और भोजन दुर्लभ हो जाता है।

भारत में प्रवासी पक्षी –

आने का समय – सितंबर-अक्टूबर से शुरू होकर दिसंबर तक।

ठहरने का समय – वे आमतौर पर मार्च तक भारत में रहते हैं।

लौटने का समय – मार्च के अंत या अप्रैल तक वे अपने मूल स्थानों को लौट जाते हैं।

आने के स्थान – साइबेरिया, चीन, मध्य एशिया, यूरोप और उत्तरी ध्रुव के क्षेत्र।

भारत में रहने के स्थान – चिल्का झील (ओड़िशा), भरतपुर पक्षी अभयारण्य (राजस्थान), सुल्तानपुर पक्षी विहार (हरियाणा), और केरल, गुजरात तथा पूर्वी भारत की कई आर्द्रभूमियाँ।

भाषा विस्तार

  1. अनिल, अनल जैसे युग्म शब्द, श्रुति समभिन्नार्थक शब्द कहलाते हैं। ऐसे ही सुनने में समान परंतु भिन्न अर्थ वाले कुछ युग्म शब्द दिए जा रहे हैं –

अंश – हिस्सा

अंस – कंधा

अपेक्षा – इच्छा

उपेक्षा – निरादर

अभिराम – सुन्दर

अविराम – लगातार

आप भी ऐसे युग्म शब्द खोजें एवं उसके अर्थ पता करें।

उत्तर – अन्न (अनाज) – अन्य (दूसरा)

कुल (वंश) – कूल (किनारा)

ग्रह (आकाशीय पिंड) – गृह (घर)

दिन (दिवस) – दीन (गरीब)

प्रणाम (नमस्कार) – प्रमाण (सबूत)

  1. कविता में अमल‘, ‘समतल‘, ‘सुप्रभात‘, ‘अभिशापित‘, ‘दुर्गम‘, ‘उन्मादकआदि शब्द आए हैं।

(क) उपर्युक्त शब्दों में निहित उपसर्गों को अलग कीजिए यथा अ + मल।

उत्तर – अमल – अ + मल

समतल – सम + तल

सुप्रभात – सु + प्रभात

अभिशापित – अभि + शापित

दुर्गम – दुर् + गम

उन्मादक – उद् + मादक (उन् + मादक, लेकिन उद् है)

(ख) इन उपसर्गों के योग (मेल) से बने पाँच-पाँच अन्य शब्दों को लिखिए।

उत्तर – अ – अवगुण, अज्ञान, अकारण, अविचल, अविभाज्य।

सम – समर्थ, समाचार, समर्पण।

सु – सुगंध, सुशील, सुविचार, सुयोग्य।

अभि – अभिमान, अभिवादन, अभियान, अभिज्ञान।

दुर् – दुर्बल, दुर्गत, दुर्घटना, दुर्जन, दुर्लभ।

उद् – उद्घोषणा, उद्घाटन, उद्भव।

 

परियोजना-कार्य

  1. विद्यालय के पुस्तकालय से प्रकृति-चित्रण की अन्य श्रेष्ठ कविताओं का संकलन कीजिए और कविताओं में निहित प्रकृति के सौंदर्य को अपने शब्दों में व्यक्त कीजिए।
  2. माखन लाल चतुर्वेदी की कविता- ‘दूबों के दरबार में में प्रकृति के मनोरम दृश्यों का बखूबी चित्रण हुआ है। इसे भी पढ़िए।

क्या आकाश उतर आया है

दूबों के दरबार में

नीली भूमि हरी हो आई

इस किरणों के ज्वार में

क्या देखे तरूओं को उनके

फूल लाल अंगारे हैं,

वन के विजन भिखारी ने

वसुधा में हाथ पसारे हैं

नक्शा उतर गया है, बेलों

की अलमस्त जवानी का

युद्ध ठना, मोती की लड़ियों से

दूबों के पानी का !

तुम न नृत्य कर उठो मयूरी

दूबों की हरियाली पर

हंस तरस खाएँ उस मुक्ता

बोने वाले माली पर

ऊँचाई यों फिसल पड़ी हैं

नीचाई के प्यार में

क्या आकाश उतर आया है

दूबों के दरबार में?

 

बाल विवाह निषेध अधिनियम

बाल विवाह पर रोक लगाने हेतु 1929 में एक अधिनियम पारित हुआ था जिसे ‘शारदा एक्ट’ के नाम से जाना जाता है। यह अधिनियम प्रभावी नहीं हुआ अतः 1978 में इसमें संशोधन किया गया, इसी संशोधित अधिनियम को ‘शारदा बाल विवाह निरोधक अधिनियम के नाम से जाता है। 2006 में एक बार फिर पूर्व के अधिनियमों से अधिक प्रभावशील बाल विवाह निषेध अधिनियम बना जो 01 नवम्बर 2007 में लागू हुआ। यह अधिनियम बाल-विवाह को सख्ती से प्रतिबंधित करता है। इस अधिनियम के अनुसार विवाह के लिए लड़की की उम्र 18 वर्ष तथा लड़के की उम्र 21 वर्ष से कम न हो। नियम की अवहेलना होने की स्थिति में कठोर कार्यवाही का प्रावधान है। इतना ही नहीं बाल-विवाह होने की स्थिति में संबंधित (बच्चा / बच्ची ) वयस्क होने के दो साल के अंदर अपनी इच्छा से अपने बाल-विवाह को अवैद्य घोषित कर सकता है, किन्तु यह कानून इस्लाम धर्मावलम्बियों पर लागू नहीं होता।

ऐसा मानना है कि बाल-विवाह किसी बच्चे को अच्छे स्वास्थ्य, पोषण और शिक्षा के अधिकार से वंचित करता है, साथ ही कम उम्र में विवाह से लड़के और लड़कियाँ दोनों पर शारीरिक बौद्धिक मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक प्रभाव पड़ता है, व्यक्तित्व का विकास सही ढंग से नहीं हो पाता। कम उम्र में विवाह के कारण लड़कियों को हिंसा, दुर्व्यवहार और उत्पीड़पन का सामना करना पड़ता है।

 

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