महादेवी वर्मा – जीवन परिचय
लेखिका और कवयित्री महादेवी वर्मा का जन्म सन् 1907 में उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में हुआ था। इन्होंने सन् 1932 में प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। गद्य और पद्य दोनों पर ही इन्हें समानाधिकार प्राप्त था। गद्य साहित्य में संस्मरणों और रेखाचित्र लेखन को प्रारंभ करने का श्रेय इन्हें ही जाता है। इनके संस्मरणों में कोमल मानवीय भावनाओं और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति बहुत ही हृदयस्पर्शी एवं मार्मिकता के साथ हुई है। उनके पात्र प्रायः अनाथ, स्नेह से वंचित, गरीब समाज द्वारा प्रताड़ित किंतु ईमानदार व्यक्ति अथवा पशु-पक्षी होते हैं। इन्होंने नारी की समस्याओं को भी बहुत प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत किया है। इनकी भाषा विशुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली है, किन्तु आवश्यकतानुरूप देशज शब्दों का प्रयोग भी इनकी रचनाओं में देखा जा सकता है। ‘नीहार’, ‘रश्मि’, ‘नीरजा’, ‘सांध्यगीत’, ‘यामा’ तथा ‘दीपशिखा’ इनके काव्य संग्रह हैं। ‘अतीत के चलचित्र’, ‘स्मृति की रेखाएँ’, ‘शृंखला की कड़ियाँ, ‘मेरा परिवार’, ‘पथ के साथी’, ‘क्षणदा’ आदि इनकी गद्य रचनाएँ हैं। इनका गद्य साहित्य, समाज का जीता-जागता एलबम है।
इनकी रचना ‘यामा’ को मंगला प्रसाद पारितोषक तथा काव्य संकलन ‘नीरजा’ को सेक्सरिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्हें ‘पद्म भूषण’ अलंकार, ‘भारतीय ज्ञानपीठ’, ‘साहित्य अकादमी’ एवं ‘भारत-भारती’ पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया। इन्हें आधुनिक युग की मीरा की उपाधि प्रदान की गई है।
पाठ परिचय – घीसा
छायावादी चतुष्टयी की प्रसिद्ध कवयित्री महादेवी के गद्य अपनी संवेदनशीलता और मार्मिकता के लिए प्रसिद्ध हैं। यहाँ प्रस्तुत ‘घीसा एक चर्चित रेखाचित्र है, जिसमें महादेवी का एक संवेदनशील और सहज सा अध्यापकीय व्यत्तित्व उभर कर सामने आता है। इसमें वंचित समाज के पितृविहीन और कुपोषित शिष्य ‘घीसा ‘और गुरु ‘महादेवी’ के रागात्मक सबंधों के एहसास को देखा जा सकता है। घीसा के जीवन में सुधार और उमंग के भाव एक साथ दिखाई देते हैं, जो अल्पकालिक साबित होते हैं। पेड़ के नीचे लगनेवाली पाठशाला को लीपना, झाड़ना-बुहारना, गुरु जी के आने की राह तकना, खुद को साफ-सुथरा रखना, उनके आदेशों का समुचित निर्वहन, उन्हें भी कुछ देने की प्रबल इच्छा और साहस आदि ऐसे संदर्भ हैं जो संबंधों की भावविह्वलता की कहानी को जीवंत रूप में कहते हैं जिसे महादेवी इस रचना की शुरुआत में मार्मिक रूप में इस प्रकार रखती हैं-“वर्तमान की कौन सी अज्ञात प्रेरणा हमारे अतीत की किसी भूली हुई कथा को सम्पूर्ण मार्मिकता के साथ दोहरा जाती है, यह जान लेना सहज होता तो मैं भी आज गाँव के उस मलिन सहमें नन्हें से विद्यार्थी की सहसा याद आ जाने का कारण बता सकती, जो एक छोटी लहर के समान ही मेरे जीवन तट को अपनी सारी आर्द्रता से छूकर अनंत जल राशि में विलीन हो गया।”
घीसा
वर्तमान की कौन-सी अज्ञात प्रेरणा हमारे अतीत की किसी भूली हुई कथा को सम्पूर्ण मार्मिकता के साथ दोहरा जाती है यह जान लेना सहज होता, तो मैं भी आज गाँव के उस मलिन, सहमे नन्हें से विद्यार्थी की सहसा याद आ जाने का कारण बता सकती, जो एक छोटी लहर के समान ही मेरे जीवन तट को अपनी सारी आर्द्रता से छूकर अनंत जलराशि में विलीन हो गया है।
गंगा पार झूसी के खंडहर और उसके आस-पास के गाँवों के प्रति मेरा जैसा अकारण आकर्षण रहा है, उसे देख कर ही संभवतः लोग जन्म-जन्मान्तर के संबंध का व्यंग्य करने लगे हैं। है भी तो आश्चर्य की बात !
जिस अवकाश के समय को लोग ईष्ट मित्रों से मिलने, उत्सवों में सम्मिलित होने तथा अन्य आमोद-प्रमोद के लिए सुरक्षित रखते हैं, उसी को मैं इस खंडहर और उसके क्षत-विक्षत चरणों पर पछाड़ें खाती हुई भागीरथी के तट पर काट ही नहीं, सुख से काट देती हूँ।
दूर- पास बसे हुए गुड़ियों के बड़े-बड़े घरौंदों के समान लगने वाले कुछ लिपे-पुते, कुछ जीर्ण-शीर्ण घरों से स्त्रियों का झुण्ड पीतल – ताँबे के चमचमाते मिट्टी के नए लाल और पुराने भदरंग घड़े लेकर गंगाजल भरने आता है, उसे भी मैं पहचान गई हूँ। उनमें कोई बूटेदार लाल, कोई सफेद और कोई मैल और सूत में अद्वैत स्थापित करने वाली, कोई कुछ नई और कोई छेदों से चलनी बनी हुई धोती पहने रहती हैं। किसी की मोम लगी पाटियों के बीच में एक अंगुल चौड़ी सिंदूर रेखा अस्त होते हुए सूर्य की किरणों में चमकती रहती है और किसी के कड़वे तेल से भी अपरिचित रूखी जटा बनी हुई छोटी-छोटी लटें मुख को घेर कर उसकी उदासी को और अधिक केंद्रित कर देती है। किसी की साँवली गोल कलाई पर शहर की कच्ची नगदार चूड़ियों के नग रह-रहकर हीरे से चमक जाते हैं और किसी के दुर्बल काले पहुँचे पर लाख की पीली मैली चूड़ियाँ काले पत्थर पर मटमैले चंदन की मोटी लकीरें जान पड़ती हैं। कोई अपने गिलट के कड़े युक्त हाथ घड़े की ओट में छिपाने का प्रयत्न सा करती रहती है और कोई चाँदी के पछेली-ककना की झनकार के साथ ही बात करती है। किसी के कान में लाख की पैसे वाली तरकी धोती से कभी-कभी झाँक भर लेती है और किसी की ढारें लंबी जंजीर से गला और गाल एक करती रहती है। किसी के गुदना गुदे गेंहुए पैरों में चाँदी के कड़े सुडौलता की परिधि से लगते हैं और किसी की फैली उँगलियों और सफेद एड़ियों के साथ मिली हुई स्याही राँगे और काँसे के कड़ों को लोहे की साफ की हुई बेड़ियाँ बना देती हैं।
वे सब पहले हाथ-मुँह धोती हैं, फिर पानी में कुछ घुसकर घड़ा भर लेती हैं- तब घड़ा किनारे रख, सिर पर इंडुरी ठीक करती हुई मेरी ओर देखकर कभी मलिन, कभी उजली कभी दुःख की व्यथा – भरी, कभी सुख की कथा-भरी मुस्कान से मुस्करा देती हैं। अपने मेरे बीच का अंतर उन्हें ज्ञात है, तभी कदाचित् वे इस मुस्कान के सेतु से उसका वार-पार जोड़ना नहीं भूलतीं।
ग्वालों के बालक अपनी चरती हुई गाय-भैंसों में से किसी को उस ओर बहकते देखकर ही लकुटी लेकर दौड़ पड़ते, गड़रियों के बच्चे अपने झुंड की एक भी बकरी या भेड़ को उस ओर बढ़ते देखकर कान पकड़कर खींच ले जाते हैं और व्यर्थ दिन भर गिल्ली-डंडा खेलनेवाले निठल्ले लड़के भी बीच-बीच में नजर बचाकर मेरा रुख देखना नहीं भूलते।
उस पार शहर में दूध बेचने जाते या लौटते हुए ग्वाले, किले में काम करने जाते या घर आते हुए मजदूर, नाँव बाँधते या खोलते हुए मल्लाह, कभी-कभी चुनरी त रंगाउस लाल मजीठी हो गाते-गाते मुझ पर दृष्टि पड़ते ही अचकचा कर चुप हो जाते हैं। कुछ विशेष सभ्य होने का गर्व करने वालों को मुझे एक सलज्ज नमस्कार भी प्राप्त हो जाता है।
कह नहीं सकती, अब और कैसे मुझे उन बालकों को कुछ सिखाने का ध्यान आए पर जब बिना कार्यकारिणी के निर्वाचन के बिना पदाधिकारियों के चुनाव के बिना भवन के बिना चंदे की अपील के और सारांश यह कि बिना किसी चिर-परिचित समारोह के मेरे विद्यार्थी पीपल के पेड़ की घनी छाया में मेरे चारों ओर एक हो गए, तब मैं बड़ी कठिनाई से गुरु के उपयुक्त गंभीरता का भार वहन कर सकी।
और वे जिज्ञासु कैसे थे सो कैसे बताऊँ ! कुछ कानों में बालियाँ और हाथों में कड़े पहने, धुले कुरते और ऊँची धोती में नगर और ग्राम का सम्मिश्रण जान पड़ते थे, कुछ अपने बड़े भाई का पाँव तक लम्बा कुरता पहने खेत में डराने के लिए खड़े किए हुए नकली आदमी का स्मरण दिलाते थे, कुछ उभरी पसलियों, बड़े पेट और टेढ़ी दुर्बल टाँगों के कारण अनुमान से ही मनुष्य संतान की परिभाषा में आ सकते थे और कुछ अपने दुर्बल, रूखे और मलिन मुखों की करुण सौम्यता और निष्प्रभ पीली आँखों में संसार भर की उपेक्षा बटोर बैठे थे, पर घीसा उनमें अकेला ही रहा और आज भी मेरी स्मृति में अकेला ही आता है।
वह गोधूली मुझे अब तक नहीं भूली। संध्या के लाल सुनहली आभा वाले उड़ते हुए दुकूल पर रात्रि ने मानों छिपकर अंजन की मूठ चला दी थी। मेरा नाव वाला कुछ चिंतित सा लहरों की ओर देख रहा था बूढ़ी भक्तिन मेरी किताबें, कागज-कलम, आदि संभाल कर नाव पर रख कर बढ़ते अंधकार पर खिजलाकर बुदबुदा रही थी, या मुझे कुछ सनकी बनाने वाले विधाता पर, यह समझना कठिन था। बेचारी मेरे साथ रहते-रहते दस लंबे वर्ष काट आई है, नौकरानी से अपने आपको एक प्रकार की अभिभाविका मानने लगी है;
परंतु मेरी सनक का दुष्परिणाम सहने के अतिरिक्त उसे क्या मिला है? सहसा ममता से मेरा मन भर आया परंतु नाव की ओर बढ़ते हुए मेरे पैर फैलते हुए अंधकार में से एक स्त्री- मूर्ति को अपनी ओर आता देख ठिठक गए। साँवले कुछ लंबे से मुखड़े में पतले स्याह ओठ कुछ अधिक स्पष्ट हो रहे थे। आँखें छोटी पर व्यथा से आर्द्र थीं। मलिन, बिना किनारी की गाढ़े की धोती ने उसके सलूका रहित अंगों को भलीभाँति ढँक लिया था; परंतु तब भी शरीर की सुडौलता का आभास मिल रहा था। कंधे पर हाथ रखकर वह जिस दुर्बल अर्धनग्न बालक को अपने पैरों से चिपकाए हुए थी, उसे मैंने संध्या के झुटपुटे में ठीक से नहीं देखा।
स्त्री ने रुक-रुककर कुछ शब्दों और कुछ संकेत में जो कहा, उससे मैं केवल यह समझ सकी कि उसके पति नहीं है, दूसरों के घर लीपने पोतने का काम करने वह चली जाती है और उसका अकेला लड़का ऐसे ही घूमता रहता है। मैं इसे भी और बच्चों के साथ बैठने दिया करूँ, तो यह कुछ तो सीख सके।
दूसरे इतवार को मैंने उसे सबसे पीछे अकेले एक ओर दुबक कर बैठे हुए देखा। पक्का रंग, पर गठन में विशेष सुडौल, मलिन मुख जिसमें दो पीली, पर श्वेत आँखें जड़ी सी जान पड़ती थीं। कस कर बंद किए हुए पतले होठों की दृढ़ता और सिर पर खड़े हुए छोटे-छोटे रूखे बालों की उग्रता उसके मुख की संकोच भरी कोमलता से विद्रोह कर रही थी। उभरी हड्डियों वाली गर्दन को सँभाले हुए झुके कंधो से रक्तहीन मटमैली हथेलियों और टेढ़े-मेढ़े कटे हुए नाखूनों युक्त हाथों वाली पतली बाँहे ऐसी झूलती थीं, जैसे ड्रामा में विष्णु बनने वाले की दो नकली भुजाएँ। निरंतर दौड़ते रहने के कारण उस लचीले शरीर में दुबले पैर ही विशेष पुष्ट जान पड़ते थे। बस ऐसा ही था वह, न नाम में कवित्व की गुंजाइश, न शरीर में।
पर उसकी सचेत आँखों में न जाने कौन सी जिज्ञासा भरी थी। वे निरंतर घड़ी की तरह खुली मेरे मुख पर टिकी ही रहती थीं। मानो मेरी सारी विद्या बुद्धि को सीख लेना ही उनका ध्येय था।
लड़के उससे कुछ खिंचे-खिंचे से रहते थे। इसलिए नहीं कि वह कोरी था वरन् इसलिए कि किसी की माँ, किसी की नानी, किसी की बुआ आदि ने घीसा से दूर रहने की नितांत आवश्यकता उन्हें कान पकड़-पकड़ कर समझा दी थी। यह भी उन्होंने बताया और बताया घीसा के सबसे अधिक कुरूप नाम का रहस्य बाप तो जन्म से पहले ही नहीं रहा घर में कोई देखने भालने वाला न होने के कारण माँ उसे बंदरिया के बच्चे के समान चिपकाए फिरती थी। उसे एक ओर लिटाकर जब वह मजदूरी के काम में लग जाती थी, तब पेट के बल घिसट-घिसटकर बालक संसार के प्रथम अनुभव के साथ-साथ इस नाम की योग्यता को भी सार्थक करता जाता था।
फिर धीरे-धीरे अन्य स्त्रियाँ भी मुझे आते-जाते रोककर अनेक प्रकार की भाव भंगिमा के साथ एक विचित्र सांकेतिक भाषा में घीसा की जन्मजात अयोग्यता का परिचय देने लगीं। क्रमशः मैंने उसके नाम के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जाना।
उसका बाप बड़ा ही अभिमानी था और भला आदमी बनने का इच्छुक। डलिया आदि बुनने का काम छोड़कर वह थोड़ी बढ़ईगिरी सीख आया और केवल इतना ही नहीं, एक दिन चुपचाप दूसरे गाँव से युवती वधू लाकर उसने अपने गाँव की सब सजातीय सुंदरी बालिकाओं को उपेक्षित और उनके योग्य माता-पिता को निराश कर डाला। मनुष्य इतना अन्याय सह सकता है; परंतु ऐसे अवसर पर भगवान् की असहिष्णुता प्रसिद्ध ही है। इसी से जब गाँव के चौखट किवाड़ बनाकर और ठाकुरों के घरों में सफेदी करके उसने कुछ ठाट-बाट से रहना आरंभ किया, तब अचानक हैजे के बहाने वह वहाँ बुला लिया गया, जहाँ न जाने का बहाना न उसकी बुद्धि सोच सकी, न अभिमान। पर स्त्री भी कम गर्वीली न निकली। बिना स्वर-ताल के आँसू गिराकर बाल खोलकर, चूड़ियाँ फोड़कर और बिना किनारे की धोती पहनकर जब उसने बड़े घर की विधवा का स्वाँग भरना आरंभ किया, तब तो सारा समाज क्षोभ के समुद्र में डूबने उतराने लगा उस पर घीसा बाप के मरने के बाद हुआ है। हुआ तो वास्तव में छः महीने बाद, परंतु उस समय के संबंध में क्या कहा जाए, जिसका कभी एक क्षण वर्ष बीतता है और कभी एक वर्ष क्षण हो जाता है। इसी से यदि वह छः मास का समय रबर की तरह खिंचकर एक साल की अवधि तक पहुँच गया, तो इसमें गाँव वालों का क्या दोष?
यह कथा अनेक क्षेपकोमय विस्तार के साथ सुनाई तो गई थी मेरा मन फेरने के लिए और मन फिरा भी; परंतु किसी सनातन नियम से कथावाचक की ओर न फिरकर कथा के नायकों की ओर फिर गया और इस प्रकार घीसा मेरे और अधिक निकट आ गया। वह अपना जीवन संबंधी अपवाद कदाचित् पूरा नहीं समझ पाया था; परंतु अधूरे का भी प्रभाव उस पर कम न था, क्योंकि वह सब को अपनी छाया से इस प्रकार बचाता रहता था मानो उसे कोई छूत की बीमारी हो।
पढ़ने, उसे सबसे पहले समझने, उसे व्यवहार के समय स्मरण रखने, पुस्तक में एक भी धब्बा न लगाने, स्लेट को चमचमाती रखने और अपने छोटे से छोटे काम का उत्तरदायित्व बड़ी गंभीरता से निभाने में उसके समान कोई चतुर न था। इसी से कभी-कभी मन चाहता था कि उसकी माँ से उसे माँग ले जाऊँ और अपने पास रखकर उसके विकास की उचित व्यवस्था कर दूँ परंतु उस उपेक्षिता, पर मानिनी विधवा का वही एक सहारा था। वह अपने पति का स्थान छोड़ने पर प्रस्तुत न होगी, वह भी मेरा मन जानता था और उस बालक के बिना उसका जीवन कितना दुर्वह हो सकता है, यह भी मुझसे छिपा न था। फिर नौ साल के कर्तव्यपरायण घीसा की गुरुभक्ति देखकर उसकी मातृभक्ति के संबंध में कुछ संदेह करने का स्थान ही नहीं रह जाना था और इस तरह घीसा वहीं और उन्हीं कठोर परिस्थितियों में रहा, जहाँ क्रूरतम नियति ने केवल अपने मनोविनोद के लिए उसे रख दिया था।
शनिश्चर के दिन वह अपने छोटे दुर्बल हाथों से पीपल की छाया को गोबर – मिट्टी से पीला चिकनापन दे आता था। फिर इतवार को माँ के मजदूरी पर जाते ही एक मैले, फटे कपड़े में बँधी मोटी-रोटी और कुछ नमक या थोड़ा चबेना और डली गुड़ बगल में दबाकर पीपल की छाया को एक बार फिर झाड़ने बुहारने के पश्चात् वह गंगा के तट पर आ बैठता और अपनी पीली सतेज आँखों पर क्षीण साँवले हाथ की छाया कर दूर-दूर तक दृष्टि को दौड़ाता रहता जैसे ही उसे मेरी नीली सफेद नाव की झलक दिखाई पड़ती वैसे ही वह अपनी पतली टाँगों पर तीर के समान उड़ता और बिना नाम लिए हुए भी साथियों को सुनाने के लिए गुरु साहब कहता हुआ फिर पेड़ के नीचे पहुँच जाता था न जाने कितनी बार दुहराए तिहराए हुए कार्यक्रम की एक अंतिम आवृत्ति आवश्यक हो उठती। पेड़ की नीची डाल पर रखी हुई मेरी शीतलपाटी उतार कर बार-बार झाड़ू-पोंछकर बिछाई जाती, कभी काम न आने वाली सूखी स्याही से काली कच्चे काँच की दवात, टूटे निब और उखड़े हुए रंग वाले भूरे, हरे कलम के साथ पेड़ के कोटर से निकालकर यथास्थान रख दी जाती और तब इस विचित्र पाठशाला का विचित्र मंत्री और निराला विद्यार्थी कुछ आगे बढ़कर मेरे सप्रणाम स्वागत के लिए प्रस्तुत हो जाता।
महीने में चार दिन ही मैं वहाँ पहुँच सकती थी और कभी-कभी काम की अधिकता से एक आधे छुट्टी का दिन और भी निकल जाता था, पर उस थोड़े से समय और इने-गिने दिनों में भी मुझे उस बालक के हृदय का जैसा परिचय मिला, वह चित्र के एल्बम के समान निरंतर नवीन-सा लगता है।
मुझे आज भी वह दिन नहीं भूलता जब मैंने बिना कपड़ों का प्रबंध किए हुए ही उन बेचारों को सफाई का महत्त्व समझाते – समझाते थका डालने की मूर्खता की। दूसरे इतवार को सब जैसे-के-तैसे ही सामने थे- केवल कुछ गंगाजी में मुँह इस तरह धो आए थे कि मैल अनेक रेखाओं में विभक्त हो गया था, कुछ के हाथ पाँव ऐसे घिसे थे कि शेष मलिन शरीर के साथ वे अलग जोड़े हुए से लगते थे और कुछ ‘न रहेगा बाँस न बजेगी बाँसुरी’ की कहावत चरितार्थ करने के लिए कीट मैले फटे कुरते घर ही छोड़कर ऐसे अस्थिपंजरमय रूप में आ उपस्थित हुए थे, जिसमें उनके प्राण, रहने का आश्चर्य है, पर घीसा गायब था। पूछने पर लड़के काना – फूसी करने का या एक साथ सभी उसकी अनुपस्थिति का कारण सुनाने को आतुर होने लगे। एक-एक शब्द जोड़-तोड़कर समझना पड़ा कि घीसा माँ से कपड़ा धोने के साबुन के लिए तभी से कह रहा था- माँ को मजदूरी के पैसे मिले नहीं और दुकानदार ने अनाज लेकर साबुन दिया नहीं। कल रात को माँ को पैसे मिले और आज सवेरे वह सब काम छोड़कर पहले साबुन लेने गई। अभी लौटी है, अतः घीसा कपड़े धो रहा है, क्योंकि गुरु साहब ने कहा था कि नहा-धोकर साफ कपड़े पहनकर आना और अभागे के पास कपड़े ही क्या थे किसी दयावती का दिया हुआ एक पुराना कुरता जिसकी एक आस्तीन आधी थी और एक अँगोछा जैसा फटा टुकड़ा। जब घीसा नहाकर गीला अँगोछा लपेटे और आधा भीगा कुरता पहने अपराधी के समान मेरे सामने आ खड़ा हुआ तब आँखें ही नहीं मेरा रोम-रोम गीला हो गया। उस समय समझ में आए कि द्रोणाचार्य ने अपने भील शिष्य से अँगूठा कैसे कटवा लिया था। एक दिन न जाने क्या सोच कर मैं उन विद्यार्थियों के लिए 5-6 सेर जलेबियाँ ले गई पर कुछ तोलने वाले की सफाई से, कुछ तुलवाने वाले की समझदारी से और कुछ वहाँ की छीना-झपटी के कारण प्रत्येक को पाँच से अधिक न मिल सकीं। एक कहता था- मुझे एक कम मिली दूसरे ने बताया मेरी अमुक ने छीन ली। तीसरे को घर में सोते हुए छोटे भाई के लिए चाहिए, चौथे को किसी और की याद आ गई। पर इस कोलाहल में अपने हिस्से की जलेबियाँ लेकर घीसा कहाँ खिसक गया, यह कोई नहीं जान सका एक नटखट अपने साथी से कह रहा था ” सार एक ठो पिलवा पाले हैं, ओही का देय बरे गा होई” पर मेरी दृष्टि से संकुचित होकर चुप रह गया और तब तक घीसा लौटा ही। उसका सब हिसाब ठीक था- जलखई वाले छन्ने में दो जलेबियाँ लपेटकर वह माई के लिए छप्पर में खोंस आया है, एक उसने अपने पाले हुए, बिना माँ के कुत्ते के पिल्ले को खिला दी और दो स्वयं खा लीं। ‘और चाहिए’ पूछने पर उसकी संकोच भरी आँखें झुक गईं- ओठ कुछ हिले। पता चला कि पिल्ले को उससे कम मिली है। दें तो गुरु साहब पिल्ले को ही एक और दे दें।
और होली के पहले की एक घटना तो मेरी स्मृति में ऐसे गहरे रंगों से अंकित है जिसका भूल सकना सहज नहीं। उन दिनों हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य धीरे-धीरे बढ़ रहा था और किसी दिन उसके चरम सीमा तक पहुँच जाने की पूर्ण संभावना थी। घीसा दो सप्ताह से ज्वर से पड़ा था- दवा मैं भिजवा देती थी; परंतु देख-भाल का कोई ठीक प्रबंध न हो पाता था। दो-चार दिन उसकी माँ स्वयं बैठी रही। फिर एक अंधी बुढ़िया को बैठा कर काम पर जाने लगी।
इतवार की साँझ को मैं बच्चों को विदा दे, घीसा को देखने चली; परंतु पीपल के पचास पग दूर पहुँचते-पहुँचते उसी को डगमगाते पैरों से गिरते पड़ते अपनी ओर आते देख मेरा मन उद्विग्न हो उठा। वह तो इधर पन्द्रह दिन से उठा ही नहीं था; अतः मुझे उसके सन्निपातग्रस्त होने का ही संदेह हुआ। उसके सूखे शरीर में विद्युत सी दौड़ रही थी, आँखें और भी सतेज और मुख ऐसा था, जैसे हल्की आँच में धीरे-धीरे लाल होने वाला लोहे का टुकड़ा।
पर उसके वात- ग्रस्त होने से भी अधिक चिंताजनक उसकी समझदारी की कहानी निकली। वह प्यास से जाग गया था; पर पानी पास मिला नहीं और मनिया की अंधी आजी से माँगना ठीक न समझकर वह चुपचाप कष्ट सहने लगा। इतने में मुल्लू के कक्का ने पास से लौटकर दरवाजे से ही अंधी को बताया कि शहर में दंगा हो रहा है और तब उसे गुरु साहब का ध्यान आया। मुल्लू के कक्का के हटते ही वह ऐसे हौले-हौले उठा कि बुढ़िया को पता ही न चला और कभी दीवार, कभी पेड़ का सहारा लेता-लेता इस ओर भागा। अब वह गुरु साहब के गोड़ धर कर यहीं पड़ा रहेगा; पर पार किसी तरह भी न जाने देगा।
तब मेरी समस्या और भी जटिल हो गई। पार तो मुझे पहुँचाना था ही; पर साथ ही बीमार घीसा को ऐसे समझा कर जिससे उसकी स्थिति और गंभीर न हो जाए। पर सदा के संकोची, नम्र, और आज्ञाकारी घीसा का इस दृढ़ और हठी बालक में पता ही न चलता था। उसने पारसाल ऐसे ही अवसर पर हताहत दो मल्लाह देखे थे और कदाचित् इस समय उसका रोग से विकृत मस्तिष्क उन चित्रों में गहरा रंग भरकर मेरी उलझन को और उलझा रहा था। पर उसे समझाने का प्रयत्न करते-करते अचानक ही मैने एक ऐसा तार छू दिया, जिसका स्वर मेरे लिए भी नया था। यह सुनते ही कि मेरे पास रेल में बैठकर दूर-दूर से आए हुए बहुत से विद्यार्थी हैं जो अपनी माँ के पास साल भर में एक बार ही पहुँच पाते हैं और जो मेरे न जाने से अकेले घबरा जाएँगे, घीसा का सारा हठ, सारा विरोध ऐसे बह गया जैसे वह कभी था ही नहीं। और तब घीसा के सामने समान तर्क की क्षमता किसमें थी। जो साँझ को अपनी माई के पास नहीं जा सकते, उनके पास गुरु साहब को जाना ही चाहिए। घीसा रोकेगा, तो उसके भगवान् जी गुस्सा हो जाएँगे, क्योंकि वे ही तो घीसा को अकेला बेकार घूमता देखकर गुरु साहब को भेज देते हैं आदि-आदि उसके तर्कों का स्मरण कर आज भी मन भर आता है। परंतु उस दिन मुझे आपत्ति से बचाने के लिए अपने बुखार से जलते हुए अशक्त शरीर को घसीट लाने वाले घीसा को जब उसकी टूटी खटिया पर लिटाकर मैं लौटी, तब मेरे मन में कौतुहल की मात्रा ही अधिक थी।
इसके उपरांत घीसा अच्छा हो गया और धूल और सूखी पत्तियों को बाँधकर उन्मत्त के समान घूमने वाली गर्मी की हवा से उसका रोज संग्राम छिड़ने लगा – झाड़ते-झाड़ते ही वह पाठशाला धूल-धूसरित होकर भूरे, पीले और कुछ हरे पत्तों की चार में छिप कर तथा कंकालशेषी शाखाओं में उलझते, सूखे पत्तों को पुकारते वायु की संतप्त सरसर से मुखरित होकर उस भ्रांत बालक को चिढ़ाने लगती। तब मैंने तीसरे पहर से संध्या समय तक वहाँ रहने का निश्चय किया; परंतु पता चला, घीसा किसकिसाती आँखों को मलता और पुस्तक से बार-बार धूल झाड़ता हुआ दिन भर वहीं पेड़ के नीचे बैठा रहता है मानो वह किसी प्राचीन युग का तपोव्रती अनागरिक ब्रह्मचारी हो, जिसकी तपस्या भंग के लिए ही लू के झोंके आते हैं।
इस प्रकार चलते-चलते समय ने जब दाई छूने के लिए दौड़ते हुए बालक के समान झपटकर उस दिन पर उँगली धर दी, जब मुझे उन लोगों को छोड़ देना था, तब तो मेरा मन बहुत ही अस्थिर हो उठा। कुछ बालक उदास थे और कुछ खेलने की छुट्टी से प्रसन्न ! कुछ जानना चाहते थे कि छुट्टियों के दिन चूने की टिपकियाँ रखकर गिने जाएँ, या कोयले की लकीरें खींचकर। कुछ के सामने बरसात में चूते हुए घर में आठ पृष्ठ की पुस्तक बचा रखने का प्रश्न था और कुछ कागजों पर चूहे के आक्रमण की ही समस्या का समाधान चाहते थे। ऐसे महत्त्वपूर्ण कोलाहल में घीसा न जाने कैसे अपना रहना अनावश्यक समझ लेता था, अतः सदा के समान आज भी मैं उसे न खोज पाई। जब मैं कुछ चिंतित – सी वहाँ से चली, तब मन भारी भारी हो रहा था, आँखों में कोहरा सा घिर-घिर आता था। वास्तव में उन दिनों डाक्टरों को मेरे पेट में फोड़ा होने का संदेह हो रहा था- ऑपरेशन की संभावना थी। कब लौटूंगी या नहीं लौटूंगी, यही सोचते-सोचते मैंने फिर कर चारों ओर जो आर्द्र दृष्टि डाली वह कुछ समय तक उन परिचित स्थानों से भेंट कर वहीं उलझ रही।
पृथ्वी के उच्छ्वास के समान उठते हुए धुँधलेपन में वे कच्चे घर आकंठ मग्न हो गए थे केवल फूस के – मटमैले और खपरैले के कत्थई और काले छप्पर वर्षा में बढ़ी गंगा के मिट्टी जैसे जल में पुरानी नावों के समान जान पड़ते थे। कछार की बालू में दूर तक फैले तरबूज और खरबूज के खेत अपने सिरकी और फूस के टट्टियों, और रखवाली के लिए बनी पर्णकुटियों के कारण जल में बसे किसी आदिम द्वीप का स्मरण दिलाते थे। उनमें एक – दो दिए जल चुके थे, तब मैंने दूर पर एक छोटा-सा काला धब्बा आगे बढ़ता देखा। वह घीसा ही होगा। यह मैंने दूर से ही जान लिया। आज गुरु साहब को उसे बिदा देना है, यह उसका नन्हा हृदय अपनी पूरी संवेदना शक्ति से जान रहा था, इसमें संदेह नहीं था। परंतु उस उपेक्षित बालक के मन में मेरे लिए कितनी सरल ममता और मेरे विछोह की कितनी गहरी व्यथा हो सकती है, यह जानना मेरे लिए शेष था।
निकट आने पर देखा कि उस धूमिल गोधूली में बादामी कागज पर काले चित्र के समान लगने वाला नंगे बदन घीसा एक बड़ा तरबूज दोनों हाथों में सम्हाले था, जिसमें बीच के कटे भाग में से भीतर की ईषत – लक्ष्य ललाई चारों ओर के गहरे हरेपन में कुछ खिले कुछ बंद गुलाबी फूल-जैसी जान पड़ती थी।
घीसा के पास न पैसा था न खेत- तब क्या वह इसे चुरा लाया है! मन का संदेह बाहर आया ही और तब मैंने जाना कि जीवन का खरा सोना छिपाने के लिए उस मलिन शरीर को बनाने वाला ईश्वर उस बूढ़े आदमी से भिन्न नहीं, जो अपनी सोने की मोहर को कच्ची मिट्टी की दीवार में रखकर निश्चित हो जाता है। घीसा गुरु साहब से झूठ बोलना भगवान जी से झूठ बोलना समझता है। वह तरबूज कई दिन पहले देख आया था। माई के लौटने में जाने क्यों देर हो गई, तब उसे अकेले ही खेत पर जाना पड़ा। वहाँ खेतवाले का लड़का था, जिसकी उसके नए कुरते पर बहुत दिन से नजर थी। प्रायः सुना-सुना कर कहता रहता था कि जिनकी भूख जूठी पत्तल से बुझ सकती है, उनके लिए परोसा लगाने वाले पागल होते हैं। उसने कहा- पैसा नहीं है, तो कुरता दे जाओ। और घीसा आज तरबूज न लेता, तो कल उसका क्या करता। इससे कुरता दे आया; पर गुरु साहब को चिंता करने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि गर्मी में वह कुरता पहनता ही नहीं और जाने-आने के लिए पुराना ठीक रहेगा। तरबूज सफेद न हो, इसलिए कटवाना पड़ा- मीठा है या नहीं यह देखने के लिए उँगली से कुछ निकाल भी लेना पड़ा।
गुरु साहब न लें, तो घीसा रात भर रोएगा- छुट्टी भर रोएगा। ले जाएँ तो वह रोज नहा-धोकर पेड़ के नीचे पढ़ा हुआ पाठ दोहराता रहेगा और छुट्टी के बाद पूरी किताब पट्टी पर लिखकर दिखा सकेगा।
और तब अपने स्नेह में प्रगल्भ उस बालक के सिर पर हाथ रखकर मैं भावातिरेक से ही निश्चल हो रही। उस तट पर किसी गुरु को किसी शिष्य से कभी ऐसी दक्षिणा मिली होगी, ऐसा मुझे विश्वास नहीं; परंतु उस दक्षिणा के सामने संसार के अब तक सारे आदान-प्रदान फीके जान पड़े।
फिर घीसा के सुख का विशेष प्रबंध कर मैं बाहर चली गई और लौटते-लौटते कई महीने लग गए। इस बीच में उसका कोई समाचार न मिलना ही संभव था। जब फिर उस ओर जाने का मुझे अवकाश मिल सका, तब घीसा को उसके भगवानजी ने सदा के लिए पढ़ने से अवकाश दे दिया था आज वह कहानी दोहराने की मुझ में शक्ति नहीं है; पर संभव है आज के कल कल के कुछ दिन दिनों के मास और मास के वर्ष बन जाने पर मैं दार्शनिक के समान धीर-भाव से उस छोटे जीवन का उपेक्षित अंत बता सकूँगी। अभी मेरे लिए इतना ही पर्याप्त हैं कि मैं अन्य मलिन मुखों में उसकी छाया ढूँढती रहूँ।
कहानी का सारांश
यह कहानी एक शिक्षिका महादेवी वर्मा की है जो गंगा पार झूसी के खंडहरों और गाँवों में आकर्षित होकर वहाँ के गरीब बच्चों को पढ़ाती है। मुख्य पात्र घीसा एक गरीब, उपेक्षित बालक है, जिसकी माँ विधवा है और मजदूरी करती है। घीसा पढ़ाई में अत्यंत समर्पित, जिज्ञासु और गुरुभक्त है, लेकिन गरीबी और सामाजिक उपेक्षा से ग्रस्त है। शिक्षिका उसके प्रति ममता रखती है और उसकी छोटी-छोटी घटनाएँ जैसे साफ कपड़े पहनना, जलेबियाँ बाँटना, दंगे की चिंता में बीमार होने पर भी गुरु की रक्षा करना और विदाई में तरबूज भेंट करना वर्णित हैं। अंत में घीसा की मृत्यु हो जाती है, और शिक्षिका उसकी स्मृति में दुखी रहती है। कहानी गरीबी, शिक्षा, ममता और सामाजिक अन्याय को उजागर करती है।
कहानी का सारांश
यह कहानी एक शिक्षिका महादेवी वर्मा की है जो गंगा पार झूसी के खंडहरों और गाँवों में आकर्षित होकर वहाँ के गरीब बच्चों को पढ़ाती है। मुख्य पात्र घीसा एक गरीब, उपेक्षित बालक है, जिसकी माँ विधवा है और मजदूरी करती है। घीसा पढ़ाई में अत्यंत समर्पित, जिज्ञासु और गुरुभक्त है, लेकिन गरीबी और सामाजिक उपेक्षा से ग्रस्त है। शिक्षिका उसके प्रति ममता रखती है और उसकी छोटी-छोटी घटनाएँ जैसे साफ कपड़े पहनना, जलेबियाँ बाँटना, दंगे की चिंता में बीमार होने पर भी गुरु की रक्षा करना और विदाई में तरबूज भेंट करना वर्णित हैं। अंत में घीसा की मृत्यु हो जाती है, और शिक्षिका उसकी स्मृति में दुखी रहती है। कहानी गरीबी, शिक्षा, ममता और सामाजिक अन्याय को उजागर करती है।
शब्दार्थ
अद्वैत – एकाधिक ना होना
असहिष्णुता – सहनशीलता का अभाव
क्षेपक – मूलबात में अपनी बात जोड़ते हुए कहना
नियति – विधान या होनी
शीतलपाटी – एक प्रकार के घास से बनी चटाई
जैसे के तैसे – यथावतः
सन्निपातग्रस्त – लकवाग्रस्त
गल्भ – वाचाल
भावातिरेक – भावनाओं की अधिकता
दुर्वह – कठिन
हताहत – घायल
ईषत लक्ष्य – अभीष्ट अथवा लक्ष्य
इंडुरी – गुडरी (घड़े को स्थिर रखने के लिए सिर पर गोल रखा गया कपड़ा)
शब्द (Word) | हिंदी अर्थ (Hindi Meaning) | अंग्रेजी अर्थ (English Meaning) |
मार्मिकता | हृदयस्पर्शी गहराई | Poignancy, emotional depth |
अकारण | बिना कारण के | Uncaused, without reason |
क्षत-विक्षत | घायल और टूटा-फूटा | Wounded and shattered |
भागीरथी | गंगा नदी का नाम | Name of the Ganga river |
इंडुरी | सिर पर रखने की गद्दी | Head pad for carrying loads |
मलिन | गंदा या उदास | Dirty or gloomy |
ग्वाल | गाय चराने वाला | Cowherd |
गड़रिया | भेड़-बकरी चराने वाला | Shepherd |
निठल्ला | आलसी, बेकार | Idle, lazy |
जिज्ञासु | जानने की इच्छा वाला | Curious, inquisitive |
गोधूली | संध्या का समय | Twilight, dusk |
दुकूल | रेशमी वस्त्र | Silken garment |
अंजन | काजल | Kohl, eye liner |
ममता | स्नेह, मातृभाव | Affection, maternal love |
संकेत | इशारा | Gesture, hint |
कुरूप | बदसूरत | Ugly |
अभिमानी | घमंडी | Arrogant |
क्षोभ | क्रोध या दुख | Agitation, grief |
अपवाद | बदनामी | Scandal, reproach |
दक्षिणा | गुरु को भेंट | Offering to teacher |
सन्निपात | गंभीर बीमारी | Delirium, severe fever |
उच्छ्वास | साँस छोड़ना | Exhalation, sigh |
प्रगल्भ | साहसी या बोल्ड | Bold, forward |
उपेक्षिता | उपेक्षित महिला | Neglected woman |
संवेदना | भावना, अनुभूति | Sensitivity, empathy |
पाठ से
- पहली बार जब घीसा कक्षा में आया तब वह कैसा दिखाई पड़ता था? अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।
उत्तर – पहली बार जब घीसा कक्षा में आया, तो वह सबसे पीछे अकेले दुबक कर बैठा हुआ था। उसका रंग पक्का और शरीर का गठन सुडौल था, लेकिन चेहरा मैला था। उसके चेहरे पर दो पीली आँखें जड़ी हुई सी लगती थीं। उसके पतले होंठ कसकर बंद थे, जो दृढ़ता का भाव देते थे, और सिर पर छोटे-छोटे रूखे बाल खड़े थे। उसकी उभरी हुई हड्डियों वाली गर्दन, झुके हुए कंधे और पतली-पतली रक्तहीन बाँहें उसे बहुत कमजोर दर्शा रही थीं। निरंतर दौड़ने के कारण केवल उसके पैर ही शरीर में कुछ मजबूत जान पड़ते थे। कुल मिलाकर, उसका रूप बहुत ही साधारण और दीन-हीन था।
- घीसा का नाम घीसा कैसे पड़ा?
उत्तर – घीसा के जन्म से पहले ही उसके पिता का देहांत हो गया था। घर में कोई और देखभाल करने वाला न होने के कारण उसकी माँ उसे हमेशा अपने साथ चिपकाए रखती थी। जब वह मजदूरी करने जाती, तो उसे एक ओर लिटा देती थी। तब वह छोटा बालक पेट के बल घिसट-घिसटकर चलता था। इसी घिसटकर चलने की क्रिया के कारण उसका नाम ‘घीसा’ पड़ गया।
- घीसा कक्षा लगने के पूर्व क्या तैयारी करता था?
उत्तर – घीसा कक्षा लगने के पूर्व बहुत तैयारी करता था। वह हर शनिवार को पीपल के पेड़ के नीचे की जगह को गोबर-मिट्टी से लीपकर चिकना कर देता था। रविवार को अपनी गुरु साहिबा (लेखिका) के आने से पहले वह उस जगह को फिर से झाड़ता-पोंछता था। इसके बाद वह पेड़ की नीची डाल पर रखी शीतलपाटी (चटाई) को उतारकर, उसे अच्छे से झाड़कर बिछाता था। फिर वह पेड़ के कोटर से दवात और कलम निकालकर सही जगह पर रखता था और अपनी गुरु साहिबा के स्वागत के लिए तैयार हो जाता था।
- बच्चे साफ-सफाई का पाठ पढ़ने के बाद अगली कक्षा में किस प्रकार तैयार होकर आए थे?
उत्तर – साफ-सफाई का पाठ पढ़ने के बाद अगली कक्षा में बच्चे बहुत विचित्र तरीके से तैयार होकर आए थे। कुछ बच्चों ने गंगाजी में इस तरह मुँह धोया था कि मैल धुलकर कई लकीरों में बँट गया था। कुछ ने अपने हाथ-पाँव इतने घिसे थे कि वे शरीर के बाकी मैले हिस्से से अलग, जोड़े हुए से लग रहे थे। वहीं, कुछ बच्चों ने अपने गंदे-फटे कुर्ते घर पर ही छोड़ दिए थे और केवल अस्थिपंजर वाले रूप में आ गए थे, ताकि गंदगी का सवाल ही न उठे।
- घीसा को देखकर “आँखें ही नहीं मेरा रोम-रोम गीला हो गया” लेखिका ने ऐसा क्यों कहा?
उत्तर – लेखिका ने ऐसा इसलिए कहा क्योंकि जब उन्होंने बच्चों को साफ-सुथरे कपड़े पहनकर आने के लिए कहा, तो घीसा उस दिन कक्षा में नहीं आया। बाद में वह गीला अँगोछा लपेटे और आधा भीगा हुआ, फटा-पुराना कुरता पहने हुए अपराधी की तरह उनके सामने आकर खड़ा हो गया। उसे पता चला कि उसके पास साबुन खरीदने के पैसे नहीं थे और माँ के मजदूरी के पैसे मिलने पर ही वह साबुन लेकर अपने एकमात्र फटे कपड़े धो सका। एक छोटे से बालक की गुरु के प्रति ऐसी आज्ञाकारिता, उसका स्वाभिमान और उसकी गरीबी की विवशता देखकर लेखिका का हृदय करुणा और स्नेह से भर गया, और इसी भावुकता के कारण उन्होंने कहा कि उनकी “आँखें ही नहीं, रोम-रोम गीला हो गया”।
- लेखिका ने ईश्वर की तुलना बूढ़े आदमी से क्यों की है?
उत्तर – लेखिका ने ईश्वर की तुलना उस बूढ़े आदमी से की है जो अपनी कीमती सोने की मोहर को कच्ची मिट्टी की दीवार में छिपाकर निश्चिंत हो जाता है। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा क्योंकि घीसा का शरीर भले ही मैला-कुचैला और दीन-हीन था, लेकिन उसके भीतर जीवन का खरा सोना यानी ईमानदारी, सच्चाई, गुरुभक्ति और स्नेह जैसे अनमोल गुण छिपे हुए थे। जिस प्रकार बूढ़ा आदमी बाहरी दिखावे की परवाह किए बिना अपनी कीमती वस्तु को साधारण जगह पर रखता है, उसी प्रकार ईश्वर ने भी घीसा के मलिन शरीर में अनमोल गुणों को छिपा दिया था।
- महादेवी वर्मा अक्सर अपनी छुट्टियाँ कैसे बिताया करती थीं?
उत्तर – महादेवी वर्मा अक्सर अपनी छुट्टियाँ गंगा पार झूसी के खंडहरों और उसके आस-पास के गाँवों में बिताया करती थीं। वे अपना समय भागीरथी के तट पर बैठकर वहाँ के लोगों, बच्चों और प्राकृतिक वातावरण को देखते हुए सुखपूर्वक व्यतीत करती थीं।
- भक्तिन कौन थी? महादेवी वर्मा को ऐसा क्यों लगता था कि वो (भक्तिन) अपने आपको उनकी अभिभाविका मानने लगी थी?
उत्तर – भक्तिन महादेवी वर्मा की सेविका थी। वह उनके साथ दस वर्षों से रह रही थी। इतने लंबे समय तक साथ रहने के कारण वह केवल एक नौकरानी न रहकर महादेवी जी के प्रति एक विशेष लगाव और अधिकार का भाव रखने लगी थी। वह उनकी किताबों, कागजों और अन्य सामानों को सँभालती थी और उनकी सनक (जैसे गंगा पार के गाँवों में जाना) पर खीझकर बुदबुदाती भी थी। उसके इसी व्यवहार और अधिकार भाव के कारण महादेवी जी को लगता था कि वह स्वयं को उनकी अभिभाविका (guardian) मानने लगी थी।
- घीसा ने अंत में गुरु साहिबा को क्या भेंट दी? यह भेंट सामग्री उसने कैसे जुटाई?
उत्तर – घीसा ने अंत में अपनी गुरु साहिबा को गुरु-दक्षिणा के रूप में एक बड़ा-सा तरबूज भेंट किया। यह तरबूज जुटाने के लिए उसके पास पैसे नहीं थे। उसने खेत वाले के लड़के को, जिसकी नजर घीसा के नए कुर्ते पर बहुत दिनों से थी, अपना वह कुरता देकर उसके बदले में तरबूज लिया था। इस प्रकार, उसने अपनी एक कीमती वस्तु का त्याग करके यह भेंट सामग्री जुटाई थी।
- महादेवी वर्मा को अन्य विद्यार्थियों की अपेक्षा घीसा ही क्यों याद रहा?
उत्तर – महादेवी वर्मा को अन्य विद्यार्थियों की अपेक्षा घीसा इसलिए याद रहा क्योंकि उसका व्यक्तित्व सबसे अलग और अविस्मरणीय था। उसकी आँखों में सीखने की तीव्र जिज्ञासा, गुरु के प्रति अटूट भक्ति, आज्ञाकारिता, स्वाभिमान और निश्छल स्नेह था। सफाई वाली घटना, जलेबी वाली घटना और अंत में गुरु-दक्षिणा में अपना एकमात्र कुरता देकर तरबूज लाने जैसी मार्मिक घटनाओं ने लेखिका के हृदय पर एक गहरी छाप छोड़ी। घीसा का निस्वार्थ प्रेम और त्याग उसे अन्य सभी विद्यार्थियों से अलग बनाता था, इसी कारण वह लेखिका की स्मृति में अकेला ही आता है।
पाठ से आगे
- “संध्या के लाल सुनहली आभा वाले उड़ते हुए दुकूल पर रात्रि ने मानो छिपकर अंजन की मूठ चला दी थी।” इस पंक्ति में प्रकृति के जिस दृश्य का वर्णन किया गया है उसे अपने शब्दों में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – इस पंक्ति में सूर्यास्त के बाद के समय का बहुत ही सुंदर और काव्यात्मक वर्णन किया गया है। यहाँ “संध्या के लाल सुनहली आभा वाले उड़ते हुए दुकूल” का अर्थ है – शाम के समय आकाश में फैली लाल और सुनहरी रोशनी, जो एक उड़ते हुए रेशमी दुपट्टे (दुकूल) के समान लग रही है। “रात्रि ने मानो छिपकर अंजन की मूठ चला दी थी” का अर्थ है कि उस सुंदर सुनहरे आकाश पर धीरे-धीरे रात का अँधेरा ऐसे फैल रहा था, जैसे किसी ने उस दुपट्टे पर मुट्ठी भरकर काजल (अंजन) फेंक दिया हो। अर्थात, शाम की रोशनी समाप्त हो रही थी और रात का अँधेरा छा रहा था।
- “यह कथा अनेक क्षेपकोमय विस्तार के साथ सुनाई तो गई थी मेरा मन फेरने के लिए, और मन फिरा भी; परंतु किसी सनातन नियम से कथावाचक की ओर न फिरकर कथा के नायकों की ओर फिर गया और इस प्रकार घीसा मेरे और अधिक निकट आ गया।” उपरोक्त पंक्तियों में लोगों की किस मनोवृत्ति व लेखिका के किस व्यक्तित्व की ओर संकेत किया गया है?
उत्तर – उपरोक्त पंक्तियों में लोगों की संकीर्ण, निंदक और दूसरों के चरित्र पर लांछन लगाने वाली मनोवृत्ति की ओर संकेत किया गया है। गाँव के लोग घीसा की माँ के चरित्र पर संदेह करते थे और घीसा के जन्म को लेकर मनगढ़ंत कहानियाँ सुनाते थे ताकि लेखिका का मन घीसा से फिर जाए।
इसके विपरीत, ये पंक्तियाँ लेखिका के संवेदनशील, करुणामय और मानवीय व्यक्तित्व को दर्शाती हैं। लोगों की बातें सुनकर उनका मन घीसा से फिरा जरूर, लेकिन कथावाचकों की ओर नहीं, बल्कि कथा के नायकों (घीसा और उसकी माँ) की ओर। उन्हें उन दोनों की पीड़ा और समाज द्वारा की जा रही उपेक्षा का एहसास हुआ, जिससे उनके मन में घीसा के प्रति और अधिक सहानुभूति और स्नेह उत्पन्न हो गया और वह उनके और निकट आ गया।
- अन्य बच्चों की माँ, बुआएँ तथा दादी-नानी उन्हें घीसा से दूर रहने की हिदायत क्यों देती थी? आज के संदर्भ में क्या ऐसा व्यवहार करना उचित है? अपने विचार लिखिए।
उत्तर – अन्य बच्चों की माँ, बुआएँ तथा दादी-नानी उन्हें घीसा से दूर रहने की हिदायत इसलिए देती थीं क्योंकि वे घीसा के जन्म को लेकर उसकी माँ के चरित्र पर संदेह करती थीं और उसे ‘अयोग्य’ मानती थीं। वे संकीर्ण सामाजिक मान्यताओं और अफवाहों पर विश्वास करती थीं और नहीं चाहती थीं कि उनके बच्चे ऐसे बालक के साथ रहें जिसके कुल और जन्म पर समाज उँगली उठाता हो।
आज के संदर्भ में ऐसा व्यवहार करना बिल्कुल भी उचित नहीं है। यह व्यवहार पूरी तरह से अमानवीय, भेदभावपूर्ण और एक बच्चे के मनोविज्ञान पर गहरा आघात करने वाला है। किसी भी बच्चे को उसके जन्म या उसके माता-पिता के अतीत के आधार पर आंकना और उसके साथ छुआछूत जैसा व्यवहार करना एक सामाजिक अपराध है। हर बच्चे को सम्मान, स्नेह और समानता के साथ जीने का अधिकार है। हमें अफवाहों पर ध्यान न देकर व्यक्ति के गुणों और व्यवहार को महत्व देना चाहिए।
- गर्मी की छुट्टियाँ लगने पर प्रायः सबके मन में खुशी और दुःख के मिले-जुले भाव होते हैं, छुट्टियाँ होने पर आप एवं आपके साथी कैसा महसूस करते हैं? आपस में बातचीत करके लिखें।
उत्तर – छात्र स्वयं करें।
- निम्नांकित पंक्तियों में निहित भाव को स्पष्ट करें-
(क) तब मैंने जाना कि जीवन का खरा सोना छिपाने के लिए उस मलिन शरीर को बनाने वाला ईश्वर उस बूढ़े आदमी से भिन्न नहीं, जो अपने सोने की मोहर को कच्ची मिट्टी की दीवार में रखकर निश्चिंत हो जाता है।”
उत्तर – इस पंक्ति का भाव यह है कि बाहरी रूप-रंग या गरीबी किसी व्यक्ति के आंतरिक गुणों का पैमाना नहीं हो सकता। यहाँ ‘जीवन का खरा सोना’ का अर्थ घीसा के अनमोल गुण जैसे- ईमानदारी, गुरुभक्ति, स्नेह और स्वाभिमान है। ‘मलिन शरीर’ उसकी गरीबी और दीन-हीन अवस्था का प्रतीक है। लेखिका कहना चाहती हैं कि जैसे कोई बूढ़ा व्यक्ति अपनी कीमती चीज को साधारण जगह पर छिपा देता है, वैसे ही ईश्वर ने घीसा के मैले-कुचैले शरीर के भीतर सोने जैसे शुद्ध और कीमती गुण छिपा दिए थे। समाज उसके बाहरी रूप को देखकर उसे उपेक्षित करता था, पर वास्तव में वह गुणों का खजाना था।
(ख) “जिनकी भूख जूठी पत्तल से बुझ सकती है, उनके लिए परोसा लगाने वाले पागल होते हैं।”
उत्तर – इस पंक्ति का भाव अमीरी का घमंड और गरीबों के प्रति तिरस्कार का भाव प्रकट करना है। यह बात खेत वाले का अमीर लड़का घीसा जैसे गरीब बच्चों के लिए कहता है। उसका मानना है कि घीसा जैसे गरीब लोगों की जरूरतें बहुत कम होती हैं और वे जूठन से भी अपना पेट भर सकते हैं। इसलिए, उनके लिए तरबूज जैसी अच्छी चीजों का प्रबंध करना या उन्हें सम्मान देना मूर्खता है। यह पंक्ति समाज में व्याप्त आर्थिक असमानता और उच्च वर्ग की गरीबों के प्रति असंवेदनशील और अपमानजनक सोच को दर्शाती है।
- पाठ के आरंभ में पानी भरती महिलाओं का चित्रण और घीसा की देहयष्टि का इस प्रकार वर्णन किया गया है कि हमारे मन मस्तिष्क में तस्वीर साकार हो जाती है। लेखन शैली में इस विधा को रेखाचित्र के नाम से जाना जाता है।
आप भी अपने सूक्ष्म अवलोकन के आधार पर किसी व्यक्ति, वस्तु अथवा दृश्य का चित्रण एक अनुच्छेद में कीजिए।
उत्तर – सुबह की पहली किरण में, मेरे गाँव का पुराना बरगद का पेड़ एक जीवंत साक्षी की भाँति खड़ा रहता है। उसकी मोटी, उबड़-खाबड़ तने पर अनगिनत दरारें समय की कहानियाँ बयान करती हैं, मानो सदियों की थकान से झुकी हुई हों। फैली हुई शाखाएँ आकाश को छूने का प्रयास करती हुईं, घनी हरी पत्तियों से ढकी रहती हैं, जो हवा के झोंके में सरसराती हुईं संगीत पैदा करती हैं। जड़ें धरती में गहरे धँसी हुईं, सर्पिलाकार फैली हुईं, आस-पास की मिट्टी को अपनी मजबूत पकड़ में जकड़े रखती हैं। नीचे की छाया में बैठे बुजुर्गों की झुर्रियों वाली चेहरे पर शांति छाई रहती है, जबकि बच्चे उसकी डालियों पर झूलते हुए हँसते-खेलते हैं। यह पेड़ न केवल छाया देता है, बल्कि गाँव की स्मृतियों का संरक्षक भी है, जहाँ हर पत्ता इतिहास की एक पंक्ति लिखता प्रतीत होता है।
भाषा के बारे में
- हमारे शरीर के विविध अंगों के नाम का प्रयोग, कुछ का स्त्रीलिंग में तो कुछ का पुल्लिंग में होता है यथा सिर, गला, हाथ आदि पुल्लिंग होते हैं तो आँखें, नाक, मूँछ स्त्रीलिंग में होती हैं। शरीर के सभी अंगों का निम्नांकित सारणी के अनुसार शिक्षक की मदद से वाक्यों में प्रयोग करते हुए उनके लिंगों का निर्धारण कीजिए इसमें आप अपने सहपाठियों या शिक्षक की भी मदद ले सकते हैं।
अंगों का नाम लिंग वाक्य
उत्तर –
अंगों का नाम | लिंग | वाक्य |
सिर | पुल्लिंग | मेरा सिर भारी हो रहा है। |
गला | पुल्लिंग | गला सूख गया है। |
हाथ | पुल्लिंग | हाथ धोकर आओ। |
पैर | पुल्लिंग | पैर में दर्द है। |
कान | पुल्लिंग | कान बंद कर लो। |
मुँह | पुल्लिंग | मुँह धो लो। |
आँख | स्त्रीलिंग | आँखें बंद करो। |
नाक | स्त्रीलिंग | नाक बह रही है। |
मूँछ | स्त्रीलिंग | मूँछ काट ली है। |
दाढ़ी | स्त्रीलिंग | दाढ़ी बढ़ गई है। |
जीभ | स्त्रीलिंग | जीभ जल गई है। |
गर्दन | स्त्रीलिंग | गर्दन में दर्द है। |
- महादेवी जी ने ‘घीसा’ नामक इस रेखाचित्र के वर्णन में विशेषण- विशेष्यों का बहुतायत से प्रयोग किया है। कक्षा में समूह में बँटकर पाठ के अलग-अलग हिस्सों / अनुच्छेदों में आए विशेषण एवं विशेष्यों की सूची तैयार कीजिए। उन विशेषणों को अन्य उपयुक्त विशेष्यों के साथ भी जोड़ने का प्रयास कीजिए।
उत्तर – यह समूहिक गतिविधि के रूप में कक्षा में कारवाई जाएगी।
- वाक्य संरचना करते समय यदि वाक्य में कर्त्ता के साथ ‘ने‘ विभक्ति हो परंतु कर्म के साथ ‘को‘ विभक्ति न हो तो क्रिया, कर्म के अनुसार होगी। यथा- मैंने पुस्तक पढ़ी। मोहन ने रोटी खाई। सीता ने बताशा खाया। मीरा ने फल खाए।
इस पाठ में भी ऐसे प्रयोग कई स्थल पर देखे जा सकते हैं, जैसे- दुकानदार ने अनाज लेकर साबुन दिया नहीं। सदा के समान आज भी मैं उसे न खोज पाया। रात्रि ने मानो छिपकर अंजन की मूठ चला दी थी। मैंने फिरकर चारों ओर जो आर्द्र दृष्टि डाली। आप भी इस प्रकार के कुछ और वाक्यों का निर्माण कीजिए।
उत्तर – मैंने पत्र लिखा।
राम ने फल खाया।
सीता ने किताब पढ़ी।
बच्चे ने दूध पिया।
शिक्षक ने पाठ पढ़ाया।
किसान ने खेत जोता।
लड़की ने गीत गाया।
कुत्ते ने हड्डी चबाई।
माँ ने रोटी बनाई।
पिता ने समाचार पढ़ा।
योग्यता विस्तार
- गुरु दक्षिणा की परंपरा आज प्रचलन में नहीं है किन्तु इससे संबंधित बहुत सारी कहानियाँ प्रचलित हैं जैसे एकलव्य की कथा, आरुणि की कथा आदि। अपने बड़ों से उन्हें सुनिए और लिखिए।
उत्तर – छात्र शिक्षक की सहायता से पूरा करें।
- “घीसा” की ही तरह महादेवी जी द्वारा लिखित अन्य रेखाचित्र यथा भक्तिन, सोना, गिल्लू रामा आदि को भी पुस्तकालय से लेकर पढ़िए।
उत्तर – छात्र शिक्षक की सहायता से पूरा करें।
बहुविकल्पीय प्रश्न
कहानी की मुख्य पात्र कौन है?
a) घीसा की माँ
b) शिक्षिका
c) ग्वाल का बालक
d) मल्लाह
उत्तर – b) शिक्षिका
शिक्षिका को झूसी के खंडहरों की ओर क्या आकर्षित करता है?
a) धन कमाना
b) अकारण आकर्षण
c) मित्रों से मिलना
d) उत्सव मनाना
उत्तर – b) अकारण आकर्षण
घीसा का नाम क्यों पड़ा?
a) घिसट-घिसट कर चलने से
b) घी खाने से
c) गाँव के नाम से
d) पिता के नाम से
उत्तर – a) घिसट-घिसट कर चलने से
शिक्षिका बच्चों को कहाँ पढ़ाती है?
a) स्कूल भवन में
b) पीपल के पेड़ की छाया में
c) गंगा के किनारे
d) घर में
उत्तर – b) पीपल के पेड़ की छाया में
घीसा की माँ क्या काम करती है?
a) पढ़ाती है
b) मजदूरी, लीपना-पोतना
c) दूध बेचती है
d) नाव चलाती है
उत्तर – b) मजदूरी, लीपना-पोतना
घीसा के पिता की मृत्यु का कारण क्या था?
a) दंगा
b) हैजा
c) दुर्घटना
d) बुढ़ापा
उत्तर – b) हैजा
शिक्षिका को घीसा से क्या दक्षिणा मिली?
a) किताब
b) तरबूज
c) जलेबियाँ
d) कपड़े
उत्तर – b) तरबूज
घीसा शिक्षिका की नाव आने पर क्या करता था?
a) भाग जाता
b) ‘गुरु साहब’ कहकर दौड़ता
c) सो जाता
d) छिप जाता
उत्तर – b) ‘गुरु साहब’ कहकर दौड़ता
होली से पहले घीसा किस कारण बीमार था?
a) दंगा
b) ज्वर
c) चोट
d) भूख
उत्तर – b) ज्वर
शिक्षिका के जाने पर घीसा क्या करने का वादा करता है?
a) खेलना
b) पढ़ा हुआ पाठ दोहराना
c) मजदूरी करना
d) सोना
उत्तर – b) पढ़ा हुआ पाठ दोहराना
गाँव वाले घीसा के जन्म पर क्या अफवाह फैलाते हैं?
a) वह अमीर है
b) जन्मजात अयोग्यता
c) राजकुमार है
d) विद्वान है
उत्तर – b) जन्मजात अयोग्यता
शिक्षिका की बूढ़ी भक्तिन क्या करती है?
a) पढ़ाती है
b) किताबें संभालती है
c) नाव चलाती है
d) दूध बेचती है
उत्तर – b) किताबें संभालती है
घीसा जलेबियाँ किसे देता है?
a) सबको
b) माँ और पिल्ले को
c) शिक्षिका को
d) दोस्तों को
उत्तर – b) माँ और पिल्ले को
दंगे के समय घीसा क्या करता है?
a) भाग जाता
b) शिक्षिका को रोकने आता
c) सोता रहता
d) खेलता है
उत्तर – b) शिक्षिका को रोकने आता
शिक्षिका को पेट में क्या समस्या थी?
a) फोड़ा
b) सर्दी
c) सिरदर्द
d) चोट
उत्तर – a) फोड़ा
घीसा तरबूज के बदले क्या देता है?
a) पैसा
b) कुरता
c) किताब
d) जलेबी
उत्तर – b) कुरता
कहानी का अंत कैसे होता है?
a) घीसा जीवित रहता है
b) घीसा की मृत्यु
c) शिक्षिका लौटती नहीं
d) दंगा होता है
उत्तर – b) घीसा की मृत्यु
घीसा के शरीर का वर्णन कैसा है?
a) मोटा
b) दुर्बल और मलिन
c) सुंदर
d) लंबा
उत्तर – b) दुर्बल और मलिन
शिक्षिका गाँव की स्त्रियों को कैसे देखती है?
a) अमीर
b) विभिन्न वेशभूषा वाली
c) आलसी
d) विद्वान
उत्तर – b) विभिन्न वेशभूषा वाली
घीसा की आँखें कैसी वर्णित हैं?
a) नीली
b) पीली और सतेज
c) काली
d) लाल
उत्तर – b) पीली और सतेज
एक वाक्य वाले प्रश्नोत्तर
- लेखिका अपनी छुट्टियाँ बिताने के लिए किस स्थान पर जाना पसंद करती थीं?
उत्तर – लेखिका अपनी छुट्टियाँ गंगा पार झूसी के खंडहरों और उसके आस-पास के गाँवों में बिताना पसंद करती थीं।
- पीपल के पेड़ के नीचे अपनी पाठशाला शुरू होने पर लेखिका को कैसा महसूस हुआ?
उत्तर – पीपल के पेड़ के नीचे अपनी पाठशाला शुरू होने पर लेखिका बड़ी कठिनाई से एक गुरु के लिए उपयुक्त गंभीरता का भार वहन कर सकीं।
- घीसा की माँ अपना जीवनयापन कैसे करती थी?
उत्तर – घीसा की माँ दूसरों के घरों में लीपने-पोतने का काम करके अपना जीवनयापन करती थी।
- घीसा की कक्षा में क्या विशेषता थी जो उसे अन्य छात्रों से अलग करती थी?
उत्तर – घीसा की आँखों में एक विशेष जिज्ञासा भरी थी और वे घड़ी की तरह निरंतर लेखिका के मुख पर टिकी रहती थीं।
- घीसा के पिता की मृत्यु किस बीमारी से हुई थी?
उत्तर – घीसा के पिता की मृत्यु हैजे की बीमारी से हुई थी।
- गाँव वाले घीसा की माँ और उसके जन्म के बारे में क्या अफवाह फैलाते थे?
उत्तर – गाँव वाले यह अफवाह फैलाते थे कि घीसा का जन्म उसके पिता की मृत्यु के छः महीने के बजाय एक साल बाद हुआ था।
- इतवार के दिन लेखिका के आने से पहले घीसा क्या तैयारी करता था?
उत्तर – इतवार को लेखिका के आने से पहले घीसा पीपल के नीचे की जगह को झाड़-बुहार कर, शीतलपाटी बिछाकर और दवात-कलम निकालकर उनके स्वागत के लिए तैयार रहता था।
- सफाई का महत्व समझाने के बाद अगले इतवार घीसा देर से क्यों आया?
उत्तर – अगले इतवार घीसा देर से इसलिए आया क्योंकि वह अपनी माँ द्वारा लाए गए साबुन से अपना एकमात्र पुराना कुरता और अँगोछा धो रहा था।
- लेखिका द्वारा लाई गईं जलेबियाँ घीसा ने किस-किस को खिलाईं?
उत्तर – घीसा ने अपने हिस्से की दो जलेबियाँ अपनी माँ के लिए रखीं, एक अपने पाले हुए कुत्ते के पिल्ले को खिलाई और दो स्वयं खा लीं।
- शहर में दंगे की खबर सुनकर घीसा बुखार में तपते हुए भी लेखिका के पास क्यों भागा आया?
उत्तर – शहर में दंगे की खबर सुनकर घीसा बुखार में तपते हुए भी लेखिका को उस पार जाने से रोकने के लिए भागा आया क्योंकि उसे उनकी सुरक्षा की चिंता थी।
- लेखिका ने घीसा का हठ कैसे शांत किया?
उत्तर – लेखिका ने यह कहकर घीसा का हठ शांत किया कि उनके न जाने से शहर में दूर-दूर से आए उनके अन्य विद्यार्थी अकेले घबरा जाएँगे।
- लेखिका को अपनी अंतिम विदाई के दिन घीसा तुरंत क्यों नहीं मिला?
उत्तर – अपनी अंतिम विदाई के दिन घीसा लेखिका को तुरंत इसलिए नहीं मिला क्योंकि वह उनके लिए गुरु दक्षिणा का प्रबंध करने गया था।
- गुरु दक्षिणा में घीसा अपनी गुरु साहिबा के लिए क्या लेकर आया?
उत्तर – गुरु दक्षिणा में घीसा अपनी गुरु साहिबा के लिए एक बड़ा तरबूज लेकर आया था।
- घीसा ने गुरु दक्षिणा के लिए तरबूज कैसे प्राप्त किया?
उत्तर – घीसा ने तरबूज प्राप्त करने के लिए खेत वाले के लड़के को अपना एकमात्र नया कुरता दे दिया था।
- घीसा द्वारा दी गई दक्षिणा लेखिका को अमूल्य क्यों लगी?
उत्तर – घीसा द्वारा दी गई दक्षिणा लेखिका को अमूल्य इसलिए लगी क्योंकि उस गरीब बालक ने अपना सर्वस्व देकर जो त्याग और स्नेह प्रकट किया, उसके सामने संसार के सारे आदान-प्रदान फीके थे।
- घीसा का शारीरिक गठन कैसा था?
उत्तर – घीसा पक्के रंग का, सुडौल गठन वाला, उभरी हड्डियों की गर्दन और पतली बाँहों वाला एक दुबला-पतला बालक था।
- घीसा के पिता ने अपने गाँव वालों को किस बात से निराश कर दिया था?
उत्तर – घीसा के पिता ने दूसरे गाँव से एक युवती से विवाह करके अपने गाँव की सजातीय सुंदर बालिकाओं और उनके माता-पिता को निराश कर दिया था।
- घीसा अपना पाठ याद रखने और अपनी चीजों को सँभालने में कैसा था?
उत्तर – घीसा पाठ को सबसे पहले समझने, उसे याद रखने, पुस्तक पर एक भी धब्बा न लगाने और स्लेट को चमचमाती रखने में सबसे चतुर था।
- लेखिका के कई महीनों बाद गाँव लौटने पर उन्हें घीसा के बारे में क्या पता चला?
उत्तर – लेखिका के कई महीनों बाद गाँव लौटने पर उन्हें पता चला कि घीसा की मृत्यु हो चुकी है।
- घीसा की कहानी लेखिका की स्मृति में किस प्रकार अंकित है?
उत्तर – घीसा की कहानी एक छोटी लहर के समान है जो लेखिका के जीवन-तट को अपनी सारी आर्द्रता से छूकर अनंत जलराशि में विलीन हो गई।
40-50 शब्दों वाले प्रश्न और उत्तर
- घीसा की माँ की स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर – घीसा की माँ एक विधवा है जो दूसरों के घरों में लीपने-पोतने की मजदूरी करती है। वह गरीब, उपेक्षित और गर्वीली है, जो पति की मृत्यु के बाद बिना किनारे की धोती पहनकर विधवा का स्वाँग रचती है। समाज की अफवाहों से ग्रस्त होकर भी वह अपने बेटे का एकमात्र सहारा बनी रहती है।
- शिक्षिका को झूसी के गाँवों का आकर्षण क्यों है?
उत्तर – शिक्षिका को झूसी के खंडहरों और गाँवों का अकारण आकर्षण है, जिसे लोग जन्म-जन्मांतर का संबंध कहकर व्यंग्य करते हैं। वह अपना अवकाश समय वहाँ गंगा तट पर बिताती है, गरीब बच्चों को पढ़ाती है और स्थानीय लोगों की सादगी से जुड़ाव महसूस करती है, जो उसके जीवन को अर्थ प्रदान करता
- घीसा के नाम का रहस्य क्या है?
घीसा का नाम उसके बचपन में घिसट-घिसट कर चलने से पड़ा। पिता की मृत्यु के बाद माँ उसे बंदरिया के बच्चे की तरह चिपकाए रखती थी। काम पर जाते समय वह पेट के बल घिसटता, जिससे गाँव वाले उसे ‘घीसा’ कहने लगे, जो उसकी गरीबी और उपेक्षा को दर्शाता है।
- शिक्षिका बच्चों को सफाई का महत्व क्यों सिखाती है?
शिक्षिका बच्चों को सफाई का महत्व समझाती है ताकि वे स्वच्छ रहें और स्वास्थ्य सुधारें। लेकिन गरीबी के कारण वे इसे अमल नहीं कर पाते। घीसा साबुन न मिलने से देर से आता है, जो शिक्षिका को गरीबी की वास्तविकता का एहसास कराता है और ममता जगाता है।
- जलेबियाँ बाँटने की घटना में घीसा का व्यवहार कैसा है?
उत्तर – जलेबियाँ बाँटने पर घीसा अपनी हिस्से की कुछ माँ के लिए छिपाता है, एक पिल्ले को देता है और दो खुद खाता है। जब पूछा जाता है तो वह पिल्ले को अधिक देने की माँग करता है, जो उसकी निस्वार्थता, ममता और गरीबी में भी साझेदारी की भावना को दिखाता है।
- दंगे के समय घीसा की चिंता क्या दर्शाती है?
उत्तर – दंगे के समय ज्वर से पीड़ित घीसा शिक्षिका की सुरक्षा के लिए डगमगाते पैरों से आता है और उन्हें पार न जाने देता है। यह उसकी गुरुभक्ति, निडरता और ममता को दिखाता है, जो बीमारी में भी शिक्षिका को माँ के समान मानकर रक्षा करना चाहता है।
- तरबूज भेंट करने की घटना का महत्व क्या है?
उत्तर – तरबूज भेंट में घीसा अपना कुरता देकर इसे लाता है, जो उसकी गुरु के प्रति समर्पण और स्नेह को दर्शाता है। यह दक्षिणा शिक्षिका को भावुक करती है, जो गरीबी में भी घीसा की शुद्ध भावना को जीवन का खरा सोना मानती है।
- घीसा के पिता के बारे में गाँव वाले क्या कहते हैं?
उत्तर – घीसा के पिता अभिमानी और भला आदमी था, जो डलिया बुनना छोड़ बढ़ईगिरी सीखता है और दूसरे गाँव से वधू लाता है। हैजे से मृत्यु के बाद समाज क्षोभित होता है और घीसा के जन्म पर अफवाहें फैलाता है, जो सामाजिक ईर्ष्या को उजागर करता है।
- शिक्षिका की अनुपस्थिति में घीसा क्या करता है?
उत्तर – शिक्षिका की अनुपस्थिति में घीसा पीपल की छाया साफ करता, झाड़ू लगाता और दिन भर वहाँ बैठकर पढ़ाई दोहराता है। गर्मी की लू में भी वह तपोव्रती की तरह समर्पित रहता है, जो उसकी जिज्ञासा और गुरु के प्रति कर्तव्यनिष्ठा को दिखाता है।
- कहानी का अंत घीसा की स्मृति कैसे छोड़ता है?
उत्तर – कहानी के अंत में घीसा की मृत्यु हो जाती है, जिसे शिक्षिका दार्शनिक भाव से याद करती है। वह अन्य मलिन मुखों में उसकी छाया ढूँढती है, जो गरीबी, उपेक्षा और छोटे जीवन के दुखद अंत पर चिंतन कराती है, साथ ही ममता की गहराई दिखाती है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
- घीसा के चरित्र की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं और वे कहानी में कैसे प्रकट होती हैं?
उत्तर – घीसा गरीब, दुर्बल लेकिन जिज्ञासु, समर्पित और गुरुभक्त है। वह पढ़ाई में चतुर है, स्लेट चमकाता, पाठ दोहराता और सफाई रखता है। दंगे में बीमार होकर भी शिक्षिका की रक्षा करता है, जलेबियाँ माँ-पिल्ले से बाँटता है और तरबूज दक्षिणा देता है। ये विशेषताएँ उसकी निस्वार्थ ममता, दृढ़ता और गरीबी में भी शुद्ध भावना को दिखाती हैं, जो समाज की उपेक्षा के बावजूद चमकती हैं।
- शिक्षिका और घीसा के संबंध को कहानी कैसे दर्शाती है?
उत्तर – शिक्षिका और घीसा का संबंध गुरु-शिष्य से आगे ममता और करुणा का है। शिक्षिका घीसा की गरीबी देख माँगने की सोचती है, लेकिन उसकी मातृभक्ति जान रुक जाती है। घीसा शिक्षिका को ‘गुरु साहब’ कह दौड़ता, दक्षिणा देता और रक्षा करता है। यह संबंध गरीबी की कठोरता में मानवीय स्नेह को उजागर करता है, जहाँ शिक्षिका उसकी मृत्यु पर दुखी होकर स्मृति में जीवित रखती है।
- कहानी में सामाजिक उपेक्षा और गरीबी का चित्रण कैसे किया गया है?
उत्तर – कहानी गरीबी को घीसा के दुर्बल शरीर, फटे कपड़ों और साबुन न मिलने से दर्शाती है। समाज घीसा को ‘कोरी’ कह दूर रखता, उसके जन्म पर अफवाहें फैलाता और पिता की मृत्यु पर क्षोभ करता है। गाँव वाले स्त्रियाँ भाव-भंगिमा से उसकी अयोग्यता बताती हैं। यह चित्रण सामाजिक अन्याय, ईर्ष्या और उपेक्षा को दिखाता है, जो घीसा जैसे बालक के जीवन को दुर्वह बनाता है।
- गंगा तट और गाँव का वर्णन कहानी की थीम को कैसे मजबूत करता है?
उत्तर – गंगा तट खंडहरों, गरीब घरों और स्त्रियों के जल भरने से सादगी और कठोर जीवन को दर्शाता है। पीपल की छाया में पढ़ाई प्रकृति से जुड़ाव दिखाती है। ग्वाल, गड़रिये और मजदूरों का वर्णन ग्रामीण जीवन की मलिनता को उजागर करता है, जो गरीबी, उपेक्षा और ममता की थीम को मजबूत करता है, साथ ही शिक्षिका के आकर्षण को रहस्यमय बनाता है।
- कहानी का अंत शिक्षिका के भावनात्मक विकास को कैसे प्रभावित करता है?
उत्तर – अंत में घीसा की मृत्यु शिक्षिका को दुखी करती है, लेकिन वह दार्शनिक भाव से छोटे जीवन के उपेक्षित अंत पर चिंतन करती है। वह अन्य मलिन मुखों में उसकी छाया ढूँढती है, जो उसकी ममता को गहरा बनाता है। यह विकास गरीबी की वास्तविकता से सामना कराकर उसे अधिक संवेदनशील बनाता है, जहाँ वह स्मृति में घीसा को जीवित रखती है।

