जयशंकर प्रसाद – जीवन परिचय
छायावाद के जन्मदाता एवं आधार स्तंभ श्री जयशंकर प्रसाद जी का जन्म संवत् 1946 अर्थात् सन् 1889 ईसवीं को काशी में हुआ था। उनमें काव्य रचना की प्रतिभा जन्मजात थी। वे बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे जिनका प्रमाण विविध- विधाओं में सृजित उनकी साहित्यिक रचनाएँ हैं। वे हिंदी के प्रसिद्ध गीतकार भी थे। उनकी रचनाओं का मुख्य विषय प्रेम एवं आनंद रहा है, साथ ही प्रकृति चित्रण उनकी रचनाओं की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। तत्सम शब्दों की बहुलता उनकी भाषा में देखी जा सकती है। प्रतीकात्मकता तथा बिंब विधान उनकी शैली की विशिष्टता है। छोटे-छोटे वाक्यों में गंभीर भाव भरना, उनमें संगीत और लय का विधान करना उनकी शैली को सरस, स्वाभाविक, प्रभावपूर्ण, ओजमयी और चुटीली बना है।
‘कामायनी’, ‘आँसू’, ‘झरना’, ‘लहर’, ‘प्रेम-पथिक’, ‘कानन कुसुम’ उनके प्रमुख काव्य हैं। उन्होंने ‘चंद्रगुप्त’, ‘स्कंदगुप्त’ और ‘अजातशत्रु’ नाटक लिखे हैं। उपयास ‘कंकाल’, ‘तितली’, ‘इरावती’ के अतिरिक्त कहानी संग्रह के रूप में ‘आँधी’, ‘प्रतिध्वनि’, ‘आकाशदीप’ और ‘देवरथ’ की भी इन्होंने रचना की है।
महाकाव्य कामायनी के कारण इन्हें बहुत प्रसिद्धि मिली। हिंदी साहित्य जगत इनका सदैव ऋणी रहेगा।
पाठ परिचय – पुरस्कार
जयशंकर प्रसाद की प्रसिद्ध ऐतिहासिक कहानी ‘पुरस्कार’ उत्कट प्रेम को अभिव्यक्त करने वाली एक सशक्त रचना है। इसमें नायिका मधुलिका के माध्यम से नारी के प्रेम जनित अंतद्वंद, कर्तव्य और भावनाओं के टकराव और उत्कष्ट राष्ट्र – प्रेम को व्यक्त किया गया है। मधुलिका जहाँ एक ओर प्रेम की पूर्णता के लिए अपने प्रियतम अरुण के साथ अपने जीवन का भी बलिदान देने को प्रस्तुत हो जाती है वहीं दूसरी ओर राष्ट्र के प्रति अपने उत्कट प्रेम को वैयक्तिक प्रेम पर न्यौछावर कर देती है। यह भावना पाठक के मन पर अमिट प्रभाव छोड़ जाती है और पाठ को बार-बार पढ़ने व संदर्भ को समझने की अपेक्षा करती है।
पुरस्कार
आर्द्रा नक्षत्र; आकाश में काले-काले बादलों की घुमड़, जिसमें देव-दुंदुभि का गंभीर घोष। प्राची के एक निरभ्र कोने से स्वर्ण पुरुष झाँकने लगा था, दिखने लगी महाराज की सवारी। शैलमाला के अंचल में समतल उर्वरा भूमि से सोंधी बास उठ रही थी। नगर-तोरण से जयघोष हुआ, भीड़ में गजराज का चामरधारी शुण्ड उन्नत दिखाई पड़ा। हर्ष और उत्साह का समुद्र हिलोर भरता हुआ आगे बढ़ने लगा।
प्रभात की हेम किरणों से अनुरंजित नन्हीं नन्हीं बूँदों का एक झोंका स्वर्ण मल्लिका के समान बरस पड़ा। मंगल सूचना से जनता ने हर्ष ध्वनि की।
रथों, हाथियों और अश्वारोहियों की पंक्ति थी। दर्शकों की भीड़ भी कम न थी। गजराज बैठ गया, सीढ़ियों से महाराज उतरे। सौभाग्यवती और कुमारी सुंदरियों के दो दल, आम्रपल्लवों से सुशोभित मंगल कलश और फूल, कुंकुम तथा खीलों से भरे थाल लिए, मधुर गान करते हुए आगे बढ़े।
महाराज के मुख पर मधुर मुस्कान थी। पुरोहित वर्ग ने स्वस्त्ययन किया। स्वर्ण रंजित हल की मूठ पकड़कर महाराज ने जुते हुए सुंदर पुष्ट बैलों को चलने का संकेत किया। बाजे बजने लगे। किशोरी कुमारियों ने खीलों और फूलों की वर्षा की।
कोशल का यह उत्सव प्रसिद्ध था। एक दिन के लिए महाराज को कृषक बनना पड़ता। उस दिन इंद्र पूजन की धूम-धाम होती; गोठ होती। नगर निवासी उस पहाड़ी भूमि में आनंद मनाते। प्रतिवर्ष कृषि का यह महोत्सव उत्साह से संपन्न होता; दूसरे राज्यों से भी युवक राजकुमार इस उत्सव में बड़े चाव से आकर योग देते।
मगध का एक राजकुमार अरुण अपने रथ पर बैठा बड़े कुतूहल से यह दृश्य देख रहा था। बीजों का एक थाल लिए कुमारी मधुलिका महाराज के साथ थी। बीज बोते हुए महाराज जब हाथ बढ़ाते, तब मधुलिका उनके सामने थाल कर देती। यह खेत मधुलिका का था, जो इस साल महाराज की खेती के लिए चुना गया था; इसलिए बीज देने का सम्मान मधुलिका को ही मिला। वह कुमारी थी, सुंदरी थी। कौशेय वसन उसके शरीर पर इधर-उधर लहराता हुआ स्वयं शोभित हो रहा था। वह कभी उसे सँभालती और कभी अपनी रूखी अलकों को कृषक बालिका के शुभ्र भाल पर श्रमकणों की भी कमी न थी, वे सब बरौनियों में गुँथे जा रहे थे किन्तु महाराज को बीज देने में उसने शिथिलता नहीं की। सब लोग महाराज का हल चलाना देख रहे थे- विस्मय से कुतुहल से। और अरुण देख रहा था कृषक कुमारी मधुलिका को। आह ! कितना भोला सौंदर्य! कितनी सरल चितवन !
उत्सव का प्रधान कृत्य समाप्त हो गया। महाराज ने मधुलिका के खेत को पुरस्कृत किया, थाल में कुछ स्वर्णमुद्राएँ। वह राजकीय अनुग्रह था। मधुलिका ने थाली सिर से लगा ली; किन्तु साथ ही उन स्वर्णमुद्राओं को महाराज पर न्यौछावर करके बिखेर दिया। मधुलिका की उस समय की ऊर्जस्वित मूर्ति लोग आश्चर्य से देखने लगे ! महाराज की भृकुटी भी जरा चढ़ी थी कि मधुलिका ने सविनय कहा- “देव ! यह मेरे पितृ पितामहों की भूमि है। इसे बेचना अपराध है इसलिए मूल्य स्वीकार करना मेरी सामर्थ्य के बाहर है।” महाराज के बोलने के पहले ही वृद्ध मंत्री ने तीखे स्वर से कहा- “अबोध ! क्या बक रही है? राजकीय अनुग्रह का तिरस्कार ! तेरी भूमि से चौगुना मूल्य है; फिर कोशल का तो यह सुनिश्चित राष्ट्रीय नियम है। तू आज से राजकीय रक्षण पाने की अधिकारिणी हुई, इस धन से अपने को सुखी बना।”
“राजकीय रक्षण की अधिकारिणी तो सारी प्रजा है मंत्रिवर! महाराज को भूमि समर्पण करने में तो मेरा कोई विरोध न था और न है; किन्तु मूल्य स्वीकार करना असम्भव है”- मधुलिका उत्तेजित हो उठी थी।
महाराज के संकेत करने पर मंत्री ने कहा ” देव! वाराणसी युद्ध के अन्यतम वीर सिंहमित्र की एक मात्र कन्या है।” महाराज चौंक उठे – “सिंह मित्र की कन्या! जिसने मगध के सामने कोशल की लाज रख ली थी, उसी वीर की मधुलिका कन्या है?”
“हाँ, देव!” मंत्री ने सविनय कहा।
“इस उत्सव के परंपरागत नियम क्या हैं, मंत्रिवर?”- महाराज ने पूछा।
“देव ! नियम तो बहुत साधारण हैं। किसी भी अच्छी भूमि को इस उत्सव के लिए चुनकर नियमानुसार पुरस्कार स्वरूप उसका मूल्य दे दिया जाता है। वह भी अत्यंत अनुग्रहपूर्वक अर्थात् भू-संपत्ति का चौगुना मूल्य उसे मिलता है। उस खेती को वही व्यक्ति वर्ष भर देखता है। वह राजा का खेत कहा जाता है।”
महाराज को विचार संघर्ष से विश्राम की अत्यंत आवश्यकता थी। महाराज चुप रहे। जयघोष के साथ सभा विसर्जित हुई। सब अपने-अपने शिविरों में चले गए, किन्तु मधुलिका को उत्सव में फिर किसी ने न देखा। वह अपने खेत की सीमा पर विशाल मधूक-वृक्ष के चिकने हरे पत्तों की छाया में अनमनी चुपचाप बैठी रही।
रात्रि का उत्सव अब विश्राम ले रहा था। राजकुमार अरुण उसमें सम्मिलित नहीं हुआ। वह अपने विश्राम भवन में जागरण कर रहा था, आँखों में नींद न थी। प्राची में जैसी गुलाली खिल रही थी, वही रंग उसकी आँखों में था। सामने देखा तो मुँडेर पर कपोती एक पैर पर खड़ी पंख फैलाए अँगड़ाई ले रही थी। अरुण उठ खड़ा हुआ। द्वार पर सुसज्जित अश्व था। वह देखते-देखते नगरतोरण पर जा पहुँचा। रक्षक गण ऊँघ रहे थे, अश्व के पैरों के शब्द से चौंक उठे।
युवक कुमार तीर सा निकल गया। सिंधु देश का तुरंग प्रभात के पवन से पुलकित हो रहा था। घूमता- घूमता अरुण उसी मधूक वृक्ष के नीचे पहुँचा, जहाँ मधुलिका अपने हाथ पर सिर धरे हुए खिन्न निद्रा का सुख ले रही थी।
अरुण ने देखा, एक छिन्न माधवी लता वृक्ष की शाखा से च्युत होकर पड़ी है। सुमन मुकुलित, भ्रमर निस्पंद थे। अरुण ने अपने अश्व को मौन रहने का संकेत किया, उस सुषमा को देखने के लिए; परंतु कोकिल बोल उठी। जैसे उसने अरुण से प्रश्न किया- छि ! कुमारी के सोए हुए सौंदर्य पर दृष्टिपात करने वाले धृष्ट, तुम कौन? मध् गुलिका की आँखे खुल पड़ीं। उसने देखा, एक अपरिचित युवक वह संकोच से उठ बैठी। “भद्रे ! तुम्हीं न कल के उत्सव की संचालिका रही हो?”
“उत्सव ! हाँ, उत्सव ही तो था।”
“कल उस सम्मान …”
“क्यों आपको कल का स्वप्न सता रहा है? भद्र! आप क्या मुझे इस अवस्था में संतुष्ट न रहने देंगे?”
“मेरा हृदय तुम्हारी उस छवि का भक्त बन गया है, देवि।”
“मेरे उस अभिनय का मेरी विडंबना का आह! मनुष्य कितना निर्दय है, अपरिचित! क्षमा करो, जाओ अपने मार्ग।”
“सरलता की देवी ! मैं मगध का राजकुमार, तुम्हारे अनुग्रह का प्रार्थी हूँ, मेरे हृदय की भावना अवगुंठन में रहना नहीं जानती। उसे अपनी।”
“राजकुमार ! मैं कृषक बालिका हूँ। आप नंदनबिहारी और मैं पृथ्वी पर परिश्रम करके जीनेवाली। आज मेरी स्नेह की भूमि पर से मेरा अधिकार छीन लिया गया है। मैं दुःख से विकल हूँ, मेरा उपहास न करो।”
“मै कौशल नरेश से तुम्हारी भूमि तुम्हें दिलवा दूँगा।”
“नहीं, वह कोशल का राष्ट्रीय नियम है। मैं उसे बदलना नहीं चाहती, चाहे उससे मुझे कितना ही दुःख हो।”
“तब तुम्हारा रहस्य क्या है?”
“यह रहस्य मानव हृदय का है, मेरा नहीं। राजकुमार, नियमों से यदि मानव हृदय बाध्य होता, तो आज मगध के राजकुमार का हृदय किसी राजकुमारी की ओर न खिंचकर एक कृषक बालिका का अपमान करने न आता।” मधुलिका उठ खड़ी हुई।
चोट खाकर राजकुमार लौट पड़ा। किशोर किरणों में उसका रत्नकिरीट चमक उठा। अश्व वेग से चला जा रहा था और मधुलिका निष्ठुर प्रहार करके क्या स्वयं आहत न हुई? उसके हृदय में टीस सी होने लगी। वह सजल नेत्रों से उड़ती हुई धूल देखने लगी।
मधुलिका ने राजा का प्रतिपादन, अनुग्रह नहीं लिया। वह दूसरे खेतों में काम करती और चौथे पहर रूखी-सूखी खाकर पड़ी रहती। मधूक वृक्ष के नीचे छोटी-सी पर्णकुटीर थी। सूखे डंठलों से उसकी दीवार बनी थी। मधुलिका का वही आश्रम था। कठोर परिश्रम से जो रूखा-सूखा अन्न मिलता, वही उसकी साँसों को बढ़ाने के लिए पर्याप्त था।
दुबली होने पर भी उसके अंग पर तपस्या की कांति थी। आसपास के कृषक उसका आदर करते। वह एक आदर्श बालिका थी। दिन, सप्ताह, महीने और वर्ष बीतने लगे।
शीतकाल की रजनी, मेघों से भरा आकाश, जिसमें बिजली की दौड़-धूप। मधुलिका का छाजन टपक रहा था। ओढ़ने की कमी थी। वह ठिठुरकर एक कोने में बैठी थी। मधुलिका अपने अभाव को आज बढ़ाकर सोच रही थी। जीवन से सामंजस्य बनाए रखनेवाले उपकरण तो अपनी सीमा निर्धारित रखते हैं; परंतु उनकी आवश्यकता और कल्पना भावना के साथ बढ़ती घटती रहती है। आज बहुत दिनों बाद उसे बीती हुई बात स्मरण हुई-दो, नहीं – नहीं तीन वर्ष हुए होंगे, इसी मधूक के नीचे प्रभात में, तरुण राजकुमार ने क्या कहा था?
वह अपने हृदय से पूछने लगी कहा था? दुखदग्ध हृदय उन स्वप्न सी – उन चाटुकारी शब्दों को सुनने के लिए उत्सुक-सी वह पूछने लगी- क्या बातों को स्मरण रख सकता था ! और स्मरण ही होता, तो भी कष्टों की इस काली निशा में वह कहने का साहस करता? हाय री विडंबना !
आज मधुलिका उस बीते हुए क्षण को लौटा लेने के लिए विकल थी। दारिद्रय की ठोकरों ने उसे व्यथित और अधीर कर दिया है। मगध की प्रासाद- माला के वैभव का काल्पनिक चित्र – उन सूखे डंठलों के रंध्रों से, नभ में बिजली के आलोक में नाचता हुआ दिखाई देने लगा। खिलाड़ी शिशु जैसे श्रावण की संध्या में जुगनू को पकड़ने के लिए हाथ लपकता है, वैसे ही मधुलिका मन ही मन कह रही थी। अभी वह निकल गया। “वर्षा ने भीषण रूप धारण किया। गड़बड़ाहट बढ़ने लगी, ओले पड़ने की संभावना मधुलिका अपनी जर्जर झोपड़ी के लिए काँप उठी। सहसा बाहर कुछ शब्द हुआ-
“कौन है यहाँ? पथिक को आश्रय चाहिए।”
मधुलिका ने डंठलों का कपाट खोल दिया। बिजली चमक उठी। उसने देखा, एक पुरुष घोड़े की डोर पकड़े खड़ा है। सहसा वह चिल्ला उठी – ‘राजकुमार !’
‘मधुलिका?’ – आश्चर्य से युवक ने कहा।
एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। मधुलिका अपनी कल्पना को सहसा प्रत्यक्ष देखकर चकित हो गई- “इतने दिनों के बाद आज फिर!”
अरुण ने कहा – “कितना समझाया मैंने – परंतु …..
मधुलिका अपनी दयनीय अवस्था पर संकेत करने देना नहीं चाहती थी। उसने कहा- “और आज आपकी यह क्या दशा है?”
सिर झुकाकर अरुण ने कहा- “मै, मगध का विद्रोही, निर्वासित, कोशल में जीविका खोजने आया हूँ।”
मधुलिका उस अंधकार में हँस पड़ी। मगध के विद्रोही राजकुमार का स्वागत करे एक अनाथिनी कृषक बालिका, यह भी एक विडंबना है, तो भी मैं स्वागत के लिए प्रस्तुत हूँ।”
शीतकाल की निस्तब्ध रजनी, कुहरे से चाँदनी, हाड़ कंपा देने वाला समीर, तो भी अरुण और मधुलिका पहाड़ी गहवर के द्वार पर वटवृक्ष के नीचे बैठे हुए बातें कर रहे हैं। मधुलिका की वाणी में उत्साह था; किन्तु अरुण जैसे अत्यंत सावधान होकर बोलता।
मधुलिका ने पूछा – “जब तुम इतनी विपन्न अवस्था में हो तो फिर इतने सैनिकों को साथ रखने की क्या आवश्यकता है?”
“मधुलिका ! बाहुबल ही तो वीरों की आजीविका है। ये मेरे जीवन-मरण के साथी हैं, भला मैं इन्हें कैसे छोड़ देता? और करता ही क्या?”
क्यों? हम लोग परिश्रम से कमाते और खाते हैं तो तुम।”
“भूल न करो मैं अपने बाहुबल पर भरोसा करता हूँ। नए राज्य की स्थापना कर सकता हूँ, निराश क्यों हो जाऊँ? अरुण के शब्दों में कंपन था, वह जैसे कुछ कहना चाहता था, पर कह न सकता था।
“नवीन राज्य! ओहो! तुम्हारा उत्साह तो कम नहीं। भला कैसे? कोई ढंग बताओ तो मैं भी कल्पना का आनंद ले लूँ।
कल्पना का आनंद नहीं मधुलिका, मैं तुम्हें राजारानी के समान सिंहासन पर बिठाऊँगा ! तुम अपने छिने हुए खेत की चिंता करके भयतीत हो।”
एक क्षण में सरल मधुलिका के मन में प्रमाद का अंधड़ बहने लगा, द्वंद्व मच गया। उसने सहसा कहा- “आह मैं सचमुच आज तक तुम्हारी प्रतीक्षा करती थी, राजकुमार !”
अरुण ढिठाई से उसके हाथों को दबाकर बोला- “तो मेरा भ्रम था तुम सचमुच मुझे प्यार करती हो?”
युवती का वक्षस्थल फूल उठा, वह हाँ भी नहीं कह सकी, ना भी नहीं। अरुण ने उसकी अवस्था का अनुभव कर लिया। कुशल मनुष्य के समान उसके अवसर को हाथ से न जाने दिया। तुरंत बोल उठा- तुम्हारी इच्छा हो तो प्राणों से पण लगाकर मैं तुम्हें इस कोशल सिंहासन पर बिठा दूँ। मधुलिके। अरुण के खड्ग का आतंक देखोगी?” “मधुलिका एक बार काँप उठी। वह कहना चाहती थी- नहीं; किन्तु उसके मुँह से निकला – “क्या?”
“सत्य मधुलिका, कोशल नरेश तभी से तुम्हारे लिए चिंतित हैं। यह मैं जानता हूँ, तुम्हारी साधारण – सी प्रार्थना वे अस्वीकार न करेंगे और मुझे यह भी विदित है कि कोशल के सेनापति अधिकांश सैनिकों के साथ पहाड़ी दस्युओं का दमन करने के लिए बहुत दूर चले गए हैं।”
मधुलिका की आँखों के आगे बिजलियाँ हँसने लगीं। दारुण भावना से उसका मस्तक झंकृत हो उठा। अरुण ने कहा, “तुम बोलती नहीं हो?”
“जो कहोगे वह करुँगी।” मंत्रमुग्ध – सी मधुलिका ने कहा।
स्वर्णमंच पर कोशल नरेश अर्द्धनिद्रित अवस्था में आँखें मुकुलित किए हैं। एक चामरधारिणी युवती पीछे खड़ी अपनी कलाई बड़ी कुशलता से घुमा रही है। चामर के शुभ्र आंदोलन उस कोष्ठ में धीरे-धीरे संचालित हो रहे हैं। तांबूल वाहिनी प्रतिमा के समान दूर खड़ी है।
प्रतिहारी ने आकर कहा- “जय हो देव! एक स्त्री कुछ प्रार्थना करने आई है।”
आँखें खोलते हुए महाराज ने कहा- “स्त्री ! प्रार्थना करने आई है? आने दो।”
प्रतिहारी के साथ मधुलिका आई। उसने प्रणाम किया। महाराज ने स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखा और कहा –
‘तुम्हें कहीं देखा है?’
“तीन बरस हुए देव! मेरी भूमि खेती के लिए ली गई थी।”
“ओह! तो तुमने इतने दिन कष्ट में बिताए, आज उसका मूल्य माँगने आई हो, क्यों?
अच्छा-अच्छा तुम्हें मिलेगा। प्रतिहारी !”
“नहीं महाराज, मुझे मूल्य नहीं चाहिए।”
“मूर्ख ! फिर क्या चाहिए?”
“उतनी ही भूमि, दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की जंगली भूमि, वहीं मैं अपनी खेती करुँगी। मुझे एक सहायक मिल गया है। वह मनुष्यों से मेरी सहायता करेगा, भूमि को समतल भी तो बनाना होगा।”
महाराज ने कहा- “कृषक बालिके! वह बड़ी ऊबड़-खाबड़ भूमि है। तिस पर वह दुर्ग के समीप एक सैनिक महत्त्व रखती है।”
“तो फिर निराश लौट जाऊँ?”
“सिंहमित्र की कन्या ! मैं क्या करूँ? तुम्हारी यह प्रार्थना
“देव ! जैसी आज्ञा हो !”
“जाओ, तुम जय हो देव!
श्रवजीवियों को उसमें लगाओ। मैं अमात्य को आज्ञापत्र देने का आदेश करता हूँ।”
कहकर प्रणाम करती हुई मधुलिका राज मंदिर के बाहर आई।
दुर्ग के दक्षिण, भयावने नाले के तट पर, घना जंगल है। आज मनुष्यों के पद संचार से शून्यता भंग हो रही थी। अरुण के छिपे हुए मनुष्य स्वतंत्रता से इधर-उधर घूमते थे। झाड़ियों को काटकर पथ बन रहा था। नगर दूर था, फिर उधर यों ही कोई नहीं आता था। फिर अब तो महाराज की आज्ञा से वहाँ मधुलिका का अच्छा-सा खेत बन रहा था। तब इधर की किसको चिंता होती?
एक घने कुंज में अरुण और मधुलिका एक-दूसरे को हर्षित नेत्रों से देख रहे थे। संध्या हो चली थी। उस निविड़ वन में उन नवागत मनुष्यों को देखकर पक्षीगण अपने नीड़ को लौटते हुए अधिक कोलाहल कर रहे थे।
प्रसन्नता से अरुण की आँखें चमक उठीं। सूर्य की अंतिम किरणें झुरमुट में घुसकर मधुलिका के कपोलों से खेलने लगीं। अरुण ने कहा- “चार प्रहर और विश्राम करो, प्रभात में ही इस जीर्ण कलेवर कोशल राष्ट्र की राजधानी श्रावस्ती में तुम्हारा अभिषेक होगा और मगध से निर्वासित मैं एक स्वतंत्र राष्ट्र का अधिपति बनूँगा मधुलिके!”
“भयानक! अरुण, तुम्हारा साहस देख मैं चकित हो रही हूँ। केवल सौ सैनिकों से तुम …
“रात के तीसरे प्रहर में मेरी विजय यात्रा होगी।”
“तो तुमको इस विजय पर विश्वास है?”
“अवश्य! तुम अपनी झोपड़ी में यह रात बिताओ; प्रभात से तो राज मंदिर ही तुम्हारी लीला निकेतन बनेगा।
मधुलिका प्रसन्न थी; किन्तु अरुण के लिए उसकी कल्याण कामना सशंक थी। वह कभी-कभी उद्विग्न-सी होकर बालकों के समान प्रश्न कर बैठती। अरुण उसका समाधान कर देता। सहसा कोई संकेत पाकर उसने कहा- “अच्छा अंधकार अधिक हो गया। अभी तुम्हें दूर जाना है और मुझे भी प्राणपण से इस अभियान के प्रारंभिक कार्यो को अर्धरात्रि तक पूरा कर लेना चाहिए; तब रात्रि भर के लिए विदा मधुलिके!”
मधुलिका उठ खड़ी हुई। कँटीली झाड़ियों से उलझती हुई क्रम से बढ़ने वाले अंधकार में वह झोंपड़ी की ओर चली।
पथ अंधकारमय था और मधुलिका का हृदय भी निविड़तम से घिरा था। उसका मन सहसा विचलित हो उठा, मधुरता नष्ट हो गई। जितनी सुख-कल्पना थी, वह जैसे अंधकार में विलीन होने लगी। वह भयभीत थी, पहला भय उसे अरुण के लिए उत्पन्न हुआ, यदि वह सफल न हुआ तो? फिर सहसा सोचने लगी- वह क्यों सफल हो? श्रावस्ती दुर्ग एक विदेशी के अधिकार में क्यों चला जाए? मगध कोशल का चिर शत्रु ! ओह उसकी विजय! कौशल नरेश ने क्या कहा था-सिंहमित्र की कन्या। सिंहमित्र, कोशल का रक्षक वीर, उसी की कन्या आज क्या करने जा रही है? नहीं, नहीं। ‘मधुलिका ! मधुलिका ! जैसे उसके पिता उस अंधकार में पुकार रहे थे। वह पगली की तरह चिल्ला उठी। रास्ता भूल गई।
एक रात पहर बीत चली, पर मधुलिका अपनी झोंपड़ी तक न पहुँची। वह उधेड़बुन में विक्षिप्त-सी चली जा रही थी। उसकी आँखों के सामने कभी सिंहमित्र और कभी अरुण की मूर्ति अंधकार में चित्रित होती जाती। उसे सामने आलोक दिखाई पड़ा। वह बीच पथ से खड़ी हो गई। प्रायः एक सौ उल्काधारी अश्वारोही चले आ रहे थे और आगे-आगे एक वीर अधेड़ सैनिक था। उसके बाएँ हाथ में अश्व की वल्गा और दाहिने हाथ में नग्न खड्ग। अत्यंत धीरता से वह टुकड़ी अपने पथ में चल रही थी परंतु मधुलिका बीच पथ से हिली नहीं। प्रमुख सैनिक पास आ गया; पर मधुलिका अब भी नहीं हटी। सैनिक ने अश्व रोककर कहा – “कौन? कोई उत्तर नहीं मिला। तब तक दूसरे अश्वरोही ने कड़ककर कहा “तू कौन है स्त्री?” कोशल के सेनापति को उत्तर शीघ्र दे।”
रमणी जैसे विकार ग्रस्त स्वर में चिल्ला उठी “बाँध लो मुझे मेरी हत्या करो। मैंने अपराध ही ऐसा किया है।”
सेनापति हँस पड़े, बोले- “पगली है।”
“पगली नहीं, यदि पगली होती, तो इतनी विचार वेदना क्यों होती? सेनापति, मुझे बाँध लो राजा के पास ले चलो।”
“क्या है, स्पष्ट कह!”
‘श्रावस्ती का दुर्ग एक प्रहर में दस्युओं के हस्तगत हो जाएगा। दक्षिणी नाले के पार उनका आक्रमण होगा।” सेनापति चौंक उठे। उन्होनें आश्चर्य से पूछा – “तू क्या कह रही है?” “मैं सत्य कह रही हूँ शीघ्रता करो।”
सेनापति ने अस्सी सैनिकों को नाले की ओर धीरे-धीरे बढ़ने की आज्ञा दी और स्वयं बीच अश्वारोहियों के साथ दुर्ग की ओर बढ़े। मधुलिका एक अश्वारोही के साथ बाँध दी गई।
श्रावस्ती का दुर्ग, कोशल राष्ट्र का केन्द्र, इस रात्रि में अपने विगत वैभव का स्वप्न देख रहा था। भिन्न राजवंशों ने उसके प्रांतों पर अधिकार जमा लिया है। अब वह केवल कई गाँवों का अधिपति है फिर भी उसके साथ कोशल के अतीत की स्वर्ण गाथाएँ लिपटी हैं। वही लोगों की ईर्ष्या का कारण है। जब थोड़े से अश्वारोही बड़े वेग से आते हुए दुर्ग द्वार पर रुके तब दुर्ग के प्रहरी चौंक उठे। उल्का के आलोक में उन्होनें सेनापति को पहचाना, द्वार खुला। सेनापति घोड़े की पीठ से उतरे। उन्होनें कहा – “अग्निसेन ! दुर्ग में कितने सैनिक होंगे?”
“सेनापति की जय हो! दो सौ।”
उन्हें शीघ्र ही एकत्र करो; परंतु बिना किसी शब्द के सौ को लेकर तुम शीघ्र ही चुपचाप दुर्ग के दक्षिण की ओर चलो। आलोक और शब्द न हो।
सेनापति ने मधुलिका की ओर देखा। वह खोल दी गई। उसे अपने पीछे आने का संकेत कर सेनापति राज मंदिर की ओर बढ़े। प्रतिहारी ने सेनापति को देखते ही महाराज को सावधान किया। वह अपनी सुख निद्रा के लिए प्रस्तुत हो रहे थे; किन्तु सेनापति और साथ ही मधुलिका को देखते ही चंचल हो उठे। सेनापति ने कहा “जय हो देव! इस स्त्री के कारण मुझे इस समय उपस्थित होना पड़ा है।”
महाराज ने स्थिर नेत्रों से देखकर कहा -“सिंहमित्र की कन्या फिर यहाँ क्यों? क्या तुम्हारा क्षेत्र नहीं बन रहा है? कोई बाधा? सेनापति ! मैंने दुर्ग के दक्षिणी नाले के समीप की भूमि इसे दी है। क्या उसी संबंध में तुम कहना चाहते हो?”
“देव ! किसी गुप्त शत्रु ने उसी ओर से आज की रात में दुर्ग पर अधिकार कर लेने का प्रबंध किया है और इसी स्त्री ने मुझे पथ में यह संदेश दिया है।”
राजा ने मधुलिका की ओर देखा। वह काँप उठी। घृणा और लज्जा से वह गड़ी जा रही थी। राजा ने पूछा – “मधुलिका, यह सत्य है?”
“हाँ देव !”
राजा ने सेनापति से कहा- “सैनिकों को एकत्र करके तुम चलो, मैं अभी आता हूँ।” सेनापति के चले जाने पर राजा ने कहा – ” सिंहमित्र की कन्या ! तुमने एक बार फिर कोशल का उपकार किया। यह सूचना देकर तुमने पुरस्कार का काम किया है। अच्छा, तुम यहीं ठहरो पहले उन आततायियों का प्रबंध कर लूँ।
अपने साहसिक अभियान में अरुण बंदी हुआ और दुर्ग उल्का के आलोक में अतिरंजित हो गया। भीड़ ने जयघोष किया। सबके मन में उल्लास था। श्रावस्ती दुर्ग आज एक दस्यु के हाथ में जाने से बचा आबाल वृद्ध, नारी आनंद से उन्मत्त हो उठे।
उषा के आलोक में सभा मण्डप दर्शकों से भर गया। बन्दी अरुण को देखते ही जनता ने रोष से हुंकार करते हुए कहा – “वध करो!” राजा ने सबसे सहमत होकर आज्ञा दी। “प्राणदंड!” मधुलिका बुलाई गई। वह पगली-सी आकर खड़ी हो गई। कोशल नरेश ने पूछा – “मधुलिका, तुझे जो पुरस्कार लेना हो, माँग।” वह चुप रही।
राजा ने कहा- “मेरी निज में जितनी खेती है, मैं सब तुझे देता हूँ।” मधुलिका ने एक बार बंदी अरुण की ओर देखा। उसने कहा- “मुझे कुछ न चाहिए। अरुण हँस पड़ा। राजा ने कहा- “नहीं मैं तुझे अवश्य दूँगा। माँग ले।”
“तो मुझे भी प्राणदंड मिले।” कहती हुई वह बंदी अरुण के पास जा खड़ी हुई।
सारांश
‘पुरस्कार’ जयशंकर प्रसाद की कहानी है, जो कोशल के कृषि महोत्सव के इर्द-गिर्द घूमती है। मधुलिका, एक कृषक बालिका, अपनी भूमि के लिए राजकीय अनुग्रह ठुकराती है, क्योंकि वह अपनी पितृ-भूमि को बेचना अपराध मानती है। मगध के राजकुमार अरुण उससे प्रेम करता है और कोशल पर आक्रमण की योजना बनाता है। मधुलिका, प्रेम और देशभक्ति के द्वंद्व में, अरुण की योजना को सेनापति को बताकर कोशल को बचाती है। अंत में, वह पुरस्कार के रूप में प्राणदंड माँगती है, जो उसके अपराधबोध और प्रेम की गहराई को दर्शाता है। कहानी प्रेम, कर्तव्य और बलिदान की थीम को उजागर करती है।
शब्दार्थ
निरभ्र – बादलों से रहित,
उर्वरा भूमि – उपजाऊ भूमि,
हेम – स्वर्ण
अनुरंजित – रँगा हुआ
कौशेय – गेरुवा
ऊर्जस्वित – ऊर्जा से भरी हुई
अनुग्रह – कृपा
तुरंग – घोड़ा
दस्यु – डाकू
निविड़ – घना
विक्षिप्त – पागल
आलोक – प्रकाश
उपकार – भलाई
उल्का – मशाल, तारा
आततायी – अत्याचारी
स्वस्त्ययन – कल्याणार्थ मंगल कामना।
शब्द (Word) | हिंदी अर्थ (Hindi Meaning) | अंग्रेजी अर्थ (English Meaning) |
आर्द्रा | नम, गीला | Moist, wet |
दुंदुभि | ढोल, नगाड़ा | Drum, kettledrum |
निरभ्र | बादल रहित, स्वच्छ | Cloudless, clear |
शैलमाला | पर्वतों की श्रृंखला | Mountain range |
उर्वरा | उपजाऊ | Fertile |
तोरण | प्रवेश द्वार पर सजावट | Decorative archway |
जयघोष | विजय का उद्घोष | Victory proclamation |
चामरधारी | चँवर लिए हुए | Fan-bearer |
हेम | सुनहरा, स्वर्णिम | Golden |
अनुरंजित | रंग से सजा हुआ | Tinged, colored |
सौभाग्यवती | विवाहित सुखी स्त्री | Fortunate married woman |
स्वस्त्ययन | मंगल कामना का पाठ | Benediction, auspicious chant |
कौशेय | रेशमी | Silken |
रूखी | सूखी, बिखरी हुई | Dry, disheveled |
अलक | बालों की लट | Lock of hair |
कुतूहल | उत्सुकता, जिज्ञासा | Curiosity, eagerness |
न्यौछावर | भेंट करना | Offer, sacrifice |
अनुग्रह | कृपा, उपकार | Favor, grace |
उन्मत्त | उत्तेजित, पागल | Frenzied, ecstatic |
निविड़ | घना, गहरा | Dense, deep |
पाठ से
- कोशल में आयोजित होने वाले उत्सव के परंपरागत नियम क्या थे?
उत्तर – कोशल का कृषि महोत्सव एक परंपरागत उत्सव था जिसमें महाराज एक दिन के लिए कृषक बनकर हल चलाते थे। नियम के अनुसार, किसी अच्छी भूमि को उत्सव के लिए चुना जाता था और उसका चौगुना मूल्य पुरस्कार स्वरूप दिया जाता था। वह खेत राजा का खेत कहलाता था, जिसे चुना गया व्यक्ति वर्ष भर देखभाल करता था। उत्सव में इंद्र पूजन और गोठ की धूमधाम होती थी।
- मधुलिका ने अपनी भूमि के बदले मिलने वाली राजकीय अनुग्रह को अस्वीकार कर किस प्रकार के जीवन निर्वाह को चुना और क्यों?
उत्तर – मधुलिका ने अपनी भूमि के बदले स्वर्णमुद्राएँ अस्वीकार कर कठोर परिश्रमी जीवन चुना। वह दूसरों के खेतों में काम करती और रूखा-सूखा खाकर मधूक वृक्ष की पर्णकुटी में रहती थी। उसने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह अपनी पितृ-पितामहों की भूमि को बेचना अपराध मानती थी और राजकीय अनुग्रह को तिरस्कार कर अपनी स्वतंत्रता और सम्मान बनाए रखना चाहती थी।
- दुर्ग पर अरुण के गुप्त आक्रमण की सूचना सेनापति को देकर मधुलिका ने अपने प्रेम के प्रति विश्वासघात का कार्य किया अथवा उत्कृष्ट नागरिकता का परिचय दिया? उपयुक्त उदाहरण देकर अपने मत का समर्थन कीजिए।
उत्तर – मधुलिका ने अरुण के आक्रमण की सूचना देकर उत्कृष्ट नागरिकता का परिचय दिया। उसका हृदय अरुण के प्रति प्रेम से भरा था, लेकिन अपने पिता सिंहमित्र की तरह कोशल की रक्षा को प्राथमिकता दी। उदाहरणस्वरूप, जब वह अंधकार में पिता की पुकार सुनती है, तो वह देशभक्ति से प्रेरित होकर सेनापति को सूचित करती है, जिससे दुर्ग बच जाता है। यह उसकी नैतिकता और कर्तव्यनिष्ठा को दर्शाता है।
- मधुलिका ने पुरस्कार के रूप में राजा से प्राणदंड क्यों माँगा एवं स्वयं बंदी अरुण के पास क्यों जा खड़ी हुई?
उत्तर – मधुलिका ने प्राणदंड माँगा क्योंकि वह अपने प्रेम और देशभक्ति के द्वंद्व में फँसी थी। अरुण के प्रति उसका स्नेह सच्चा था, पर उसने कोशल की रक्षा के लिए उसे धोखा दिया, जिससे उसे अपराधबोध हुआ। अरुण के पास खड़े होकर उसने अपने प्रेम की निष्ठा दिखाई और प्राणदंड माँगकर अपनी अंतरात्मा की पीड़ा को व्यक्त किया, ताकि वह अरुण के साथ दंड भोग सके।
- “पुरस्कार कहानी प्रेम और संघर्ष का अनूठा उदाहरण है।” इस कथन के पक्ष में अपने विचार दीजिए।
उत्तर – ‘पुरस्कार’ प्रेम और संघर्ष का अनूठा उदाहरण है। मधुलिका का अरुण के प्रति प्रेम और देशभक्ति का द्वंद्व उसकी आंतरिक संघर्ष को दर्शाता है। वह प्रेम में पड़कर भी कोशल की रक्षा करती है, जो नैतिक संघर्ष को उजागर करता है। अरुण का नया राज्य स्थापित करने का सपना और मधुलिका का पुरस्कार अस्वीकार करना बाह्य संघर्ष दिखाता है। यह कहानी प्रेम की गहराई और कर्तव्य के प्रति निष्ठा को मार्मिक रूप से प्रस्तुत करती है।
- भाव स्पष्ट कीजिए
(क) “मधुलिका की आँखों के आगे बिजलियाँ हँसने लगीं, दारुण भावना से उसका मस्तिष्क झंकृत हो उठा।”
उत्तर – यह वाक्य मधुलिका के तीव्र मानसिक द्वंद्व और भावनात्मक उथल-पुथल को दर्शाता है। अरुण के आक्रमण की योजना सुनकर उसका मन देशभक्ति और प्रेम के बीच झूल रहा था। “बिजलियाँ हँसने लगीं” प्रतीकात्मक रूप से उसकी चेतना में उभरती तीव्र भावनाओं को दर्शाता है, जबकि “दारुण भावना” और “मस्तिष्क झंकृत” उसके गहन दुख और नैतिक संकट को व्यक्त करते हैं।
(ख) “जीवन में सामंजस्य बनाए रखने वाले उपकरण तो अपनी सीमा निर्धारित रखते हैं परंतु उनकी आवश्यकता और कल्पना, भावना के साथ बढ़ती घटती रहती है।”
उत्तर – यह वाक्य जीवन की भौतिक आवश्यकताओं और भावनात्मक इच्छाओं के बीच अंतर को दर्शाता है। भौतिक उपकरण (जैसे भोजन, वस्त्र) की सीमाएँ निश्चित होती हैं, लेकिन मानवीय भावनाएँ और कल्पनाएँ (प्रेम, महत्वाकांक्षा) असीमित होती हैं। मधुलिका की गरीबी में भी अरुण के प्रेम की स्मृति उसकी भावनाओं को प्रज्वलित करती है, जो भौतिक सीमाओं से परे जाती है।
(ग) उपरोक्त कथन को एक उदाहरण के माध्यम से भी स्पष्ट कीजिए।
उत्तर – उदाहरण: एक गरीब व्यक्ति को केवल रोटी और कपड़े की आवश्यकता होती है, जो भौतिक उपकरण हैं और उनकी सीमा निश्चित है। लेकिन उसका प्रेम या स्वप्न (जैसे अपने बच्चों को शिक्षित करना) उसकी भावनाओं के साथ बढ़ता है। मधुलिका की तरह, वह अपनी झोपड़ी में रहकर भी अरुण के प्रेम और भविष्य की कल्पना करता है, जो उसकी भावनाओं को असीम बनाता है।
पाठ से आगे
- सभा विसर्जन के बाद मधुलिका सबकी दृष्टि से ओझल हो गई। उस समय उसकी मनःस्थिति कैसी रही होगी? सोचकर लिखिए।
उत्तर – सभा विसर्जन के बाद मधुलिका की मनःस्थिति अत्यंत उद्विग्न और द्वंद्वग्रस्त रही होगी। राजकीय अनुग्रह अस्वीकार करने के बाद उसे अपने पिता सिंहमित्र की वीरता और अपनी भूमि के प्रति निष्ठा पर गर्व था, परंतु सामाजिक तिरस्कार और अकेलेपन का दुख भी था। मधूक वृक्ष की छाया में बैठकर वह अपनी गरीबी, खोई भूमि और अरुण की स्मृति से जूझ रही थी, जिससे उसका मन निराशा और आत्मसम्मान के बीच झूल रहा था।
- पुरस्कार नामक इस कहानी का नाट्य रूपान्तर कर कक्षा में मंचन कीजिए।
उत्तर – छात्र शिक्षाल की सहायता से करें।
- ‘कोशल का कृषि महोत्सव भारतीय जन-जीवन में श्रम की स्थापना करता है।‘ इस कथन के आधार पर भारत की सामाजिक व्यवस्था में श्रम के महत्त्व का प्रतिपादन कीजिए।
उत्तर – कोशल का कृषि महोत्सव श्रम की महत्ता को दर्शाता है, जहाँ महाराज स्वयं कृषक बनकर हल चलाते हैं, जो श्रम के प्रति सम्मान को दर्शाता है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था में श्रम जीवन का आधार है। खेती, कारीगरी और मजदूरी से समाज का पोषण होता है। उपनिषदों में कर्म को मोक्ष का मार्ग बताया गया है। आज भी ग्रामीण भारत में खेती और मेहनत सामाजिक-आर्थिक ढांचे का मूल है। उत्सव जैसे होली, दीवाली में श्रमिकों का योगदान सम्मानित होता है, जो सामुदायिक एकता और श्रम की गरिमा को स्थापित करता है।
- “मधुलिका की आँखों के सामने कभी सिंहमित्र और कभी अरुण की मूर्ति अंधकार में चित्रित होती जाती।” उसकी यह स्थिति उसके मानसिक द्वंद्व को दर्शाती है। यह द्वंद्व आपको किस प्रकार प्रभावित करता है?
उत्तर – मधुलिका का मानसिक द्वंद्व प्रेम और कर्तव्य के बीच की जटिलता को दर्शाता है, जो गहरा प्रभाव छोड़ता है। उसका अरुण के प्रति स्नेह और पिता सिंहमित्र की देशभक्ति की स्मृति उसे विचलित करती है। यह द्वंद्व मानव हृदय की गहराई को उजागर करता है, जहाँ व्यक्तिगत इच्छाएँ सामाजिक कर्तव्यों से टकराती हैं। मधुलिका का अंतिम निर्णय देशभक्ति को चुनना प्रेरणादायक है, जो नैतिकता और बलिदान की भावना को मजबूत करता है। यह हमें अपने मूल्यों और कर्तव्यों पर विचार करने को विवश करता है।
भाषा के बारे में
- ‘पुरस्कार‘ नामक यह पाठ गद्य की विधा कहानी के अंतर्गत आता है। कथावस्तु, चरित्र-चित्रण अथवा पात्र, कथोपथन, देशकाल अथवा वातावरण, उद्देश्य, शैली शिल्प ये कहानी के अनिवार्य तत्त्व होते हैं। इस कहानी में ये तत्त्व किस रूप में आए हैं? उदाहरण देकर इस पाठ के कहानी होने की सार्थकता सिद्ध कीजिए।
उत्तर – कथावस्तु – कहानी कोशल के कृषि महोत्सव और मधुलिका के प्रेम व कर्तव्य के द्वंद्व पर आधारित है।
चरित्र-चित्रण – मधुलिका एक साहसी, देशभक्त कृषक बालिका है, जो अपनी भूमि के लिए अनुग्रह ठुकराती है। अरुण महत्वाकांक्षी मगध राजकुमार है, जो प्रेम और सत्ता के लिए जोखिम उठाता है।
कथोपकथन – “मैं तुम्हें राजरानी बनाऊँगा” (अरुण) और “मुझे प्राणदंड चाहिए” (मधुलिका) जैसे संवाद भावनाओं को उजागर करते हैं।
देशकाल – कोशल और मगध का प्राचीन काल, मधूक वृक्ष और दुर्ग का वातावरण जीवंतता देता है।
उद्देश्य – प्रेम, कर्तव्य और बलिदान की नैतिकता को दर्शाना।
शैली-शिल्प – जयशंकर प्रसाद की तत्सम शब्दावली और प्रतीकात्मकता (जैसे बिजलियाँ हँसने लगीं) कहानी को मार्मिक बनाती है।
सार्थकता – यह कहानी प्रेम और देशभक्ति के संघर्ष को चित्रित कर नैतिक मूल्यों को स्थापित करती है, जो पाठक को आत्ममंथन के लिए प्रेरित करती है।
- जयशंकर प्रसाद छायावाद के प्रतिनिधि कवि हैं। उन्हें मूलतः प्रेम का कवि माना जाता है। मानवता और मानवीय भावनाओं का चित्रण उन्होंने अनेक स्थलों पर किया है। उनकी रचनाओं में तत्सम शब्दों की बहुलता देखी जा सकती है। प्रतीकात्मकता तथा बिम्ब विधान उनकी शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं। छोटे-छोटे वाक्यों में गम्भीर भाव भरना, उसमें संगीत और लय का विधान करना उनकी शैली को सरस, स्वाभाविक, प्रवाहपूर्ण, ओजमयी और चुटीली बनाता है। पाठ के आधार पर प्रसाद जी की भाषा-शैली की उक्त विशेषताओं को कहानी में आए अंशों का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए रेखांकित कीजिए।
उत्तर – जयशंकर प्रसाद की भाषा-शैली में तत्सम शब्दों की बहुलता, प्रतीकात्मकता, और लयबद्धता स्पष्ट है।
तत्सम शब्द – “स्वर्णमुद्राएँ”, “उर्वरा भूमि”, “जयघोष” जैसे शब्द कहानी को प्राचीन और गरिमामय बनाते हैं।
प्रतीकात्मकता – “मधुलिका की आँखों के आगे बिजलियाँ हँसने लगीं” में बिजलियाँ मानसिक उथल-पुथल का प्रतीक हैं।
बिम्ब विधान – “प्रभात की हेम किरणों से अनुरंजित नन्हीं बूँदों का झोंका स्वर्ण मल्लिका के समान” प्रकृति और उत्सव का जीवंत बिम्ब प्रस्तुत करता है।
लय और संगीत – “आह! कितना भोला सौंदर्य! कितनी सरल चितवन!” में छोटे वाक्यों में प्रेम और प्रशंसा की लय है।
ओजमयी शैली – “मैं तुम्हें सिंहासन पर बिठाऊँगा” में अरुण का उत्साह और महत्वाकांक्षा ओजस्वी है।
ये विशेषताएँ कहानी को भावपूर्ण, प्रवाहमयी और मार्मिक बनाती हैं, जो पाठक के हृदय को छूती हैं।
- वह शब्द जिसे संस्कृत भाषा से लेकर हिंदी में ज्यों का त्यों प्रयुक्त किया जाता है, तत्सम शब्द कहलाता है:- उदाहरण प्रहर, स्वर्ण, कृषक इस पाठ में इन शब्दों का बहुलता से प्रयोग हुआ है। इन्हें ढूँढ़िए और शिक्षक की मदद से उनके तद्भव रूप को लिखिए।
उत्तर –
तत्सम शब्द | तद्भव रूप | वाक्य में प्रयोग |
प्रहर | पहर | रात्रि के तीसरे प्रहर में आक्रमण होगा। |
स्वर्ण | सोना | स्वर्णमुद्राएँ दी गईं। |
कृषक | किसान | कृषक बालिका मधुलिका खेत में थी। |
योग्यता विस्तार
- इस कहानी में जिस प्रकार कोशल के उत्सव का उल्लेख हुआ है उसी प्रकार आपके अंचल / प्रदेश में भी कोई उत्सव प्रचलित होगा। घर के बड़े-बुजुर्गों से जानकारी प्राप्त कर उसका लेखन कीजिए।
उत्तर – गंगा दशहरा (उत्तर प्रदेश)
गंगा दशहरा उत्तर प्रदेश में ज्येष्ठ मास की दशमी को मनाया जाता है। बड़े-बुजुर्गों के अनुसार, यह गंगा के धरती पर अवतरण का उत्सव है। लोग गंगा स्नान करते हैं, दीप दान करते हैं और मेलों में शामिल होते हैं। काशी में घाटों पर दीप जलाए जाते हैं, भजन-कीर्तन होते हैं। महिलाएँ मंगल गीत गातीं, और पुजारी गंगा आरती करते हैं। यह उत्सव प्रकृति और श्रम (जल संरक्षण) के प्रति कृतज्ञता दर्शाता है। बच्चे मिट्टी के खिलौने खरीदते हैं, और दान-पुण्य का महत्त्व बताया जाता है। यह सामाजिक एकता और आध्यात्मिकता को बढ़ावा देता है।
- ‘पुरस्कार‘ नामक इस कहानी में बहुत सारे ऐतिहासिक स्थलों के नाम आए हैं। भारत के नक्शे में इनका विस्तार कहाँ से कहाँ तक था एवं वर्तमान में इन्हें किन नामों से जाना जाता है? पता लगाइए और लिखिए।
उत्तर – कोशल – प्राचीन कोशल उत्तर भारत में गंगा के तट पर फैला था, जो वर्तमान उत्तर प्रदेश के अयोध्या, फैजाबाद, और गोंडा क्षेत्रों को शामिल करता था। इसका केंद्र श्रावस्ती (वर्तमान सहेत-महेत, उत्तर प्रदेश) था।
मगध – मगध दक्षिण बिहार में था, जिसमें पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) और गया शामिल थे।
वाराणसी – प्राचीन काशी, वर्तमान वाराणसी, उत्तर प्रदेश में गंगा तट पर स्थित है।
श्रावस्ती – कोशल की राजधानी, वर्तमान सहेत-महेत, उत्तर प्रदेश।
ये स्थान प्राचीन भारत के सांस्कृतिक और राजनीतिक केंद्र थे, जो आज भी ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं।
- पाठ में ‘चार प्रहर‘ शब्द का उल्लेख आया है-
(क) प्राचीन काल में एक दिन में चौबीस घंटे को आठ हिस्सों में बाँटा गया था, जिसे हम समय की इकाई ‘प्रहर‘ के नाम से जानते हैं। अपने शिक्षक की मदद से उक्त आठों प्रहरों के नाम एवं उनके समय विषयक जानकारी एकत्र करके लिखिए।
उत्तर – प्राचीन काल में एक दिन (24 घंटे) को आठ प्रहरों में बाँटा गया था, प्रत्येक प्रहर लगभग 3 घंटे का होता था।
प्रभात प्रहर: सुबह 3:00 से 6:00 (सूर्योदय)
पूर्वाह्न प्रहर: सुबह 6:00 से 9:00
मध्याह्न प्रहर: सुबह 9:00 से 12:00
अपराह्न प्रहर: दोपहर 12:00 से 3:00
सायं प्रहर: दोपहर 3:00 से 6:00 (सूर्यास्त)
प्रदोष प्रहर: शाम 6:00 से 9:00
निशीथ प्रहर: रात 9:00 से 12:00
उषा प्रहर: रात 12:00 से 3:00
(ख) संगीत में भी इन प्रहरों के आधार पर अलग-अलग रागों के गायन का विधान है, उन्हें भी जानिए।
उत्तर – प्रभात प्रहर (3:00-6:00 AM): राग भैरवी, राग ललित।
पूर्वाह्न प्रहर (6:00-9:00 AM): राग बिलावल, राग अहीर भैरव।
मध्याह्न प्रहर (9:00 AM-12:00 PM): राग तोड़ी, राग जोग।
अपराह्न प्रहर (12:00-3:00 PM): राग मियाँ की मल्हार।
सायं प्रहर (3:00-6:00 PM): राग पूरिया, राग मारवा।
प्रदोष प्रहर (6:00-9:00 PM): राग यमन, राग कल्याण।
निशीथ प्रहर (9:00 PM-12:00 AM): राग दरबारी, राग मालकौंस।
उषा प्रहर (12:00-3:00 AM): राग सोहनी, राग हिंदोल।
ये राग समय के भाव और प्रकृति के साथ सामंजस्य रखते हैं।
बहुविकल्पीय प्रश्नोत्तर
कोशल का कृषि महोत्सव किसके लिए प्रसिद्ध था?
a) युद्ध
b) इंद्र पूजन और गोठ
c) नृत्य
d) व्यापार
उत्तर: b) इंद्र पूजन और गोठ
महाराज उत्सव में क्या करते थे?
a) नृत्य
b) हल चलाते
c) युद्ध की घोषणा
d) भोज आयोजन
उत्तर: b) हल चलाते
मधुलिका ने स्वर्णमुद्राएँ क्यों ठुकराईं?
a) धन की कमी
b) पितृ-भूमि बेचना अपराध माना
c) राजा से असहमति
d) डर के कारण
उत्तर: b) पितृ-भूमि बेचना अपराध माना
अरुण किस राज्य का राजकुमार था?
a) कोशल
b) मगध
c) वाराणसी
d) अवंति
उत्तर: b) मगध
मधुलिका का खेत उत्सव के लिए क्यों चुना गया?
a) उपजाऊ होने के कारण
b) राजा का आदेश
c) मधुलिका की माँग
d) गलती से
उत्तर: a) उपजाऊ होने के कारण
महाराज ने मधुलिका को क्या पुरस्कार दिया?
a) भूमि
b) स्वर्णमुद्राएँ
c) रथ
d) गहने
उत्तर: b) स्वर्णमुद्राएँ
मधुलिका के पिता का नाम क्या था?
a) अरुण
b) सिंहमित्र
c) सेनापति
d) मंत्री
उत्तर: b) सिंहमित्र
अरुण ने कोशल पर आक्रमण की योजना क्यों बनाई?
a) धन के लिए
b) मधुलिका से प्रेम और सत्ता के लिए
c) बदला लेने
d) मनोरंजन के लिए
उत्तर: b) मधुलिका से प्रेम और सत्ता के लिए
मधुलिका ने आक्रमण की सूचना किसे दी?
a) महाराज
b) मंत्री
c) सेनापति
d) प्रतिहारी
उत्तर: c) सेनापति
मधुलिका ने अंत में पुरस्कार में क्या माँगा?
a) धन
b) भूमि
c) प्राणदंड
d) गहने
उत्तर: c) प्राणदंड
उत्सव में बीज देने का सम्मान किसे मिला?
a) सौभाग्यवती
b) मधुलिका
c) पुरोहित
d) अरुण
उत्तर: b) मधुलिका
महाराज ने मधुलिका को पहचानने में क्या कहा?
a) तुम व्यापारी हो
b) तुम्हें कहीं देखा है
c) तुम विद्रोही हो
d) तुम रानी हो
उत्तर: b) तुम्हें कहीं देखा है
मधुलिका ने अपनी भूमि क्यों नहीं बेची?
a) धन की कमी
b) पितृ-पितामहों की स्मृति के लिए
c) राजा से डर
d) अरुण के कहने पर
उत्तर: b) पितृ-पितामहों की स्मृति के लिए
अरुण की योजना क्या थी?
a) कोशल पर आक्रमण
b) मधुलिका से विवाह
c) नया खेत खरीदना
d) व्यापार शुरू करना
उत्तर: a) कोशल पर आक्रमण
मधुलिका ने सेनापति से क्या कहा?
a) मुझे पुरस्कार दो
b) दुर्ग पर आक्रमण होगा
c) अरुण को बचा लो
d) मुझे भूमि दो
उत्तर: b) दुर्ग पर आक्रमण होगा
मधुलिका का जीवन निर्वाह कैसा था?
a) वैभवपूर्ण
b) कठोर परिश्रमी
c) आलसी
d) राजसी
उत्तर: b) कठोर परिश्रमी
उत्सव में कौन-सी गतिविधि नहीं थी?
a) इंद्र पूजन
b) गोठ
c) युद्ध
d) हल चलाना
उत्तर: c) युद्ध
मधुलिका ने अरुण को क्या कहा?
a) मैं तुमसे विवाह करूँगी
b) मेरा उपहास न करो
c) मुझे धन दो
d) कोशल छोड़ दो
उत्तर: b) मेरा उपहास न करो
महाराज ने अरुण को क्या दंड दिया?
a) निर्वासन
b) प्राणदंड
c) कारावास
d) जुर्माना
उत्तर: b) प्राणदंड
मधुलिका ने अपनी झोपड़ी में क्या देखा?
a) स्वर्णमुद्राएँ
b) अरुण को
c) सेनापति को
d) महाराज को
उत्तर: b) अरुण को
एक वाक्य वाले प्रश्न और उत्तर
- कोशल का प्रसिद्ध वार्षिक उत्सव क्या था?
उत्तर – कोशल का प्रसिद्ध वार्षिक उत्सव कृषि महोत्सव था, जिसमें महाराज एक दिन के लिए कृषक बनते थे।
- उत्सव के दिन आकाश का दृश्य कैसा था?
उत्तर – उत्सव के दिन आर्द्रा नक्षत्र में आकाश काले-काले बादलों से घिरा हुआ था।
- महाराज का रथ आने पर जनता ने क्या किया?
उत्तर – महाराज का रथ आने पर जनता ने हर्ष और उत्साह से जयघोष किया।
- कृषि उत्सव में महाराज की क्या भूमिका होती थी?
उत्तर – कृषि उत्सव में महाराज को एक दिन के लिए किसान बनकर अपने हाथों से खेत में हल चलाना पड़ता था।
- इस वर्ष राजकीय खेती के लिए किसका खेत चुना गया था?
उत्तर – इस वर्ष राजकीय खेती के लिए वीर सिंहमित्र की पुत्री मधुलिका का खेत चुना गया था।
- महाराज को बीज देने का सम्मान किसे मिला और क्यों?
उत्तर – महाराज को बीज देने का सम्मान मधुलिका को मिला क्योंकि वह उसी के खेत में खेती कर रहे थे।
- मगध का कौन-सा राजकुमार उत्सव देख रहा था?
उत्तर – मगध का राजकुमार अरुण अपने रथ पर बैठकर यह उत्सव देख रहा था।
- राजकुमार अरुण उत्सव में महाराज की जगह किसे देख रहा था?
उत्तर – राजकुमार अरुण उत्सव में महाराज की जगह कृषक कुमारी मधुलिका को देख रहा था।
- पुरस्कार में मिली स्वर्ण मुद्राओं का मधुलिका ने क्या किया?
उत्तर – पुरस्कार में मिली स्वर्ण मुद्राओं को मधुलिका ने महाराज पर न्योछावर करके बिखेर दिया।
- मधुलिका ने पुरस्कार लेने से इंकार क्यों कर दिया?
उत्तर – मधुलिका ने पुरस्कार लेने से इंकार कर दिया क्योंकि वह अपनी पैतृक भूमि को बेचना अपराध समझती थी।
- मधुलिका के पिता का क्या नाम था और वे क्यों प्रसिद्ध थे?
उत्तर – मधुलिका के पिता का नाम सिंहमित्र था और वे वाराणसी युद्ध के वीर थे, जिन्होंने मगध के सामने कोशल की लाज रखी थी।
- राजकीय अनुग्रह ठुकराने के बाद मधुलिका कहाँ बैठी थी?
उत्तर – राजकीय अनुग्रह ठुकराने के बाद मधुलिका अपने खेत की सीमा पर मधूक-वृक्ष के नीचे चुपचाप बैठी थी।
- राजकुमार अरुण दोबारा मधुलिका से कहाँ मिला?
उत्तर – राजकुमार अरुण दोबारा मधुलिका से उसी मधूक-वृक्ष के नीचे मिला, जहाँ वह सो रही थी।
- अरुण ने मधुलिका के सामने क्या प्रस्ताव रखा?
उत्तर – अरुण ने मधुलिका के सामने अपने प्रेम का प्रस्ताव रखा और कोशल नरेश से उसकी भूमि वापस दिलाने का वादा किया।
- मधुलिका ने अपनी भूमि वापस लेने का प्रस्ताव क्यों ठुकरा दिया?
उत्तर – मधुलिका ने अपनी भूमि वापस लेने का प्रस्ताव इसलिए ठुकरा दिया क्योंकि वह कोशल के राष्ट्रीय नियम को बदलना नहीं चाहती थी।
- राजकीय खेत चले जाने के बाद मधुलिका अपना जीवन कैसे व्यतीत कर रही थी?
उत्तर – राजकीय खेत चले जाने के बाद मधुलिका दूसरों के खेतों में काम करती और मधूक-वृक्ष के नीचे एक छोटी सी पर्णकुटी में रहती थी।
- कितने वर्षों बाद अरुण और मधुलिका की फिर से मुलाकात हुई?
उत्तर – तीन वर्षों बाद अरुण और मधुलिका की फिर से मुलाकात हुई।
- अरुण तीन साल बाद किस अवस्था में मधुलिका से मिला?
उत्तर – अरुण तीन साल बाद मगध से निर्वासित एक विद्रोही के रूप में मधुलिका से मिला, जो कोशल में आजीविका खोजने आया था।
- अरुण ने मधुलिका के सामने अपनी क्या योजना रखी?
उत्तर – अरुण ने मधुलिका के सामने कोशल के श्रावस्ती दुर्ग पर आक्रमण करके एक नया राज्य स्थापित करने की योजना रखी।
- अरुण ने मधुलिका को अपनी योजना में सहायता के लिए कैसे तैयार किया?
उत्तर – अरुण ने मधुलिका को कोशल की महारानी बनाने का लालच देकर अपनी योजना में सहायता के लिए तैयार किया।
- मधुलिका ने महाराज से पुरस्कार के रूप में क्या माँगा?
उत्तर – मधुलिका ने महाराज से दुर्ग के दक्षिणी नाले के पास की जंगली भूमि अपनी खेती के लिए माँगी।
- मधुलिका द्वारा माँगी गई भूमि का सैनिक महत्त्व क्या था?
उत्तर – वह भूमि दुर्ग के बहुत समीप थी, इसलिए उसका सैनिक महत्त्व था और वहाँ से दुर्ग पर आक्रमण करना आसान था।
- अरुण ने किस समय श्रावस्ती दुर्ग पर आक्रमण करने की योजना बनाई थी?
उत्तर – अरुण ने रात के तीसरे प्रहर में श्रावस्ती दुर्ग पर आक्रमण करने की योजना बनाई थी।
- मधुलिका का मन क्यों बदल गया और उसे अपने पिता की याद क्यों आई?
उत्तर – मधुलिका को अचानक यह एहसास हुआ कि वह अपने देश कोशल के साथ विश्वासघात करने जा रही है, जिससे उसे अपने वीर पिता सिंहमित्र की याद आई, जिन्होंने कोशल की रक्षा की थी।
- मधुलिका ने अरुण की योजना की सूचना किसे दी?
उत्तर – मधुलिका ने अरुण की योजना की सूचना कोशल के सेनापति को दी।
- सेनापति ने सूचना मिलने पर तुरंत क्या कार्रवाई की?
उत्तर – सेनापति ने तुरंत सैनिकों को दक्षिणी नाले की ओर भेजा और स्वयं कुछ सैनिकों के साथ दुर्ग की रक्षा के लिए बढ़ गए।
- अरुण का क्या परिणाम हुआ?
उत्तर – अरुण अपने साहसिक अभियान में बंदी बना लिया गया।
- राजा ने बंदी अरुण को क्या सज़ा सुनाई?
उत्तर – राजा ने बंदी अरुण को प्राणदंड की सज़ा सुनाई।
- राजा ने मधुलिका को पुरस्कार में क्या देना चाहा?
उत्तर – राजा ने मधुलिका को पुरस्कार में अपनी सारी निजी खेती देने की पेशकश की।
- अंत में मधुलिका ने राजा से पुरस्कार के रूप में क्या माँगा?
उत्तर – अंत में मधुलिका ने राजा से पुरस्कार के रूप में अपने लिए भी प्राणदंड माँगा और बंदी अरुण के पास जाकर खड़ी हो गई।
40-50 शब्दों वाले प्रश्नोत्तर
- कोशल का कृषि महोत्सव क्या था और उसका महत्त्व क्या था?
उत्तर – कोशल का कृषि महोत्सव इंद्र पूजन और गोठ के लिए प्रसिद्ध था, जिसमें महाराज हल चलाते थे। यह श्रम की गरिमा को दर्शाता था और सामुदायिक एकता को बढ़ावा देता था। अन्य राज्यों के राजकुमार भी इसमें उत्साह से भाग लेते थे।
- मधुलिका ने स्वर्णमुद्राएँ क्यों ठुकराईं?
उत्तर – मधुलिका ने स्वर्णमुद्राएँ इसलिए ठुकराईं क्योंकि वह अपनी पितृ-पितामहों की भूमि को बेचना अपराध मानती थी। उसका आत्मसम्मान और देशभक्ति उसे धन स्वीकार करने से रोकती थी, जो उसके नैतिक मूल्यों और स्वतंत्रता की भावना को दर्शाता है।
- अरुण का मधुलिका के प्रति प्रेम कैसा था?
उत्तर – अरुण का मधुलिका के प्रति प्रेम सच्चा पर महत्वाकांक्षी था। वह उसकी सादगी और सौंदर्य से आकर्षित था, लेकिन उसने प्रेम को सत्ता हासिल करने के लिए उपयोग किया। उसकी योजना कोशल पर आक्रमण की थी, जो प्रेम में स्वार्थ को दर्शाता है।
- मधुलिका की मनःस्थिति का वर्णन उत्सव के बाद कैसा था?
उत्तर – उत्सव के बाद मधुलिका उदास और द्वंद्वग्रस्त थी। वह अपनी भूमि खोने और राजकीय अनुग्रह ठुकराने के कारण अकेलापन महसूस करती थी। मधूक वृक्ष की छाया में वह अपनी गरीबी और अरुण की स्मृति से जूझ रही थी।
- महाराज ने मधुलिका को पहचानने में क्या कहा?
उत्तर – महाराज ने मधुलिका को देखकर कहा, “तुम्हें कहीं देखा है?” यह दर्शाता है कि वे उसे उत्सव से याद करते हैं, जहाँ उसने बीज देने का सम्मान प्राप्त किया था। यह उनके संवेदनशील और सजग स्वभाव को उजागर करता है।
- मधुलिका ने सेनापति को आक्रमण की सूचना क्यों दी?
उत्तर – मधुलिका ने सेनापति को अरुण के आक्रमण की सूचना अपनी देशभक्ति और पिता सिंहमित्र की स्मृति के कारण दी। प्रेम के बावजूद उसने कोशल की रक्षा को चुना, जो उसके नैतिक बल और कर्तव्यनिष्ठा को दर्शाता है।
- मधुलिका ने प्राणदंड क्यों माँगा?
उत्तर – मधुलिका ने प्राणदंड माँगा क्योंकि वह अरुण को धोखा देने के अपराधबोध से ग्रस्त थी। वह अपने प्रेम की निष्ठा दिखाना चाहती थी और अरुण के साथ दंड भोगने को तैयार थी, जो उसकी भावनात्मक गहराई को दर्शाता है।
- अरुण की योजना क्या थी और वह क्यों विफल हुई?
उत्तर – अरुण की योजना कोशल के दुर्ग पर आक्रमण कर सत्ता हासिल करना था। वह मधुलिका के प्रेम का उपयोग करना चाहता था। यह योजना विफल हुई क्योंकि मधुलिका ने देशभक्ति को चुना और सेनापति को सूचना दी, जिससे सैनिक सतर्क हो गए।
- मधुलिका के जीवन निर्वाह का वर्णन करें।
उत्तर – मधुलिका ने कठोर परिश्रमी जीवन चुना, दूसरों के खेतों में काम किया और मधूक वृक्ष की पर्णकुटी में रूखा-सूखा खाकर रही। उसकी तपस्या और स्वाभिमान उसे सम्मानित बनाता था, जो उसकी दृढ़ता और आत्मनिर्भरता को दर्शाता है।
- कहानी का अंत मधुलिका के चरित्र को कैसे उजागर करता है?
उत्तर – मधुलिका का प्राणदंड माँगना उसके प्रेम और अपराधबोध के द्वंद्व को दर्शाता है। वह अरुण के पास खड़े होकर अपनी निष्ठा दिखाती है, पर देशभक्ति को प्राथमिकता देती है। यह उसके नैतिक बल और बलिदानी स्वभाव को उजागर करता है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
- कोशल के कृषि महोत्सव का वर्णन करें और इसका सामाजिक महत्त्व क्या था?
उत्तर – कोशल का कृषि महोत्सव इंद्र पूजन और गोठ के साथ आयोजित होता था, जिसमें महाराज हल चलाते थे। सौभाग्यवती और कुमारियाँ मंगल कलश और फूलों से स्वागत करती थीं। यह उत्सव श्रम की गरिमा, सामुदायिक एकता और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता को दर्शाता था। अन्य राज्यों के राजकुमारों की भागीदारी इसे सांस्कृतिक महत्त्व देती थी, जो समाज में श्रम और सहयोग को बढ़ावा देता था।
- मधुलिका के चरित्र की मुख्य विशेषताएँ क्या थीं और वे कहानी में कैसे प्रकट हुईं?
उत्तर – मधुलिका स्वाभिमानी, देशभक्त और भावनाशील थी। उसने पितृ-भूमि के लिए स्वर्णमुद्राएँ ठुकराईं, जो उसकी स्वतंत्रता और सम्मान को दर्शाता है। अरुण के प्रेम में पड़कर भी उसने कोशल की रक्षा के लिए सूचना दी, जो उसकी कर्तव्यनिष्ठा दिखाता है। प्राणदंड माँगकर वह अपने अपराधबोध और प्रेम की गहराई को व्यक्त करती है, जो उसके नैतिक बल को उजागर करता है।
- अरुण और मधुलिका के संबंध को कहानी कैसे चित्रित करती है?
उत्तर – अरुण और मधुलिका का संबंध प्रेम और महत्वाकांक्षा का मिश्रण है। अरुण मधुलिका की सादगी से आकर्षित होता है, पर उसका प्रेम सत्ता की चाह से प्रेरित है। मधुलिका का प्रेम सच्चा है, पर वह देशभक्ति को चुनती है। उनकी बातचीत, जैसे “मैं तुम्हें सिंहासन पर बिठाऊँगा,” प्रेम और स्वार्थ के टकराव को दर्शाती है, जो अंत में मधुलिका के बलिदान से टूट जाता है।
- मधुलिका ने अपनी भूमि के बदले अनुग्रह क्यों नहीं स्वीकार किया और इसका प्रभाव क्या हुआ?
उत्तर – मधुलिका ने अपनी पितृ-पितामहों की भूमि को बेचना अपराध माना, इसलिए स्वर्णमुद्राएँ ठुकराईं। यह उसके आत्मसम्मान और स्वतंत्रता का प्रतीक था। इससे वह सामाजिक तिरस्कार और गरीबी में जीने को मजबूर हुई, पर उसकी दृढ़ता ने उसे आदर्श बनाया। उसका यह निर्णय कहानी में देशभक्ति और नैतिकता की थीम को मजबूत करता है, जो पाठक को प्रेरित करता है।
- कहानी का अंत मधुलिका और अरुण के लिए क्या संदेश देता है?
उत्तर – कहानी का अंत मधुलिका के प्राणदंड माँगने और अरुण के बंदी होने से प्रेम और कर्तव्य के संघर्ष का संदेश देता है। मधुलिका का बलिदान देशभक्ति और नैतिकता की जीत दर्शाता है, जबकि अरुण की हार महत्वाकांक्षा के दुरुपयोग की निंदा करती है। यह पाठकों को प्रेम में नैतिकता और कर्तव्य की प्राथमिकता पर विचार करने को प्रेरित करता है।

